असम के एक शख्स की नागरिकता को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला चर्चा का विषय बना हुआ है। पिछले हफ्ते अदालत ने फॉरेन ट्रिब्यूनल के उस फैसले को खारिज कर दिया जिसमें रहीम अली को विदेश नागरिक करार दिया गया था।
जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह जस्टिस विक्रम नाथ के लिखे इस फैसले को एक ऐतिहासिक फैसला बना दिया है। जिसमें विदेश नागरिकता के आरोपों से जुड़े कानून को काफी स्पष्ट किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फॉरेन ट्रिब्यूनल की कार्यशैली पर भी सवाल उठाए हैं।
मामले के तथ्य क्या हैं?
मोहम्मद रहीम अली का जन्म बारपेटा जिले के डोलुर गांव में हुआ था और उनके माता-पिता का नाम 1965 की मतदाता सूची में था। एक दस्तावेज से पता चलता है कि 1965 से पहले उनका पैतृक निवास डोलुर में था। उनका अपना नाम, उनके भाई-बहनों के साथ,1985 की मतदाता सूची में मौजूद है।
यह पूरा मामला तब शुरू हुआ जब 2004 में नलबाड़ी के पुलिस अधीक्षक के निर्देश पर SI बिपिन दत्ता ने रहीम अली की राष्ट्रीयता की जांच की। चूंकि अली एक सप्ताह के भीतर अपनी राष्ट्रीयता के दस्तावेजी सबूत पेश नहीं कर सके इसलिए इसके बाद उनके खिलाफ मामला दर्ज किया गया।
जब अली ने जो कुछ दस्तावेज दिए उनमें नाम की गलतियों समेत, छोटी मोटी गलती दिखाई दी तो फॉरेन ट्रिब्यूनल ने उन्हें विदेशी घोषित कर दिया। मामला जब सुप्रीम कोर्ट के सामने आया तो कोर्ट ने फॉरेन ट्रिब्यूनल को एक बार फिर दस्तावेजों की जांच करने के लिए कहा लेकिन इस बार फिरसे अली को विदेशी घोषित कर दिया गया। यह मानते हुए कि वह 25 मार्च, 1971 की कट-ऑफ तिथि को या उसके बाद अवैध रूप से भारत में आया था।
दस्तावेज दिखाने का भार
फॉरेन ट्रिब्यूनल, 1946 की धारा 9 के मुताबिक उस शख्स को अपने नागरिकता से जुड़े दस्तावेज़ दिखाना जरूरी होता है जिसपर विदेशी नागरिक होने का आरोप होता है। हालांकि जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “सवाल यह है कि क्या धारा 9 कार्यपालिका को किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से यह बताने का अधिकार देती है कि हमें आपके विदेशी होने का संदेह है?”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रहीम अली के खिलाफ एक भी सबूत नहीं है और इस बारे में कोई सूचना या सामग्री रिकॉर्ड में नहीं है कि किसने और किस आधार पर शिकायत दर्ज कराई थी कि उसकी नागरिकता जांच की जाए। कोर्ट ने कहा कि किसी पर यह आरोप लगाने के साथ उसे साबित करने के लिए सबूत पेश किए जाने चाहिए।
कोर्ट ने नूर आगा बनाम पंजाब राज्य (2008) के फैसले के आधार पर कहा कि कुछ बुनियादी तथ्यों को पहले अभियोजन पक्ष द्वारा साबित किया जाना चाहिए।
कई लोगों के लिए राहत है यह फैसला
सुप्रीम कोर्ट का यह यह निर्णय कई लोगों की चिंताओं को कम करेगा। खासकर जो नागरिकता (संशोधन) अधिनियम और एनपीआर को लेकर चिंतित थे और जो लोग माता-पिता के नामों में छोटी-मोटी वर्तनी की गलतियों या तारीखों को लेकर चिंतित थे। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाते हुए कहा है कि मतदाता सूची तैयार करने में नाम की स्पेलिंग में बदलाव कोई नई बात नहीं है। कोर्ट के मुताबिक यह बहुत गंभीर चिंता नहीं है, क्योंकि नाम में सुधार किया जा सकता है।
-फैजान मुस्तफा (प्रोफेसर फैजान मुस्तफा चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय पटना के कुलपति हैं। ये उनके निजी विचार हैं)