अर्थव्यवस्था में मानवीय दृष्टिकोण की अवधारणा कार्ल मार्क्स के समय से ही अस्तित्व में है। आर्थिक विज्ञान और बाजार गतिविधियों के नैतिक आयामों का विश्लेषण करने वाले विद्वानों का मानना है कि अब भी हम अर्थव्यवस्था के मानवीय चेहरे की तलाश में हैं। मानवीय अर्थव्यवस्था में गरीब कल्याण, श्रमिकों के साथ बेहतर व्यवहार, सामाजिक रूप से जागरूक निवेश, निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा आदि तत्त्व शामिल होते हैं। दिखने में यह पूंजीवाद और समाजवाद के बीच का तीसरा रास्ता लग सकता है, लेकिन आज के परिवेश में यह उपयुक्त नहीं लगता, क्योंकि वास्तविक समाजवाद का पतन हो चुका है।
सरकारों ने तमाम योजनाओं के जरिए लोगों को सुविधाएं दीं
इसलिए इसको पूंजीवाद के मानवीय चेहरे के रूप में ही देखना उपयुक्त होगा। इस दृष्टि से मानवीय गरिमा को मान्यता देना, लोगों को गरीबी से बाहर निकालना, पारिवारिक जीवन यापन के लिए एक ठोस आधार प्रदान करना और मानवीय जरूरतों के अनुरूप आवश्यक सामग्री के उत्पादन की क्षमता विकसित करने जैसी क्रियाएं जरूरी होती हैं। देश की सरकारों ने अर्थव्यवस्था में मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन 2005, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 (मनरेगा), बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009, शहरों में गरीबों और बेघरों को आवास प्रदान करने वाली योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 सहित अनेक योजनाओं के जरिए नागरिकों को विभिन्न रूपों में सुविधाएं उपलब्ध कराई। योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु जीएसटी, आयकर जैसे कराधान के प्रावधान भी किए।
टैक्स का बोझ अधिक होने की टैक्स पेयर्स की शिकायत रहती है
करों के मामले में अधिकतर करदाताओं की शिकायत रहती है कि उन पर कर का बोझ अधिक है, जिससे उनको अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के संचालन में कठिनाई आती है और उनके द्वारा उत्पादित माल और सेवाओं पर लगे करों के कारण उनके महंगा होने से उपभोक्ताओं को अधिक खर्च का बोझ उठाना पड़ता है। कराधान के मामले में कौटिल्य ने कहा था कि जनता पर कर का बोझ कम पड़े, इसलिए मधु सिद्धांत के अनुसार कर लेना चाहिए। यानी मधुमक्खी जिस तरह फूलों से रस लेकर शहद बनाती है, फूलों को नुकसान नहीं होने देती और शहद से लोगों को फायदा मिलता है, उसी प्रकार की कर व्यवस्था होनी चाहिए। आम जनता को आवश्यक सुविधाएं करदाताओं पर अनावश्यक कर का बोझ डाले बिना दी जानी चाहिए।
किसान अब खेती को फायदे का सौदा नहीं मानते हैं
अर्थव्यवस्था के मानवीय चेहरे की दृष्टि से विगत वर्षों में हुए दो बड़े आंदोलनों का संदर्भ लेना समीचीन होगा। पहला, किसान आंदोलन और दूसरा, कर्मचारियों द्वारा नई पेंशन योजना की जगह पुरानी पेंशन योजना को वापस लागू करने की मांग का आंदोलन। किसानों का कहना है कि खेती अब उनके लिए लाभदायक नहीं रह गई है। उनको उनकी फसलों का पर्याप्त मूल्य न मिलने से वे कर्ज में डूबते जा रहे हैं और आत्महत्या करने जैसी नौबत आ रही है, इसलिए उनको न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी मिलनी चाहिए।
वे अपनी सभी फसलों पर एमएसपी की गारंटी चाहते हैं। सरकार वर्तमान में 22 खरीफ और रबी फसलों पर एमएसपी दे रही है। इनमें धान, ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का, तूर (अरहर), मूंग, उड़द, मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन (पीली), तिल, नाइजर-बीज और कपास शामिल हैं। इसमें आवश्यकता के अनुसार वृद्धि भी करती है।
आर्थिक विश्लेषकों का मानना है कि देश का कुल वार्षिक बजट सामान्यतया लगभग चालीस लाख करोड़ रुपए का होता है, अगर सभी फसलों पर एमएसपी गारंटी दे दी जाए तो अकेले इस मद में ही सरकार को लगभग दस लाख करोड़ रुपए खर्च करने पड़ेंगे, जिससे विकास के लिए अन्य मदों में खर्च के लिए बहुत कम राशि रह पाएगी। समय-समय पर एमएसपी में बढ़ोतरी से खर्च बढ़ेगा और महंगाई भी बढ़ेगी, जिसका अंतत: भार करदाताओं और उपभोक्ताओं को वहन करना पड़ेगा।
केंद्र और राज्य सरकारों में जहां पर नई पेंशन योजना (एनपीएस) लागू है, वहां के लाखों कर्मचारी लंबे समय से इस योजना की जगह पुरानी पेंशन लागू करने की मांग कर रहे हैं। कई बार धरना-प्रदर्शन कर चुके हैं। कुछ राज्य सरकारों ने पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) को लागू भी कर दिया है। पुरानी पेंशन के संबंध में भी सरकार का यही तर्क है कि सरकार पर पेंशन का बोझ बहुत बढ़ जाएगा और विकास के अन्य कार्यों हेतु धन की व्यवस्था करना कठिन हो जाएगा। आरबीआइ ने राज्यों की वित्त संबंधी रपट 2023-24 में कहा है कि आंतरिक अनुमानों के मुताबिक अगर सभी राज्य ओपीएस बहाल करते हैं, तो सरकार का वित्तीय बोझ एनपीएस की तुलना में 4.5 गुना बढ़ सकता है। ओपीएस से 2060 तक वार्षिक अतिरिक्त बोझ जीडीपी का 0.9 फीसद पहुंच जाएगा।
अनुमान है कि ओपीएस का अंतिम बैच 2040 के दशक के शुरू में सेवानिवृत्त हो जाएगा और 2060 के दशक तक लोगों को ओपीएस के तहत पेंशन मिलती रहेगी। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार ओपीएस से पिछले तीन दशक में केंद्र और राज्य सरकारों की पेंशन देनदारियां कई गुना बढ़ गई हैं। वर्ष 1990-91 में केंद्र सरकार का पेंशन बिल 3,272 करोड़ रुपए था और सभी राज्यों के लिए कुल व्यय 3,131 करोड़ रुपए था। वर्ष 2020-21 तक केंद्र का बिल 58 गुना बढ़कर 1,90,886 करोड़ रुपए हो गया और राज्यों के लिए यह 125 गुना बढ़कर 3,86,001 करोड़ रुपए हो गया है और यह लगातार बढ़ रहा है। दूसरी तरफ, कर्मचारियों का तर्क है कि एनपीएस में नाममात्र की पेंशन मिलती है, जिससे सेवानिवृत्ति के बाद जीवन यापन बहुत कठिन हो जाता है। ऐसे कई उदाहरण है, जिनमें कर्मचारी को मिलने वाली पेंशन मात्र तीन चार सौ रुपए प्रति माह है। इसमें किसी भी तरह की बढ़ोतरी भी नहीं होती।
दोनों ही मामलों में मानवीय पहलू महत्त्वपूर्ण है। एक वर्ग जो किसान है और जिसे अन्नदाता माना जाता है, और दूसरा वर्ग सरकारी कर्मचारी है, जो सारे सरकारी तंत्र की रीढ़ की हड्डी माना जाता है। अगर इन दोनों वर्गों की मांगें पूरी तरह से नहीं मानी जा सकतीं, तो कुछ ऐसे उपाय तो किए ही जा सकते हैं, जिनसे अर्थतंत्र पर बुरा प्रभाव पड़े बिना इनको संतुष्ट किया जा सके। सरकार द्वारा किसानों को सभी फसलों पर एमएसपी गारंटी देना संभव नहीं है, तो बातचीत से बीच का रास्ता निकाल कर अन्य तरीकों से उनकी आय बढ़ने के प्रयास करने चाहिए। इसी प्रकार कर्मचारियों को भी पूरी तरह ओपीएस देना संभव न हो तो एनपीएस को आकर्षक बनाते हुए न्यूनतम पेंशन की गारंटी और समय-समय पर उसमें वृद्धि की व्यवस्था की जा सकती है।
सरकार ने एनपीएस में सुधार के लिए समिति गठित कर रखी है, उसे इन बातों को दृष्टिगत रखते हुए अपनी रपट देनी चाहिए। किसानों और कर्मचारियों के अलावा समाज के विभिन्न वर्गों के गरीबों और पिछड़ों की आर्थिक स्थिति में सुधार हेतु भी प्रभावी कदम उठाए जाने जरूरी हैं, तभी अर्थव्यवस्था के मानवीय पहलू और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा सार्थक हो सकती है।