हेमंत कुमार गुप्ता

लखनऊ की एक बेहतरीन शाम को देखने निकला था। गोमतीनगर के भीड़ भरे पत्रकारपुरम चौराहे पर शाम अक्सर चकाचौंध भरी होती है। वहां आम भाषा में कुछ ज्यादा आधुनिक-से पहनावे में लगभग बाईस-तेईस साल की लड़की अपने अल्हड़ अंदाज में दुनिया से बेखबर आइसक्रीम खा रही थी। वह शायद इस बात से बेखबर थी कि कुछ नजरें उसे एकटक निहार रही हैं। लेकिन मुझे जो दिखा वह बस उसकी स्वतंत्रता थी कि कितनी निडरता और निश्छलता से वह लड़की इस भीड़ में भी बेखौफ और अलग दिख रही है। मुझे उसकी यही अदा अच्छी लगी। लेकिन आज भी कुछ कूढ़मगज कुंठित पुरुषों को यह बलात्कार का कारण प्रतीत होता है। इसी बीच उस लड़की को पता नहीं क्या अहसास हुआ कि एक लड़के को उसने सख्त भाषा में सलीके से देखने की सलाह भी दे डाली। उसकी यह बात मुझे और भी अधिक दिलचस्प लगी। इसके बाद वहां खड़े समाज के कुछ ‘अग्रगण्य’ लोगों को उस लड़की के बदचलन होने का आभास हुआ और दो-चार ने आपस में कानाफूसी भी कर ली। धन्य है ऐसा सोचने वाले जो प्रगति को तो स्वीकार करते हैं, मगर आधुनिकता उन्हें नहीं सुहाती, स्त्री का सशक्त होना उन्हें बिल्कुल नहीं भाता।

संयोग से लौटते वक्त मैं साझा सवारियां लेकर चलने वाले जिस आॅटो में बैठ कर आ रहा था, उसी में बगल वाली सीट पर एक लगभग चौबीस साल की लड़की आकर्षक सलवार सूट में बैठी थी। उसका ध्यान बराबर अपने कपड़ों और शरीर पर था। वह कभी अपने दुपट्टे को संभालती तो कभी अपने शरीर को समेटने की कोशिश करती। जब आॅटो थोड़ा हिलता-डुलता तो अनायास उसके हाथ मेरे हाथों से स्पर्श हो जाते। वह बिल्कुल सिहर जाती और फिर थोड़ा सिमटने की कोशिश करती। किसी का भी ध्यान उसकी ओर जा रहा था। एक चौराहे पर आॅटो रुकने पर उसके उतरने के बाद आॅटो में बैठे एक दूसरे युवक ने अश्लील फब्ती कसी। लेकिन उस लड़की ने ऐसे बर्ताव किया जैसे सुना ही न हो। बेशक उसके चुप रह जाने ने मुझे ठेस पहुंचाई। लेकिन शायद वह यही सोचती और उससे डरती होगी कि समाज स्त्री के प्रतिरोध को उसके खराब चरित्र से जोड़ कर देखता है। हालांकि उस लड़की का चुप रह जाना भी समाज के उस निकृष्ट वर्ग को बढ़ावा देना है जो सदा छेड़खानी और बलात्कार जैसे अपराधों में लिप्त रहता है।

जाहिर है, जब तक स्त्री को किसी वस्तु या उपभोग की दृष्टि से देखना छोड़ कर उसे एक व्यक्ति की तरह देखना हमें स्वीकार्य नहीं होगा, तब तक न तो स्त्री का मान-मर्दन रुकने वाला है और न उसे हम बलात्कार, छेड़खानी और हिंसा के दायरे से बाहर निकाल सकते हैं। उसकी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए हमें अपने सोच में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। फिर कानून में तभी एक सार्थक और व्यापक बदलाव संभव हो सकता है, जब उसमें नारी का वास्तविक प्रतिबिंब झलके। आज स्त्री जब कभी अपनी इच्छा से जीवन जीने का प्रयत्न करती है तो कुछ लोगों को वह मर्यादा तोड़ने और दहलीज लांघने की तरह लगता है। जबकि सच यह है कि स्त्री की जो प्राकृतिक मयार्दाएं हैं, उन्हें शायद ही कभी स्त्री लांघती है। अक्सर कुछ धर्म के प्रबल समर्थक बातों-बातों में धार्मिक पुस्तकों का जिक्र कर ही देते हैं। समझ में नहीं आता कि धर्मग्रंथ कही जाने वाली वे किताबें किन हालात में लिखी गई थीं, लेकिन इतना तय है कि उन्हें लिखने वाले स्त्री के धुर विरोधी रहे होंगे। काश, उन किताबों के लेखक जीवित होते तो मैं उनसे कुछ असहज कर देने वाले सवाल जरूर पूछता!

(hkkgupta5.blogspot.in)