भारतीय संविधान के निर्माता कहे जाने वाले बाबासाहब भीमराव आंबेडकर को दलितों का मसीहा और ब्राह्मणवाद का कट्टर आलोचक माना जाता है। लेकिन ये बात कम ही लोग जानते हैं कि बाबासाहब का सरनेम (उपनाम) “आंबेडकर” मूलतः ब्राह्मण सरनेम है। बाबासाहब का असली सरनेम आंबावडेकर था। उनका परिवार मूल रूप से महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के आंबावडे गांव का रहने वाला था। बाबासाहब स्कूल जीवन से ही एक मेधावी छात्र थे। इस वजह से उनके स्कूल टीचर महादेव आंबेडकर उन्हें बहुत मानते थे। महादेव आंबेडकर ने ही प्रेमवश बाबासाहब भीमराव के साथ “आंबेडकर” सरनेम जोड़ दिया। बाबासाहब ने कभी इस सरनेम को नहीं बदला। बाबासाहब का जन्म मध्य प्रदेश के महू में 14 अप्रैल 1891 को हुआ था। उनका निधन छह दिसंबर 1956 को हुआ।
बाबासाहब की दूसरी पत्नी डॉक्टर शारदा कबीर भी ब्राह्मण थीं। बाबासाहब की पहली शादी 1906 में रमाबाई से हुई थी। पहली शादी के समय बाबासाहब की उम्र 15 साल और रमाबाई की नौ साल थी। 1935 में रमाबाई का बीमारी के कारण निधन हो गया। पहली पत्नी के निधन के करीब एक दशक बाद 1948 में बाबासाहब ने शारदा से दूसरी शादी की। शादी के बाद शारदा ने अपना नाम बदलकर कमला आंबेडकर रख लिया था। शारदा आखिरी समय तक उनके साथ रहीं और उनके निजी और बौद्धिक जीवन में अहम भूमिका अदा की।
बाबासाहब को अछूत होने की पीड़ा का अनुभव बचपन से था लेकिन पहले वो इसकी जड़ अज्ञान और पिछड़ेपन को मानते थे। बाबासाहब जब तक विदेश से पढ़ाई करके नहीं लौटे थे तब तक उन्हें उम्मीद थी कि हिंदू धर्म से जातिवाद को समाजसुधार के माध्यम से मिटाया जा सकता है। लेकिन जब दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से पढ़ाई करने के बाद भी उन्हें देश वापस आने पर छुआछूत का शिकार होने पड़ा तो धीरे धीरे उनका हिंदू धर्म से मोहभंग होने लगा।
25 दिसंबर 1927 को बाबासाहब ने जाति प्रथा की अनुशंसा करने वाली मनु संहिता का सार्वजनिक दहन किया। 1935 में “जाति का उन्मूलन” निबंध में उन्होंने स्थापना दी कि हिंदू धर्म में रहते हुए जाति से मुक्ति संभव नहीं है। उन्होंने उसी वक्त कह दिया कि वो हिंदू पैदा हुए हैं लेकिन हिंदू के रूप में मरेंगे नहीं। इसके करीब दो दशक बाद बाबासाहब ने 1956 में अपनी मृत्यु से पहले अपने पांच लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। बौद्ध धर्म स्वीकार करने से पहले उन्होंने सिख, इस्लाम और ईसाई धर्मों पर भी विचार किया था लेकिन आखिरकार उन्होंने बुद्ध का मार्ग चुना।
बाबासाहब के पिता रामजी मालोजी सकपाल ब्रिटिश सेना में सूबेदार थे। उनके दादा भी ब्रिटिश फौज में सैनिक थे। वो अपने 14 भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। उनके पिता अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए 1897 में सतारा से मुंबई (तब बॉम्बे) में जा बसे। मुंबई के प्रतिष्ठित एलफिंस्टन कॉलेज में पढ़ने वाले वो पहले दलित छात्र थे। 1913 में वो 22 साल की उम्र में अमेरिकी की कोलंपिया यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए गए। अमेरिका में पढ़ाई करने के लिए उन्हें बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय ने 11.50 पाउंड का वजीफा दिया था। अमेरिका से उन्होंने स्नातक और परास्नातक की पढ़ाई की। अमेरिका में पढ़ाई कनरे के बाद उन्होंने ब्रिटेन जाकर अर्थशास्त्र में पीएचडी करने के साथ ही कानून की भी डिग्री ली।
आजादी के बाद महात्मा गांधी के सलाह पर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बाबासाहब को देश का पहला कानून मंत्री बनाया। उन्हें संविधान निर्माण समिति का उन्हें चेयरमैन भी बनाया गया। नए-नए आजाद हुए देश भारत के लिए एक प्रगतिशील संविधान बनाने का बड़ा श्रेय उन्हें भी जाता है। बाबासाहब बीआर आंबेडकर को 1990 में मरणोपरांत भारत रत्न दिया गया था।