अ ठारहवें भारत रंग महोत्सव की शुरुआत शेक्सपियर के दुखांत नाटक ‘मैकबेथ’ के मंचन से हुई। इस बार के भारत रंग महोत्सव की थीम है – थिएटर के जादू की फिर से खोज। रतन थियाम निर्देशित इस नाटक की शुरुआत किसी एक बिंदु या किसी एक चरित्र या किसी एक संवाद से नहीं होती बल्कि यह अपनी परिधि में उस पूरे माहौल को समाहित और व्याख्यायित करता हुआ चलता है, जो किसी काले घने जंगल की जंगली पुकारों से परिपूर्ण है।

वस्तुत: इस मंचन का मूल स्वर जीवंत वनस्पतियों की हरी-नीली रोशनी और विचित्र ध्वनियों का संगम है, जो मैकबेथ के चरित्र को ‘चुड़ैलों’-सा जामा पहनाता है। यहां ‘चुड़ैलें’ सिर्फ ‘चुड़ैलें’ नहीं, वे वैश्विक स्तर पर हमारे उस देशकाल का प्रतिनिधित्व करती हैं जहां जीवन पर संकट है, हमारी वन-संपदा पर संकट है, हमारी प्रजातियों पर संकट है।

चुड़ैलों की देह पर गिरती-उठती हरी-नीली रोशनियों और उनकी विचित्र और हृदय-विदारक ध्वनियों से नाटक की शुरुआत होती है, जो प्रत्यक्षत: कहानी के कथ्य के हिसाब से तो मैकबेथ और उसके साथी बैंकों के लिए शुभ सूचनादायी है पर अप्रत्यक्ष रूप से हमारी पारिस्थितिकी पर मंडरा रहे खतरे को भी इंगित करती है। कुछ भाववाचक संज्ञाएं जैसे महत्त्वाकांक्षा, लालच, सत्ता की भूख और उससे उपजने वाला खून-खराबा इस पूरे प्रोडक्शन के साथ-साथ चलती रहती हैं। जहां तक परिधान, ज्वेलरी और वेशभूषा का प्रश्न है तो ऐसा प्रतीत होता है कि ये कई सारे जनजातीय समाजों का मिश्रण है जो वास्तव में इस नाटक की आदिम पहचान और स्वरूप को चिह्नित और व्याख्यायित करता है।
मगर जो सबसे हृदय विदारक और रोंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य है या यों कहें जो इसका क्लाइमेक्स है, वह यह है कि जब मैकबेथ और उस जैसे ही दूसरे मृत या मृतप्राय मानवीय तत्त्व परिचारिकाओं की एक फौज द्वारा वीलचेयर पर मंच पर लाए जाते हैं। मैकबेथ के इस प्रस्तुतिकरण से निर्देशक यह संदेश देना चाहते हैं कि आदमी की अनंत आकांक्षाएं हमेशा विनाशकारी होती हैं, जो सबसे पहले तो इंसान के दिमाग को भ्रष्ट करती हैं और फिर उसका विस्तार पूरे समाज तक हो जाता है।

मंच पर किसी सेट का न होना सांकेतिक रूप से विश्व का ही एक मंच के रूप में प्रतिध्वनन है। मंच का किसी वस्तु-विशेष या सेट से अवरुद्ध न होना इस नाटक और उसके पात्रों को भव्यता प्रदान करता है। विशेष रूप से प्रकाश परिकल्पना दर्शकों को स्तब्ध कर देती है, जो शेक्सपियर के इस मशहूर दुखांत नाटक की समकालीनता की व्याख्या करती है।

हमेशा की तरह भारत के पुरातन, जनजातीय और पहाड़ी (विशेष रूप से भूटान, सिक्किम और लद्दाख के वाद्ययंत्र) सुषिर (भोंपू) वाद्य यंत्रों से उत्पन्न ध्वनि संयोजन तरंगित ऊर्जाओं का वह झीना जाल का सा प्रभाव उत्पन करता है, जो दर्शकों को दृश्य दर दृश्य संवेदनात्मक ऊंचाइयों तक ले जाता है और कलाकारों की यह दृश्य-श्रव्य यात्रा कलाकारों और दर्शकों के बीच एक अनकहा-सा मनोवैज्ञानिक संवाद स्थापित करती है जहां हम दर्शकों को कलाकारों के रूप में परिणत होते हुए देखते हैं।

निर्देशक रतन थियाम जहां एक ओर इस नाटक के माध्यम से पथभ्रष्ट मानव की आतंरिक अतृप्त क्षुधाओं (महत्त्वाकांक्षा, लालच, सत्ता की भूख) और ऊर्जाओं के हस्तांतरण के इस खेल को दिखाने में कामयाब हुए हैं। चुड़ैलों के साथ वाले दृश्य में जहां संवादवाहक लेडी मैकबेथ के लिए एक बड़ी सी चिट्ठी को खोलने के लिए मंच पर लुढ़काता है, यह दृश्य ‘लार्जर दैन लाइफ’ है।

डंकन की हत्या और मैकबेथ का उसकी पत्नी से संवाद न सिर्फ मनोरम है बल्कि हाथ से सरकती हुई रेत-से किसी तिलिस्म की उत्पत्ति करता है, जिसे कोई भी अपनी अंतरात्मा में उठते आतंरिक कलह के मलबे और कोप के रूप में महसूस कर सकता है। इस चिट्ठी के इर्द-गिर्द घूमती पूरी कहानी और विशेष रूप से इस दृश्य में जो सुख और दुख के बीच की एक महीन-सी रेखा है। दरअसल, वही इस नाटक का केंद्रीय भाव भी है और खूबसूरती भी।

मणिपुरी भाषा में प्रस्तुत यह नाटक इस बात की पुनर्स्थापना करता है कि रतन थियाम अपनी स्थानीयता, अपनी आंचलिकता से गहराई से जुड़ कर सार्वभौम और वैश्विक होते हैं। वे मणिपुरी संस्कृति को वैश्विक संस्कृति से काट कर देखने के स्थान पर उसे उसके बीच रख कर देखते हैं। इस प्रक्रिया में वे जो प्रश्न उठाते हैं वे सिर्फ मणिपुरी संस्कृति के लिए या भारतीय संस्कृति के लिए ही प्रासंगिक नहीं होते, वे वैश्विक संस्कृति के लिए भी अथर्पूर्ण होते हैं।

मंजरी श्रीवास्तव