राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने शुक्रवार को दो अलग-अलग मामलों में राजस्थान व बुंदेलखंड से जुड़े यूपी और मध्यप्रदेश की सरकारों को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिए। राजस्थान का मामला मुक्त कराए गए 740 बंधुआ बाल श्रमिकों के पुनर्वास में सरकारी स्तर पर ढिलाई वाले रवैए से जुड़ा है। तो उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की खबर आयोग को बुंदेलखंड में सूखे से हताहत लोगों की पीड़ा के मद्देनजर लेनी पड़ी है।
आयोग ने इस बात को बेहद गंभीरता से लिया है कि राजस्थान के विभिन्न इलाकों से मार्च 2013 से जुलाई 2014 के दौरान मुक्त कराए गए 740 बंधुआ बाल श्रमिकों के पुनर्वास के मामले में छह राज्यों ने बेहद ढिलाई भरा रुख दिखाया। ये राज्य हैं- राजस्थान, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और दिल्ली। सभी से दो महीने के भीतर निर्देशों पर अमल कर एटीआर दाखिल करने को कहा गया है। मुक्त कराए गए बच्चों में 610 बिहार के और 130 झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश व राजस्थान के थे। लेकिन इनमें से मुक्ति पत्र केवल बिहार के 456 बच्चों को ही जारी किए गए। इतना ही नहीं राजस्थान के संबंधित अधिकारियों ने ज्यादातर बच्चों को ये प्रमाण पत्र दिए ही नहीं। पुनर्वास के लिए रिहाई प्रमाण पत्र जरूरी होता है।
आयोग ने पाया कि इन बच्चों की मुश्किलों की तरफ कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी गई। आयोग इसे महज बंधुआ बच्चों की रिहाई का मामला भर नहीं मानता बल्कि बच्चे का एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाया जाना उसे और भी जघन्य लगता है। आयोग के निर्देश के बावजूद इन राज्यों ने बाल शोषण के अभिशाप को रोकने के लिए उठाए गए कदमों का ब्योरा नहीं दिया। लिहाजा आयोग ने इन राज्यों के मुख्य सचिवों और पुलिस महानिदेशकों को फटकार लगाई है। साथ ही राजस्थान के श्रम आयुक्त से भी जवाब-तलब किया है।
बुंदेलखंड के मामले में आयोग ने संज्ञान मीडिया की खबर के आधार पर लिया। खबरों के मुताबिक बुंदलेखंड के सूखा प्रभावित इलाकों के लोग भोजन के अभाव में संकट से जूझ रहे हैं और भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। ये इलाके उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश दोनों राज्यों में आते हैं। आयोग ने दोनों के मुख्य सचिवों से चार हफ्ते के भीतर जवाब-तलब किया है और पूछा है कि लोग महज आलू या नमक के सहारे रोटी खा कर स्वस्थ कैसे रह सकते हैं।
इलाके में दलहन और चने की फसल सूखे के कारण चौपट हो गई। नतीजतन ज्यादातर लोगों को अब दालों का स्वाद तक भी याद नहीं। इनमें भूमिहीन आदिवासी ज्यादा हैं और स्कूलों में भी बच्चों को मिड-डे-मील उपलब्ध नहीं है। मनरेगा के तहत भी उन्हें कोई काम नहीं मिल रहा। इससे पहले दिसंबर में मीडिया में खबर आई थी कि बुंदेलखंड के आदिवासी घास की रोटियां खा रहे हैं।