आजाद भारत में लोकतंत्र का सत्तर साला सफरनामा अपने आप में कई अंतर्विरोधों से बाहर निकलने का कीमती सबक है। इस लिहाज से 1985 की एक घटना की चर्चा इन दिनों काफी हो रही है। यह घटना राजस्थान के भरतपुर के तत्कालीन विधायक राजा मानसिंह की हत्या से जुड़ी है। राजस्थान विधानसभा चुनाव के दौरान सियासी रंजिश में की गई इस हत्या को शासन-प्रशासन की तरफ से पुलिस मुठभेड़ बताने की खूब कोशिश हुई। पर यह कोशिश आखिरकार हार गई। इस मामले में 35 साल बाद आए मथुरा की अदालत के फैसले में 11 पुलिसकर्मियों को मानसिंह की हत्या का कसूरवार ठहराया गया है और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई है। आखिर क्या था यह पूरा मामला? राजा मानसिंह की लोकप्रियता और सियासी हैसियत क्या थी, जो उनकी हत्या के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री तक को इस्तीफा देना पड़ा। इस मामले से जुड़े तमाम घटनात्मक कड़ियों और तारीखी हवालों पर इस बार का विशेष।
राजस्थान की तारीख और संस्कृति की लिखावट में शुरू से वीरता और ललकार की लाली रही है। लिहाजा इस सूबे ने स्वाधीनता के बाद जब लोकतंत्र की लीक पकड़ी तो भी यह लाली गई नहीं। राजा मानसिंह की हत्या और इस कारण गई वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर की कुर्र्सी भी उसी लाल आख्यान का हिस्सा है, जिसमें आजाद भारत के लोकतांत्रिक सफरनामे के कई अंतर्विरोध खुलकर सामने आए। हाल में 35 साल बाद आई निचली अदालत के एक फैसले में इस मामले में दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ सजा सुनाई है। अदलात के इस फैसले से जहां न्याय का एक अध्याय पूरा हुआ है, वहीं तारीख के वे सारे पन्ने फिर से फरफराने लगे हैं जिसमें सत्ता की हठ और उसे चुनौती देने की हिमाकत का दिलचस्प आख्यान दर्ज है।
लोकप्रियता का मान
राजस्थान में राजनीति का यह वह दौर था जब राजसी वैभव लोकतांत्रिक स्वीकृति के लिए आगे आ रहा था। राजा मानसिंह भी इसी कोशिश के तहत निर्वाचित लोकसेवक बनकर अपनी जड़ें जमाने में जुटे थे। भरतपुर राजघराना और राजा मानसिंह का उस इलाके में खासा दबदबा था। मानसिंह 1946 से 1947 तक भरतपुर रियासत के मंत्री रहे। 1947 में सभी रियासतों के स्वतंत्र भारत में विलय के बाद उन्होंने अपने किले से रियासत का झंडा उतारने का विरोध किया था। लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल के हस्तक्षेप के बाद दोनों झंडे लगाने पर सहमति बन गई।
आजादी के कई दशक गुजर जाने के बाद अब लोकतंत्र अपनी जड़ें मजबूत कर चुका था। भरतपुर रियासत राज परिवार के कुछ लोग राजनीति में कई दूसरे स्थानों से पदार्पण कर चुके थे। लेकिन राजामान सिंह ने भरतपुर को ही राजनीति के लिए चुना। वे 1952 से लगातार सात बार कुम्हेर और डीग विधानसभा क्षेत्रों से निर्दर्लीय विधायक चुने जा रहे थे। इधर, 1947 से वर्ष 1985 तक का देश बहुत बदल चुका था लेकिन भरतपुर रियासत का झंडा अभी भी भरतपुर और डीग के किले पर लहराता था। जब इस परिवार के लोग चुनाव लड़ते थे तो चुनाव चिह्न के अलावा रियासत का झंडा ही इनकी पहचान थी।
रियासत के झंडे के प्रति न सिर्फ राज परिवार बल्कि भरतपुर से लगे उत्तर प्रदेश के मथुरा, हाथरस, अलीगढ़ और मुरसान आदि क्षेत्रों में भी बड़ा सम्मान था। 1985 में हुए राजा मानसिंह हत्याकांड की असली कहानी भरतपुर रियासत के झंडे के अपमान के इर्दगिर्द ही लिखी गई है। 1952 से 1984 तक मानसिंह लगातार निर्दर्लीय चुनाव लड़ते रहे और जीतते रहे। 1977 की जनता लहर और 1980 की इंदिरा लहर में भी वे अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे।
सियासी तकरार का झंडा
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या एक बड़ी घटना थी। पूरे देश में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर थी। ठीक एक साल बाद 1985 में राजस्थान में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। तब राजस्थान के मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर थे। बताया जाता है कि उन्होंने डीग की सीट को प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था। 1985 तक कांग्रेस इस विधानसभा क्षेत्र में जीत हासिल नहीं कर पाई थी। ऐसे में कांग्रेस ने मानसिंह के सामने किसी दूसरे राजा को उतारना बेहतर समझा।
कांग्रेस की तलाश एक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी बृजेंद्र सिंह को उनकी शाही पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए पूरी हुई। उन्हें राजा मानसिंह के विरोध में खड़ा किया गया। इस खबर से उत्साहित कांग्रेस समर्थकों ने किले में लाखा तोप के पास लगे राजामान सिंह के रियासत-कालीन झंडे को हटाकर वहां कांग्रेस का झंडा लगा दिया। इससे मानसिंह नाराज हो गए और झंडे के अपमान के बाद उन्होंने जो किया वह इतिहास बन गया।
इधर मान, उधर माथुर
20 फरवरी 1985 को माथुर कांग्रेस प्रत्याशी का प्रचार करने के लिए डीग पहुंचने वाले थे लेकिन, इससे पहले ही मानसिंह अपने समर्थकों के साथ चौड़ा बाजार पहुंचे और वहां कांग्रेस के सभामंच को तहस-नहस कर दिया। इसके बाद वे अपनी जीप से स्थानीय स्कूल पहुंचे और वहां खड़े मुख्यमंत्री के हेलिकॉप्टर को कई बार टक्कर मारी। तब तक माथुर सभास्थल की ओर निकल चुके थे। इस अफरातफरी में मुख्यमंत्री ने टूटे सभामंच से ही जनता को संबोधित किया, लेकिन उन्हें सड़क मार्ग से जयपुर लौटना पड़ा।
इस दौरान उन्होंने भरतपुर में तैनात पुलिस अफसरों की जमकर खिंचाई की और जाते-जाते कड़ी कार्रवाई का ‘इशारा’ भी कर गए। मामला मुख्यमंत्री का था तो अधिकारियों ने आनन-फानन में एफआइआर दर्ज कर ली और फैसला हुआ कि कड़ी कार्रवाई करनी है। पुलिस ने अनाज मंडी में मानसिंह को हाथ से रुकने का इशारा किया। लेकिन मानसिंह ने थोड़ा आगे रुकने का इशारा किया।
इस पर पुलिस जीप के ड्राइवर महेंद्र सिंह ने जीप को राजा की जोंगा के आगे लगा दिया। जब राजा अपनी गाड़ी को पीछे करने लगे तभी फायरिंग हुई। इसमें मानसिंह, सुमेरसिंह और हरिसिंह को गोली लगी। सभी को भरतपुर के अस्पताल लाया गया, जहां मानसिंह को डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया। इसी जीप में राजा के दामाद विजय सिंह सिरोही भी सवार थे, जो किसी तरह बच गए। बाद में सिरोही ने पूरे मुकदमे के दौरान अहम भूमिका निभाई।
यूपी तक हड़कंप
राजा मानसिंह की हत्या के बाद पूर्वी राजस्थान और उससे लगे वाले उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में तनाव पैदा हो गया। लोगों को लग गया था कि यह हत्या है लेकिन पुलिस ने हमेशा इसे आत्मरक्षा में गोली चलाना बताया। भरतपुर में भारी संख्या में लोग सड़कों पर आ गए। वहां कर्फ्यू लगाना पड़ा। खूब आगजनी और हिंसा हुई। पुलिस को गोली भी चलानी पड़ी। इसमें कई लोग मारे भी गए। सरकार के लिए हालात काबू में करना मुश्किल हो गया। मानसिंह की शव यात्रा में शोकाकुल लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा।
इसमें फिर भीड़ और पुलिस में भिड़ंत हो गई। इस भिड़ंत में भी तीन लोगों की जान चली गई। मानसिंह अपने इलाके में बेहद लोकप्रिय थे। राजा मानसिंह की लोकप्रियता का अंदाजा सिर्फ इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि जब राजा मान सिंह की पुत्री दीपा कौर की शादी हुई थी तो भरतपुर और डीग के सैकड़ों गांवों से लोग भात लेकर पहुंचे थे।
माथुर का इस्तीफा
मुठभेड़ की घटना से राजस्थान व यूपी के जाट बाहुल्य क्षेत्रों में भी रोष फैल गया। कांग्रेस आलाकमान ने सोचा कि इस हत्याकांड के बाद शिवचरण माथुर मुख्यमंत्री रहे तो कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव हार जाएंगे। उन्होंने माथुर को तत्काल इस्तीफा देने का निर्देश दिया। माथुर ने 22 फरवरी 1985 की आधी रात को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि 22 फरवरी, 1985 की रात उन्हें राजीव गांधी के निजी सहायक माखनलाल फोतेदार का फोन आया कि इस घटना से भरतपुर और मथुरा के जाट बाहुल्य क्षेत्रों में गलत संदेश जाएगा, इसलिए पद से त्यागपत्र दे दें। उन्होंने उसी रात इस्तीफा दे दिया।
अदालत ने मानी खाकी की मनमानी
एक अनुमान के मुताबिक राजा मानसिंह की हत्या मामले में चले मुकदमे में कुल 18 आरोपियों की सुरक्षा पर ही करीब 15 करोड़ रुपए से अधिक का खर्च हुआ। घटना भरतपुर जिले में जरूर घटी थी लेकिन एक याचिका पर सर्वोच्च न्यायलय के आदेश के कारण मामले की सुनवाई मथुरा की अदालत में हुई।
मथुरा की जिला अदालत मानसिंह हत्याकांड में दोषी पाए गए सभी 11 पुलिसकर्मियों को उम्रकैद व 12-12 हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई है। साथ ही, राजस्थान सरकार को मुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिजनों को 30-30 हजार और घायलों के परिजनों को दो-दो हजार रुपए का मुआवजा देने का निर्देश दिया गया है।
शासन की भी जिम्मेदारी तय हो: रामबहादुर राय
यह एक बड़ा मामला था। 35 साल बाद इस मामले में फैसला आया है। अदालत ने माना है कि राजा मानसिंह की हत्या हुई थी। पुलिस मुठभेड़ की बात गलत साबित हुई। 1985 में जब यह घटना सामने आई थी तो हम इस घटना को कवर करने दिल्ली से जयपुर गए थे।
उन दिनों राजस्थान विधानसभा के चुनाव चल रहे थे। इस घटना के बाद राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर को इस्तीफा देना पड़ा था। लंबी सुनवाई के बाद मथुरा की अदालत ने दोषी पुलिसकर्मियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है। मुझे लगता है पुलिस बिना किसी दबाव के एक विधायक की हत्या जैसा फैसला नहीं कर सकती। लोकतंत्र और न्याय का तकाजा है कि इस मामले में शासन की जिम्मेदारी भी तय होनी चाहिए। अगर ऐसा होता है यह भविष्य के लिए बड़ा उदाहरण साबित होगा।(प्रेप्र)