भारत में संवैधानिक संस्थाएं हमेशा से ही अपने स्वतंत्र और स्वायत्त रवैये के लिए जानी जाती रही हैं। हालांकि, बीते कुछ समय में इन संस्थानों में अधिकारियों की नियुक्ति से लेकर इनके काम करने के ढंग पर भी सवाल उठे हैं। ताजा मामला भारत के ऑडिट से जुड़े संस्थान नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) से जुड़ा है। बीते कुछ समय में सीएजी की रिपोर्ट्स में देरी को लेकर सवाल उठे हैं। हालांकि, अब संस्थान की ओर से दी जाने वाली ऑडिट रिपोर्ट्स की कमी ने भी लोगों को चौंका दिया है।

वित्त वर्ष 2018-19 में सीएजी ने कुल 73 ऑडिट रिपोर्ट तैयार कीं। इनमें 15 रिपोर्ट केंद्रीय सरकार के लिए थीं, जबकि 58 राज्य सरकारों के लिए। इससे पहले 2017-18 में सीएजी ने 98 रिपोर्ट्स पेश की थीं। इनमें 32 केंद्र सरकार के लिए थीं और 66 रिपोर्ट राज्यों के लिए। केंद्रीय एजेंसियों और उससे जुड़ी नीतियो-योजनाओं की निष्पक्ष जांच रिपोर्टस के जरिए पहचान बना चुकी सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट्स में लगातार हो रही यह कमी चिंता का विषय है।

दरअसल, मौजूदा सीएजी राजीव महर्षि के कार्यकाल से पहले सीएजी का आउटपुट काफी ऊपर था। 2016-17 में जब शशिकांत शर्मा सीएजी थे, तब इस संस्था ने एक साल में 150 ऑडिट रिपोर्ट्स दी थीं। इनमें 49 केंद्र सरकार के लिए और 101 राज्य सरकारों के लिए थीं। इसी तरह 2015-16 में सीएजी ने 188 रिपोर्ट तैयार कीं (केंद्र सरकार के लिए 53 और राज्यों के लिए 135), 2014-15 में कुल 162 ऑडिट रिपोर्ट तैयार हुई थीं।

सीएजी के तौर पर सबसे व्यस्त कार्यकाल विनोद राय का ही माना जाता है। उनके नेतृत्व में इस संवैधानिक संस्था का आउटपुट सबसे ज्यादा रहा। 2010-11 के दौरान सीएजी ने 221 रिपोर्ट्स तैयार की थीं, जबकि 2011-12 में भी 137 रिपोर्ट्स संसद में रखने के लिए तैयार हुई थीं।

सीएजी के तौर पर विवादों में आ चुका है राजीव महर्षि का कार्यकाल
गौरतलब है कि नवंबर 2018 में ही देश के 60 नामी मौजूदा और रिटायर्ड अफसरों ने महर्षि को पत्र लिखकर नोटबंदी और राफेल पर तैयार की गई सीएजी की रिपोर्ट पर चिंता जताई थी। इस चिट्ठी में कहा गया था कि सीएजी ने जानबूझकर इन रिपोर्ट्स को देरी से पेश किया, ताकि 2019 के चुनाव से पहले केंद्र सरकार को किसी भी तरह की शर्मिंदगी से बचाया जा सके।