6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद हुई हिंसा में अपनी जान गंवाने वाले परिवारों के लिए शनिवार को अयोध्या मामले में आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला (Ayodhya Verdict) मिलीजुली भावनाओं से भरा हुआ था। दंगे के घाव से आहत पीड़ित परिवार अधूरे वादों से जहां निराश हैं, वहीं मामले का निपटारा होना उनके लिए सुकून से भी कम नहीं है। हालांकि, 1992 के दंगों के पीड़ित परिवारों के भीतर अपनों के खोने का गम एक जैसा ही है। लेकिन, दंगे के बाद जिस तरह से इनकी जिदंगियां बदली हैं, उसका भी सितम कुछ अलग ही है।

दंगे से पीड़ित दो संप्रदाय के लोगों की जिदंगी में आए अलग-अलग बदलाव, शासन-व्यवस्था और समाज तथा राजनीति की कार्यशैली पर कई सवाल खड़े करते हैं। 1992 में कोलकाता के महमूद आलम और पूर्णिमा कोठारी की जिदंगी में दंगे ने एक जैसे घाव दिए। लेकिन, 27 साल बाद इन दोनों की जिदंगी में जमीन आसमान का अंतर है। कोलकाता में रहने वाले 34 साल के महमूद आलम एक किराना स्टोर चलाकर अपनी जिदंगी का गुजर-बसर करते हैं। अयोध्या मामले में आए फैसले के बाद वह कहते हैं, “मैं दुआ करता हूं कि अमन-चैन कायम रहे और कोई भी अपना भाई, बेटा या पिता नहीं खोए।”

गौरतलब है कि 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद शहर में दंगे छिड़ गए थे। जिसके बाद पुलिस फायरिंग में दो दर्जन से अधिक लोग मारे गए थे। इनमें महमूद आलम का भाई भी शामिल था। उस दौरान महमूद के भाई मुस्ताक की उम्र 18 साल थी। महमूद के मुताबिक जब फायरिंग शुरू हुई तब उनका भाई छत पर खड़ा था। इसी दौरान एक बुलेट उसे लग गई।

महमूद के मुताबिक, “उसकी (भाई) मौत के बाद मेरा परिवार टूट गया। मेरे पिता को एक लाख रुपये की मदद लेफ्ट सरकार की तरफ से मिली। उन्होंने मेरे परिवार के सदस्य को नौकरी देने का भी वादा किया। मैं आज भी नौकरी का इंतजार कर रहा हूं। मैं किसी तरह अपनी बड़ी बहन की शादी कर पाया था। लेकिन, हम अब इस कदर आर्थिक तंगी में हूं कि अपनी दूसरी बहन की शादी नहीं कर पा रहा। वह 38 साल की है। मैंने यह दुकान चलाने के लिए 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी।”

आलम के घर से महज 5 किलोमीटर दूर जोरासांको क्षेत्र में पूर्णिमा कोठारी मीडिया के कैमरे और बीजेपी के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय समेत तमाम राजनेताओं से घिरी रहती हैं। बाबरी विध्वंस के बाद हुए दंगे में अपने दो भाइयों को गंवाने के बाद पूर्णिमा की जिदंगी ने बिल्कुल अलग ही मोड़ इख्तियार किया। आज पूर्णिमा एक बिजनसवूमन हैं। वह एक कॉलेज जाने वाली बेटी की मां हैं और बीजेपी स्थानीय इकाई की अध्यक्ष भी हैं। वह पार्टी के टिकट पर निकाय चुनाव भी लड़ चुकी हैं।

पूर्णिमा कहती हैं, “मैंने अपने दो भाइयों राम (23) और शरद (20), जो कि बजरंग दल के सदस्य थे, उन्हें खो दिया। इसके बाद मेरे माता-पिता दुनिया से चल बसे। सभी ने मुझे छोड़ दिया था। फैसला (Ayodhya Verdict) खुशी और गम दोनों लेकर आया है। इसमें काफी वक्त गुजरा, लेकिन आज कहीं न कहीं पुराना जख्म जरूर ठीक हुआ है।”