दोहा में हमने जो देखा, उससे आश्चर्य नहीं हुआ। हर कोई जानता था कि क्या होने जा रहा है। यह 17 ट्रेलर के बाद आखिरकार पाकीजा फिल्म देखने जैसा था। अभी बहुत कुछ सामने आना बाकी है।’ विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सोमवार को दिल्ली के एक सेमिनार में जब यह कहा तो स्पष्ट हो गया कि अमेरिका-तालिबान शांति समझौते को लेकर भारत बहुत आश्वस्त नहीं है। अपने कूटनीतिक हितों को लेकर भारत फूंक-फूंककर कदम उठाने की तैयारी में है। शांति समझौते के बाद अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलने का रास्ता मिल गया है। लेकिन तालिबान और पाकिस्तान के आपसी संबंधों को लेकर भारत के कूटनीतिक गलियारों में सवाल उठ रहे हैं। भारतीय राजनयिक अपनी अफगानिस्तान नीति की समीक्षा करने में जुटे हुए हैं। इसकी शुरुआत तभी हो गई, जब शांति समझौते के दस्तखत के मौके पर विदेश सचिव दो दिनों तक काबुल में डेरा डाले रहे और भारत समर्थक माने जाने वाले अफगानिस्तान के मौजूदा नेतृत्व के नुमाइंदों से बातचीत करते रहे।
पश्चिम एशिया का मिशन और परियोजनाएं: आशंका जताई जा रही है कि भू राजनैतिक रूप से अहम अफगानिस्तान में तालिबान के कदम पसारने से वहां की नवनिर्वाचित सरकार को खतरा होगा और भारत की कई विकास परियोजनाएं प्रभावित होंगी। इसके साथ ही पश्चिम एशिया में पांव पसारने के भारत के इरादों को चोट पहुंच सकती है। भारत ने अफगानिस्तान में अरबों डॉलर की लागत से कई बड़ी परियोजनाएं पूरी की हैं और इनमें से कुछ पर अभी काम चल रहा है। भारत ने अब तक अफगानिस्तान को करीब तीन अरब डॉलर की मदद दी है, जिससे वहां संसद भवन, सड़कों और बांध आदि का निर्माण हुआ है। भारत की अफगानिस्तान में लोकप्रियता बढ़ी है। वहां कई मानवीय और विकास परियोजनाओं पर काम चल रहा है। वहां भारत 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहा है, जिन्हें अफगानिस्तान के 31 प्रांतों में क्रियान्वित किया जाएगा। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के क्षेत्र शामिल हैं। भारत काबुल के लिए शहतूत बांध और पेयजल परियोजना पर भी काम कर रहा है। इसके अलावा अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास को प्रोत्साहित करने के लिए भी नांगरहर प्रांत में कम लागत से घरों के निर्माण का काम भी प्रस्तावित है। बामियान प्रांत में बंद-ए-अमीर तक सड़क संपर्क, परवान प्रांत में चारिकार शहर के लिए जलापूर्ति तंत्र, मजार-ए-शरीफ में पॉलीटेक्नीक निर्माण, कंधार में अफगान राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना में भारत सहयोगी है।
चाबहार परियोजना का मामला: घरेलू राजनीति के मुद्दे और भारत के साथ अपने हितों को देखते हुए अफगानिस्तान सरकार, अमेरिका-तालिबान के बीच हो रही शांति वार्ता के खिलाफ थी। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने एक बयान में कहा भी था कि बेगुनाह लोगों की हत्या करने वाले समूह से शांति समझौता निरर्थक है। क्योंकि तालिबान अफगान सरकार को नहीं मानता। अफगानी सरकार ने चाबहार बंदरगाह के मुद्दे पर भारत का साथ दिया। उस बंदरगाह से होकर माल ढुलाई में काबुल अहम पड़ाव है। ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास में भारत ने भारी निवेश किया हुआ है, ताकि अफगानिस्तान, मध्य एशिया, रूस और यूरोप के देशों से व्यापार और संबंधों को मजबूती दी जा सके। इस परियोजना को चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना की काट माना जा रहा है। ऐसे में यदि तालिबान सत्तासीन होता है तो भारत की यह परियोजना भी खतरे में पड़ सकती है, क्योंकि इससे अफगानिस्तान के रास्ते अन्य देशों में भारत की पहुंच बाधित होगी।
तालिबान से पाकिस्तान के दोस्ताना संबंध: तालिबान और अमेरिका की शांति वार्ता और समझौता पाकिस्तान के लिए फायदे का सौदा माना जा रहा है। पाकिस्तानी खुफिया एजंसी आइएसआइ ने अमेरिका-अफगान वार्ता में बिचौलिए का काम किया। तालिबान को अमेरिका के साथ बातचीत की मेज पर पाकिस्तान ही लेकर आया, क्योंकि वह अपने पड़ोस से अमेरिकी फौजों की जल्द वापसी चाहता है। कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका-तालिबान की वार्ता में शामिल होने के लिए ही पाकिस्तान ने कुछ महीने पहले तालिबान के उप संस्थापक मुल्ला बारादर को जेल से रिहा किया था। अब आशंका जताई जा रही है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों के वापस जाते ही पाकिस्तान तालिबान की मदद से कश्मीर में आतंकी घटनाओं को अंजाम दे सकता है। यह भारत की मुश्किल बढ़ाने वाली बात है। पाकिस्तान से तालिबान की नजदीकियों को देखते हुए तालिबानी आतंकी पाकिस्तान के रास्ते भारत में घुसपैठ की कोशिश कर सकते हैं। कई सुरक्षा एजंसियां इसकी आशंका पहले ही जता चुकी हैं। दूसरे, अगर अफगानिस्तान में तालिबान की जड़ें मजबूत होती हैं तो वहां की सरकार को हटाने के लिए पाकिस्तान तालिबान को सैन्य साजो-सामान मुहैया करा सकता है। क्योंकि, अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार के साथ पाकिस्तान के संबंध सही नहीं है।
भारत और तालिबान: भारत शुरुआत से ही तालिबान का खुले तौर पर विरोध करता रहा है। भारत ने उसे मान्यता नहीं दी थी। भारत तालिबान के साथ हुई शांति वार्ता में भी कभी शामिल नहीं हुआ। तालिबान का उदय 90 के दशक में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ, जब अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। पश्तूनों के नेतृत्व में उभरा तालिबान अफगानिस्तान में 1994 में सामने आया। तालिबान ने सबसे पहले धार्मिक आयोजनों या मदरसों के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, जिसमें इस्तेमाल होने वाला ज्यादातर पैसा सऊदी अरब से आता था। 80 के दशक के अंत में सोवियत संघ के अफगानिस्तान से जाने के बाद वहां कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरू हो गया था, जिसके बाद तालिबान का जन्म हुआ। दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्तान से तालिबान ने बहुत तेजी से अपना प्रभाव बढ़ाया।
सितंबर 1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे अफगानिस्तान के हेरात प्रांत पर कब्जा कर लिया। इसके एक साल बाद तालिबान ने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को सत्ता से हटाकर अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। 1998 आते-आते अफगानिस्तान के लगभग 90 फीसद इलाकों पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था। तालिबान के शुरुआती लड़ाकों ने पाकिस्तान के मदरसों में शिक्षा ली। 90 के दशक से लेकर 2001 तक जब तालिबान अफगानिस्तान में सत्ता में था तो केवल तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी- पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब। तालिबान के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ने वाला भी पाकिस्तान आखिरी देश था।
तालिबान से समझौता लंबे समय से ट्रंप की प्राथमिकता बनी हुई थी, विशेषकर अमेरिका में आगामी नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर। अमेरिका ने इसके लिए पाकिस्तान को तरजीह दी, क्योंकि तालिबान से उसके करीबी संबंध हैं। साथ ही ट्रंप ने भारत को भी पुचकारा, क्योंकि अफगानिस्तान की विकास परियोजनाओं में भारत बड़ा निवेशक है। -वाप्पला बालचंद्रन पूर्व विशेष सचिव, मंत्रिमंडल सचिवालय भारत।