तमन्ना अख्तर
हरियाणा के मेवात क्षेत्र के नूंह जिले की लड़कियां अब अनकही पाबंदियों की चहारदीवारी तोड़ रही हैं। इन लड़कियों ने न केवल खुद स्कूल-कॉलेज जाने का सिलसिला शुरू किया, बल्कि अब सोशल मीडिया पर सक्रिय हो अन्य लड़कियों का भी मार्गदर्शन करने की हिम्मत दिखा रही हैं। सेल्फी विद डॉटर से जुड़ी इन लड़कियों ने बड़े गर्व से अपने इस संघर्ष की कहानी साझा की। उनका कहना है कि इससे पहले गांव की महिलाओं पर सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीर लगाने या सक्रिय रहने पर अनकही पाबंदी थी।
अपने फैसले खुद लूंगी
जिले नूंह के समीपवर्ती साकरस गांव में शहनाज बानो का अकेला पढ़ा-लिखा परिवार है। सीटैट, एसटैट की परीक्षा पास कर शहनाज (25) अब नौकरी तलाश रही हैं। ‘देखो जी मेरा घर है अंगूठा छाप। पढ़ने की जो यह लहर शुरू हुई है इसका सारा श्रेय मेरी बड़ी बहन कुलसुम बानो को जाता है। घर वालों से छुप-छुप कर वह स्कूल जाती थीं और इस तरह उसने पांचवी तक पढ़ाई की।
बानो ने बताया कि कागजी परीक्षा से बड़ी परीक्षा उनकी बहन ने घर आकर दी। काफी चिल्लम चिल्ली के बाद आखिर पापा ने मंजूरी दे ही दी। बानो ने बताया, ‘मेरे पिता पेशे से किसान है। हमारी पढ़ाई से गांव वासियों को हमेशा दिक्कतें होती रहीं। वे पापा के कान भरने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। कभी तुम्हारी बेटियां देखना भाग जाएंगी तो कभी इतना पढ़ा कर भी क्या कर लेंगी.. ढोएंगी तो आखिर में गोबर ही। तब मैंने उनको जवाब दिया कि अगर पढ़ लिखकर गोबर भी ढोना पड़े न तो भी मुझे कोई दिक्कत नहीं। अपनी इच्छा से अपनी जिंदगी जिऊंगी।’
उन्होंने बताया कि वह महिलाओं की शिक्षा के लिए काम करना चाहती हैं। उनका मानना है, ‘जबतक खुद जागेंगे नहीं तबतक दूसरा अपको अंधेरे की ओर धकेलता ही रहेगा। अपने लिए खुद खड़ा होना पड़ता है।’ बानो गांव की 12 वीं कक्षा तक की लड़कियों को घर पर पढ़ाती हैं। इस दौरान एकबार ऐसी लड़कियों के लिए आगे की पढ़ाई की वकालत करने पर गांव वालों ने कहा कि तुम खुद तो पढ़ नहीं रही और इनकी वकालत कर रही हो, इस पर बानो ने उनके जवाब में एमए उर्दू में दाखिला लिया ताकि इन लड़कियों की पढ़ाई जारी रहे।
शहनाज मेवात की उन पांच लड़कियों में से जिन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी डीपी लगाई है। सेल्फी विद डॉटर फाउंडेशन द्वारा कराई गई स्क्रीनिंग में 1000 लड़कियों में इन पांच लड़कियों का चयन हुआ है। इस संदर्भ संस्थान के संस्थापक सुनील जागलान कहते है, ‘ये पांचों सिर्फ बागी नहीं बल्कि बदलाव लाने की उम्मीद है। शहनाज को मैं आने वाले पंचायत चुनाव के लिए खड़ा करवाऊंगा। ऐसी बुलंद आवाज लोगों के सामने आनी चाहिए।’
बागी हैं और बदलाव लाकर दिखाएंगे
दुनिया से लड़ना आसान है लेकिन जब अपने परिजनों से लड़ने की नौबत आ जाए तो इंसान बार-बार टूटता है। अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने का हक हमारे यहां किसी को नहीं दिया गया है। जो इक्का-दुक्का समाज से लड़कर अपने हिसाब से अपनी जिंदगी चलाने का जज्बा रखते हैं उन्हें क्या पता कि पीछे छूटे उनके परिजन उसका खामियाजा भुगतेंगे।
यूपीएससी परीक्षा की तैयारी कर रही 20 साल की अरस्तुन आरा हालांकि बड़ी मजबूती से यह बात कहती हंै पर उसकी छोटी-छोटी आंखों में तैरते बड़े-बड़े सपनों को आकार देने के लिए अपनों के हाथ न मिलने का मलाल उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देते हैं। आरा बताती है कि बड़ी बहन के प्रेम विवाह के बाद उनकी जिंदगी दोजख के समान हो गई थी। सात भाई-बहनों में वह दूसरे नंबर पर है।
बकौल आरा, मुझे पढ़ाई करनी थी। छिपते-छिपाते किसी तरह स्कूल शिक्षा खत्म की लेकिन मुझे वहां रुकना नहीं था। मेरा छोटा भाई राशिद, उसने मुझे सपने देखने की हिम्मत दी। उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और काम करने लगा ताकि मेरी पढ़ाई के लिए पैसे का जुगाड़ हो सके।
19 वर्षीय रिजवाना खान जीएनएम चरखी दादरी में नर्सिंग दूसरे वर्ष की छात्रा है। नूंह के पिपाका गांव की रहने वाली रिजवाना चार भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर हैं।
उनकी बहन तसलीमा खान बीए अंतिम वर्ष की छात्रा है। खान बताती है कि उन्होंने एलकेजी से लेकर आठवीं तक गांव गुस्बेथी में एक स्वंयसेवी संस्थान के अंतर्गत आने वाले दीपलया स्कूल से की है।
दीपलया में लड़कियों को मुफ्त में शिक्षा दी जाती है लेकिन आठवीं के बाद उन्हें कहीं ओर का रास्ता देखना पड़ता है। पिता ने फैसला कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो मैं अपनी बेटी को पढ़ाऊंगा जरूर। उन्होंने कर्ज लेकर रिजवाना को निजी स्कूल में भर्ती करवाया। फीस ज्यादा थी लेकिन माता-पिता के हौंसले से ज्यादा नहीं। चूंकि चिकित्सक बनने के लिए भारी भरकम फीस की जरूरत थी और पिता चाहते थे कि उनकी बेटी स्वास्थ्य क्षेत्र में अपनी सेवा दे तो उन्होंने रिजवाना का नर्सिंग में दाखिला करवा दिया।
सेल्फी विद डॉटर की ब्रांड अम्बेसडर की स्क्रीनिंग में रिजवाना बेहतरीन पांच में चुनी गई है। इस संदर्भ संस्थान के संस्थापक कहते है, ह्यऐसी लड़कियां ही बदलाव लाती हैं। पढ़ाई बहुत जरूरी है। पुरुष को तो परिवार सहायता प्रदान करता ही है लेकिन नजरअंदाज हुई बेटियों की शिक्षा का महत्व बेटों से कही बढ़कर है इस बात का उन्हें संदेश देना है। यह बेटी नहीं आने वाले पीढ़ी की जननी है और जब जननी शिक्षित है तब वह अपने बच्चें को सही शिक्षा दे पाएगी। आखिर बच्चे की पहली गुरु मां ही तो होती है।
जिले नूंह के समीपवर्ती साकरस गांव में शहनाज बानो का अकेला पढ़ा-लिखा परिवार है। सीटैट, एसटैट की परीक्षा पास कर शहनाज (25) अब नौकरी तलाश रही हैं। ‘देखो जी मेरा घर है अंगूठा छाप। पढ़ने की जो यह लहर शुरू हुई है इसका सारा श्रेय मेरी बड़ी बहन कुलसुम बानो को जाता है। घर वालों से छुप-छुप कर वह स्कूल जाती थीं और इस तरह उसने पांचवी तक पढ़ाई की।