Rwanda Genocide: दुनिया के इतिहास में ऐसे कई नरसंहार हुए हैं, जिन्हें शायद ही कभी भुलाया जा सकता है। एक ऐसा ही एक नरसंहार अप्रैल 1994 में हुआ था। महज 100 दिनों तक चले इस भीषण नरसंहार में एक-दो नहीं बल्कि करीब आठ लाख लोगों ने अपने प्राण गवाएं थे। इसे इतिहास का सबसे भीषण नरसंहारत कहना भी गलत नहीं होगा। भारत ने पूर्वी अफ्रीकी राष्ट्र के लोगों के साथ एकजुटता दिखाई है। नरसंहार की याद में कुतुब मीनार को रवांडा के झंडे के रंगो से रोशन किया गया।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जयसवाल ने एक्स पर एक पोस्ट साझा करते हुए लिखा कि रवांडा के लोगों के साथ एकजुटता दिखाते हुए भारत ने आज कुतुब मीनार को रवांडा के झंडे के रंगो से रोशन किया। साथ ही, उन्होंने कहा कि आर्थिक संबंध के सचिव दम्मू रवि ने 30वें स्मरणोत्सव में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
विदेश मंत्रालय के सचिव रवांडा की यात्रा पर पहुंचे
विदेश मंत्रालय के सचिव दम्मू रवि 7-12 अप्रैल तक रवांडा, युगांडा और केन्या की यात्रा पर हैं। उनके साथ अतिरिक्त सचिव (पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका) पुनीत आर कुंडल भी हैं। रविवार के दिन दम्मू रवि ने किगाली में विदेश राज्य मंत्री जेम्स कबरेबे, वित्त और आर्थिक योजना मंत्री उज्जील नदागिजिमाना और रवांडा के कृषि राज्य मंत्री एरिक रविगाम्बा से मुलाकात की। इतना ही नहीं, इन सभी से द्विपक्षीय मुद्दों पर भी बातचीत हुई। विदेश मंत्रालय के सचिव रवांडा सरकार के मंत्रियों के साथ बैठक कर सकते हैं।
क्या है रवांडा नरसंहार
7 अप्रैल 1994 में रवांडा के प्रेसिडेंट हेबिअरिमाना और बुरंडियन के प्रेसिडेंट सिप्रेन की हवाई जहाज पर बोर्डिंग के दौरान हत्या कर दी गई थी। उस समय हुतु समुदाय की सरकार थी और उन्हें लगा कि यह हत्या तुत्सी समुदाय के लोगों ने की है। इनकी हत्या के दूसरे ही दिन पूरे देश में नरसंहार शुरू हो गया। हुतु सरकार के सैनिक भी इसमें शामिल हो गए। उन्हें तुत्सी समुदाय के लोगों को मारने का हुक्म दे दिया गया। इस नरसंहार में कुछ ही दिन में आठ लाख से भी ज्यादा तुत्सी समुदाय के लोगों को मार दिया गया था। हालांकि, इस नरसंहार से बचने के लिए रवांडा के लाखों लोगों ने भागकर दूसरे देशों में शरण ले ली थी।
पहले भी इन दोनों समुदायों के बीच वर्चस्व को लेकर हिंसक झड़प होती रही थीं, जो इस भयानक नरसंहार के रूप में सामने आई। इस नरसंहार ने रवांडा को बर्बाद कर दिया था। लाखों परिवार उजड़ गए थे। यह इतना भयानक था कि आज भी यहां के लोग उस हादसे को याद कर सहम उठते हैं। इसका सबसे ज्यादा शिकार बच्चे और महिलाएं बने थे। हजारों महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ। तुत्सी समुदाय के लोगों की निर्मम हत्या के बाद उनके घर लूट लिए गए थे।
बेल्जियम के कब्जा करने के बाद बिगड़े हालात
1918 से पहले रवांडा के हालात सामान्य थे। देश गरीब था, लेकिन हिंसा नहीं थी। 1918 में बेल्जियम ने रवांडा पर कब्जा जमाया। इसके बाद यहां जनगणना कराई गई। बेल्जियम की सरकार ने रवांडा के लोगों की पहचान के लिए आईडी प्रूफ जारी करवाए। इस पहचान-पत्र में रवांडा की जनता को तीन जातियों (हुतु, तुत्सी और तोवा) में बांटा गया। विभाजन में हुतु समुदाय को रवांडा की उच्च जाति बताते हुए उन्हें सरकारी सुविधाएं देनी शुरू कर दीं। इससे तुत्सी समुदाय भड़क उठा और दोनों समुदायों के बीच हिंसक झड़प शुरू हो गई।
पश्चिमी देशों की मध्यस्थता के बाद 1962 में रवांडा आजाद हुआ और एक अलग देश बना। 1973 में हुतु समुदाय के ‘हेबिअरिमाना’ रवांडा के राष्ट्रपति बने। हेबिअरिमाना के प्लेन पर हमला हुआ, जिसमें उनकी मौत हो गई। यही घटना रवांडा के नरसंहार की सबसे बड़ी वजह बनी। इस नरसंहार में रवांडा की करीब 20 फीसदी जनसंख्या समाप्त हो गई।