डर अनेक तरह के गलत क्रियाकलापों से बचाता है। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले एक विज्ञापन में कहा जाता है कि ‘डर के आगे जीत है’। इस विज्ञापन में प्रदर्शित किया जाता है कि हमें डरना नहीं चाहिए। जब हमारा डर दूर हो जाता है, तभी जीत होती है। यह विज्ञापन जिस संदर्भ में है, उससे हटकर इसका दूसरा अर्थ भी निकाल सकते हैं।

दूसरा अर्थ यह है कि जब हम डरेंगे, तब ही जीतेंगे। डरने का अर्थ यह नहीं है कि हम डरकर मैदान छोड़ दें। इसका सही अर्थ यह है कि हमारे अंदर थोड़ा डर अवश्य रहना चाहिए। जब हमारे अंदर थोड़ा डर रहता है, तब ही हम जी जान से जीतने के लिए प्रयास करते हैं। अगर हमारे अंदर किसी तरह का डर नहीं रहता है तो हमारे लापरवाह होने की संभावना बढ़ जाती है।

यह लापरवाही अंतत: हमें विफलता की ओर धकेलती हैै। इसलिए सफलता के लिए थोड़ा बहुत डर होना जरूरी है। निश्चित रूप से डरना गलत है, लेकिन यदि थोड़ा डर कर सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं तो डरना बुरा नहीं है। कई बार डर हमें मानसिक रूप से परेशान करता है लेकिन कई बार भय हमारी सक्रियता भी बढ़ाता है। यह सक्रियता ही हमें सफलता की ओर ले जाती है।

भय कई तरह के हो सकते हैं। यानी यह हमें नकारात्मकता की तरफ भी ले जा सकता है और सकारात्मकता की तरफ भी। किसी बीमारी का डर हमें नकारात्मकता की तरफ ले जाता है। अगर किसी इनसान को अपनी असाध्य बीमारी का पता चल जाए तो वह जल्दी ही नकारात्मकता की तरफ चला जाता है। इस नकारात्मकता से बाहर निकलना आसान नहीं होता है। कोरोना काल के दौरान ऐसी कुछ घटनाएं सामने आर्इं जिनमें लोगों ने कोरोना के डर की वजह से पैदा हुए अवसाद के कारण आत्महत्या कर ली।

इसी तरह पढ़ाई का डर या कार्यालय में किसी काम की अधिकता का डर भी हमें नकारात्मकता की तरफ धकेल सकता है। पढ़ाई के डर की वजह से तो कई बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। कुछ बच्चों को किसी विषय विशेष से डर लगने लगता है और उसमें उस विषय के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है। कई डर तात्कालिक होते हैं।

यानी हमें किसी काम या प्रसंग से पहले कुछ समय तक डर लगता है लेकिन काम शुरू होते ही डर समाप्त हो जाता है। लेकिन कुछ डर स्थायी बन जाते हैं। कई बार तात्कालिक डर भी स्थायी बन जाते हैं। स्थायी डर हमारे लिए कई तरह की समस्याएं पैदा करते हैं। जीवन के कुछ प्रसंगों में या फिर मौकों पर तात्कालिक डर होना भी जरूरी है। देखा जाए तो तात्कालिक डर जिंदगी को स्थायित्व देता है।

किसी भी इंसान के दिमाग में स्वाभाविक ही यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि भय हमारी जिंदगी को स्थायित्व कैसे प्रदान कर सकता है ? हम सब यही सोचते हैं कि डर हमें विचलित कर हमारी जिंदगी को अस्थिर कर देता है। हमारा यह सोचना काफी हद तक सही भी है क्योंकि जब हम डर के शिकार हो जाते हैं तो हमारे शरीर में कई तरह के रासायनिक बदलाव होते हैं। ये रासायनिक बदलाव शरीर की उपापचय प्रक्रिया को धीमा कर हमें बीमार बना देते हैं।

निश्चित रूप से बीमारी की हालत में हमारा मन स्थिर नहीं रह पाता है। लेकिन यह इस प्रसंग का एक पहलू है। इस प्रसंग का दूसरा पहलू यह है कि डर हमारी जिंदगी को स्थायित्व प्रदान करने में सहयोग करता है। जब हमें किसी बात का डर नहीं होता है तो हम जरूरत से ज्यादा स्वतंत्र हो जाते हैं।
एक हद तक तो स्वतंत्रता ठीक है लेकिन जब हम स्वयं को जरूरत से ज्यादा स्वतंत्र महसूस करने लगते हैं तो हमारे व्यवहार में भी बदलाव होने लगता है। हम स्वयं को हर तरह के बंधनों से परे समझने लगते हैं। इसलिए जिंदगी में डरना भी जरूरी है। अगर कोई डर ही नहीं होगा तो जीवन अस्त-वयस्त हो जाएगा।