दुनिया भर में पीने के साफ पानी की किल्लत विकराल समस्या बनती जा रही है। धरती पर मौजूद पानी का 97 फीसद समुद्रों में है और तीन फीसद ही पीने योग्य है। संयुक्त राष्ट्र की एक रपट के अनुसार 2025 तक दुनिया की चौदह फीसद आबादी के सामने जल संकट खड़ा हो जाएगा। अगर पानी की बर्बादी रोकने और जल संरक्षण के उपाय नहीं किए गए तो हालात और खराब हो सकते हैं। धरती पर पानी की खपत लगतार बढ़ रही है। यूनेस्को की ताजा रपट के मुताबिक इस वक्त दुनिया की दस फीसद आबादी गंभीर जल संकट का सामना कर रही है। यह संकट समय के साथ-साथ और गहराता जा रहा है। दुनिया की आबादी का करीब 18 फीसद हिस्सा भारत में रहता है, लेकिन यहां भी धरती के ताजा पानी के स्रोत का केवल तीन से चार फीसद ही उपयोग लायक है।

उपलब्ध जल स्रोतों का इंसान ने अंधाधुंध दोहन किया है

भले दुनिया विकास कर रही है, पर साफ पानी मिलना कठिन हो रहा है। पृथ्वी पर घटते पेयजल को बचाने और जल संरक्षण के प्रति आज भी हम गंभीर नहीं हैं। हम पानी की कीमत नहीं समझ रहे हैं। उपलब्ध जल स्रोतों का इंसान ने अंधाधुंध दोहन किया है। नदियों, तालाबों और झरनों को पहले ही हम अतिक्रमण और जहरीले रसायनों की भेंट चढ़ा चुके हैं। जो बचा हुआ है, उसे अंधाधुंध खर्च कर रहे हैं। भले नदियों की सफाई और उन्हें प्रदूषण मुक्त करने के लिए अनेक सरकारी और गैर-सरकारी संगठन काम कर रहे हैं, लेकिन सारे प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहे हैं। अगर समय रहते देश में पानी के प्रति अपनत्व की भावना पैदा नहीं हुई, तो आने वाली पीढ़ियां पानी को तरस जाएंगी।

भारत में 9.14 करोड़ बच्चे गंभीर जल संकट से परेशान

भारत पहली बार 2011 में पानी की कमी वाले देशों की सूची में शामिल हुआ था। यूनिसेफ द्वारा 18 मार्च, 2021 को जारी रपट के अनुसार भारत में 9.14 करोड़ बच्चे गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। जल संकट के लिए अतिसंवेदनशील माने जाने वाले 37 देशों में भारत भी शामिल है। यूनिसेफ की रपट कहती है कि 2050 तक भारत में मौजूद जल का 40 फीसद हिस्सा खत्म हो चुका होगा।

दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियां एशिया की हैं

गौरतलब है कि सन 1991 में देश की जनसंख्या 84 करोड़ थी, जो अब 141 करोड़ की सीमा को पार कर चुकी है और 2040 में इसके 157 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है। ऐसी स्थिति में जरूरत की दूसरी वस्तुओं के साथ पानी की मांग भी बढ़नी स्वाभाविक है। मगर आपूर्ति की दृष्टि से हालात निराशाजनक हैं। उल्लेखनीय है कि पानी के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं। संयुक्त राष्ट्र की ‘वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट’ की एक रपट के अनुसार दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियां एशिया की हैं। विशेष रूप से भारत में पानी किस प्रकार नष्ट होता है, इस विषय में जो तथ्य सामने आए हैं उस पर गंभीरता से ध्यान देकर हम पानी को बर्बाद होने से रोक सकते हैं।

कई उद्योगों में पानी की खपत बहुत ज्यादा है

पहले पानी पीने और सीमित सिंचाई में काम आता था, पर अब इसके कई दूसरे उपयोग शुरू हो गए हैं। उद्योगों में होने वाली पानी की खपत एक बड़ा मुद्दा है। अब पानी स्वयं औद्योगिक उत्पाद के रूप में सामने है। जो पानी पोखरों, तालाबों या फिर नदियों में होना चाहिए था, वह अब बोतलों में कैद है। हजारों करोड़ रुपए का हो चुका यह कारोबार निरंतर फल-फूल रहा है। इसके अलावा, आज देश भर में कई ऐसे उद्योग हैं, जिनमें पानी की खपत बहुत ज्यादा है।

फिलहाल कृषि क्षेत्र पानी की सबसे ज्यादा खपत करता है। विश्व में मौजूद मीठे जल का 70 फीसद हिस्सा कृषि में खर्च होता है। पानी की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए भूजल का ज्यादा दोहन हो रहा है। इसकी वजह से दुनिया भर के भूजल भंडार में हर साल 100-200 घन किलोमीटर की कमी आ रही है। ‘इंटरनेशनल ग्राउंड वाटर रिसोर्स असेसमेंट सेंटर’ की ताजा रपट के अनुसार पूरी दुनिया में 270 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो पूरे एक वर्ष में तीस दिन तक पानी के संकट से जूझते हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अगले तीन दशक में पानी का उपभोग एक फीसद की दर से भी बढ़ेगा, तो दुनिया को बड़े जल संकट से गुजरना होगा। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भारत सहित कई देशों में जल बंटवारे संबंधी कई विवाद आज भी अनसुलझे हैं। संयुक्त राष्ट्र का तो यहां तक कहना है कि वर्ष 2030 तक 70 करोड़ लोगों को पानी के लिए अपने क्षेत्रों से विस्थापित होना पड़ेगा।

जल का हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। एक ओर जल संकट से कृषि उत्पादकता प्रभावित हो रही है, तो दूसरी ओर जैव विविधता, खाद्य सुरक्षा और मानव स्वास्थ्य का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। विश्व बैंक का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा हो रहे जल संकट से 2050 तक वैश्विक जीडीपी को छह फीसद नुकसान पहुंचेगा। इसका सबसे ज्यादा असर कृषि, स्वास्थ्य, आमदनी और रिहाइशी इलाकों पर पड़ेगा।

अहम सवाल है कि आखिर इस विश्वव्यापी समस्या के लिए जिम्मेदार कौन है? निश्चय ही इसके मूल में भौतिकवादी मानव का योगदान है, जो कहीं न कहीं किसी न किसी स्तर पर भूल करता आया है। हालांकि विश्व में पेयजल समस्या से निजात पाने के लिए समय-समय पर अनेक ठोस कदम भी उठाए गए हैं। आज विश्व के तमाम देशों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने कई उपाय खोजे हैं। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने वर्षा जल के समुचित प्रबंधन के उपाय किए हैं। समुद्र के तटवर्ती इलाकों में खारापन दूर करने की तकनीक विकसित की गई है। भारत में भी जल संरक्षण को लेकर कई कदम उठाए गए हैं। ‘गंगा कार्य योजना’ इसी दिशा में उठाया गया कदम है। राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के तहत देश-प्रदेश की कई नदियों को प्रदूषणमुक्त बनाया जा रहा है।

भारत में पहली जल नीति 1987 में बनी थी, पर जल प्रबंधन की नई चुनौतियों के मद्देनजर 2002 में नई जल नीति बनाई गई। इसे मानवीय, सामाजिक, क्षेत्रीय और पर्यावरणीय मुद्दों को ध्यान में रखते हुए उपभोग योग्य जल संसाधानों के उचित विकास की दिशा में सकारात्मक कदम कहा जा सकता है, पर पर्याप्त नहीं। यह भी देखने की जरूरत है कि मशीनों के जरिए तैयार किए जाने वाले पेयजल की प्रक्रिया में कितना पानी बर्बाद होता है और उसका कारोबारी पक्ष पेयजल के प्राकृतिक स्रोतों को किस स्तर प्रभावित कर रहा है।

समय आ गया है कि हम वर्षा जल को ज्यादा से ज्यादा बचाने की कोशिश करें, क्योंकि जल का कोई विकल्प नहीं है। ऐसा नहीं कि पानी की समस्या से हम जीत नहीं सकते। अगर सही ढंग से पानी को बचाया और यथासंभव इसे बर्बाद होने से रोका जाए तो इस समस्या का समाधान बेहद आसान हो जाएगा। मगर इसके लिए जरूरत है जागरूकता की, जिसमें छोटे बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़े भी पानी को बचाना अपना धर्म समझें।