कुमार प्रशांत
आंकड़ों के विशेषज्ञों और तिकड़मबाजों के महागुरुओं के बीच चाहे जो भी विश्लेषण किया जा रहा हो, महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव अगर किसी ने जीता है तो वह महाराष्ट्र के सबसे अप्रभावी और अकुशल मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने जीता है। उन्होंने कराड से अपना चुनाव सोलह हजार चार सौ अठारह मतों से तो जीता ही, कांग्रेस के लिए बयालीस सीटें भी जुटाई हैं। क्या कांग्रेस में या महाराष्ट्र की राजनीति के जानकारों में कोई भी ऐसा था जो कांग्रेस को इतनी सीटें दे रहा था? सीटें देने की बात तो दूर, सभी कांग्रेस से अपनी दूरी बनाने और उसे दुनिया को बताने में लगे थे। और नारायण राणे जैसे लोग भी थे जो इसी वक्त अपना पूरा तरकश खाली करने में लगे थे। हर आदमी कांग्रेस-शरद पवार गठबंधन की विफलता का, सरकार के निकम्मेपन का सारा ठीकरा पृथ्वीराज के सिर फोड़ कर अलग हटता जा रहा था।
पृथ्वीराज चव्हाण कभी राजनीति के पैदल सिपाही नहीं रहे। वे दिल्ली में बड़े आराम से नेपथ्य की राजनीति करते हुए, अपना बेदाग कुर्ता पहने घूमते थे। महाराष्ट्र की राजनीतिक ओखली में पृथ्वीराज का सिर डाला सोनिया-राहुल ने ताकि वे उनके सिर बचाए रखें। पृथ्वीराज जिस काम के लिए बने नहीं थे, उनसे वह काम लेने की कोशिश में सोनिया-राहुल ने अपनी राजनीतिक समझ की सीमा तो पहले ही उजागर कर दी थी, उन सबने पृथ्वीराज को जिस तरह अकेला कर दिया, उससे किसी राजनीतिक षड्यंत्र की बू भी आती है। लेकिन महाराष्ट्र आने के दिन से आखिर तकपृथ्वीराज चव्हाण ने अपनी राजनीति का रास्ता न बदला, न बिगाड़ा। सारी राजनीतिक प्रतिकूलताओं के बीच उन्होंने अपनी राजनीति जैसी बनाई, उसकी हर दिन, हर पल निंदा ही हुई, लेकिन कोई यह नहीं कह सका कि पृथ्वीराज ने खुद को बदल लिया।
चव्हाण महाराष्ट्र आए थे यह जानते हुए कि उन्हें राजनीति के सबसे गंदे दलदल में उतारा जा रहा है और उनका सबसे करुण अंत तब होगा जब वे इस दलदल में डूब मरेंगे। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि वे इस दलदल में उतरे तो सही, पर डूबे नहीं। अगर आप राजनीति की गंदगी में उतरे हों और आपके चारों बगल शरद पवार, अजित पवार, नारायण राणे, नितिन गडकरी, बाल ठाकरे और उद्धव और राज ठाकरे जैसे करिश्मेबाज हों तब कोई कारण नहीं है कि आप भी उनके साथ दो-चार डुबकियां न लगा लें। इन सबकी सबसे बड़ी शिकायत यही थी कि यह आदमी ‘हमारी तरह काम’ क्यों नहीं करता है। लेकिन पृथ्वीराज ने नहीं किया। तमाम अपमान, लांछन, भितरघात और मतिशून्य आलाकमान के बाद भी उन्होंने महाराष्ट्र में कांग्रेस को जिस तरह थामे रखा, उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है। उनसे पहले के तमाम कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के कच्चे-चिट्ठे जैसे-जैसे खुलते रहे, पृथ्वीराज वैसे-वैसे मजबूत बनते गए। उनकी मजबूती काम करने में नहीं, गलत न करने में थी।
महाराष्ट्र आते ही पृथ्वीराज चव्हाण ने जिस तरह शरद पवार मार्का राजनीति का मुकाबला किया, उसने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को हलकान कर दिया। अगर कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व में थोड़ी भी राजनीतिक प्रौढ़ता होती और सीधी कमर की राजनीति का साहस होता तो पृथ्वीराज चव्हाण को आगे कर वह महाराष्ट्र में पार्टी का नया स्वरूप खड़ा कर लेता। लेकिन दिल्ली में ऐसा कोई था नहीं। पृथ्वीराज ने अपना रास्ता खुद चुना। उन्होंने वे सारे काम रोक कर रखे, जिनसे राजनीतिक बेहिसाब कमाई करते हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में कोई बड़ा खिलाड़ी ऐसा नहीं है, जो बिल्डर लॉबी से जुड़ा न हो।
यहां हर बड़े ठेकेदार के पीछे कोई न कोई राजनीतिक खड़ा होता ही है। हर सरकारी परियोजना में एक निश्चित हिस्सा आपसी बंदरबांट के लिए रखा जाता है। इसमें उस बंदर का हिस्सा सबसे बड़ा होता है जो सबसे ज्यादा दादागीरी करता है।
यह सब पृथ्वीराज को मालूम था। जो नहीं मालूम था या कि जो करने का साहस उनमें नहीं था वह यही था कि इन ताकतों से कैसे लड़ा जाए। इसलिए उन्होंने न लड़ने को ही लड़ने में बदल लिया। इससे वे पार्टी के भीतर और बाहर लगातार अकेले पड़ते गए। लोकसभा चुनाव में पिट कर जब कांग्रेस आलाकमान ने हथियार डाल दिए तब पृथ्वीराज अपनी रौ में आए। उन्होंने कांग्रेसी घोटालेबाजों से कांग्रेस को अलग करने की पहल की और अजित पवार को साफ-साफ बता दिया कि गठबंधन अगर जारी रहेगा तो कांग्रेस की शर्तों पर ही! पहले कभी ऐसा होता था तो दिल्ली से चाभी घुमा कर शरद पवार सब कुछ अपने रास्ते पर ले आते थे। इस बार दिल्ली में कोई चाभी थी ही नहीं।
आदर्श घोटाले की जांच के आदेश और उसके आधार पर कार्रवाई तक वे मामले को ले गए। जांच-रिपोर्ट में वह सब था जो सब पहले से ही जानते थे। अशोक चव्हाण, सुशील कुमार शिंदे, विलासराव देशमुख अपने-अपने अमलों के साथ इसमें सीधे शरीक थे; और हैं। यह उजागर करने के बाद पृथ्वीराज ने गेंद दिल्ली के पाले में डाल दी। अब फैसला यह करना था कि महाराष्ट्र कांग्रेस को किस हद तक साफ करना है, और स्वाभाविक था कि यह जवाब कांग्रेस आलाकमान से आना चाहिए था। वहां से जो आया वह राहुल गांधी का बचकाना तेवर था जिससे इतना ही पता चला कि वे राष्ट्रीय पार्टी और घरेलू तू-तड़ाक में फर्क समझते ही नहीं हैं। तब पृथ्वीराज के पास एक ही रास्ता बचता था कि वे सारा मामला देश के सामने खोल देते और अपना त्यागपत्र आलाकमान के सामने धर देते। वे ऐसा नहीं कर सके, क्योंकि उनमें ऐसा राजनीतिक साहस कभी था ही नहीं।
अजित पवार और राकांपा ने फिर उन्हें मौका दिया कि वे सिंचाई घोटाले और राकांपा मंत्रियों के दूसरे कई काले कारनामों की जांच करवाएं और राकांपा के मंत्रियों से इस्तीफा मांग लें। यह अपनी सरकार को होम करने की बात थी जिसमें पहल आलाकमान की तरफ से ही होनी चाहिए थी। लेकिन कांग्रेस के पास आलाकमान जैसी कोई व्यवस्था बची ही नहीं थी, सो फिर बात पृथ्वीराज के राजनीतिक साहस पर आकर टिक गई और वे उसमें कमजोर साबित हुए। जो घोटाले अजित पवार और राकांपा की राजनीतिक मौत बन सकते थे, उन घोटालों की आंच से बच कर वे सब न केवल बाहर निकल आए, बल्कि उन्होंने पृथ्वीराज को बड़ी राजनीतिक शर्मिंदगी में जीने के लिए मजबूर भी कर दिया। एक राजनीतिक दल और सरकार के रूप में यह शरद पवार और कांग्रेस, दोनों के पतन का नया प्रतिमान था।
केंद्र में कमजोर पड़ती अपनी हैसियत और सत्ता में लौटने की खत्म होती संभावना देखते ही, हमेशा की तरह शरद पवार ने दूसरा विकल्प तैयार किया- शिवसेना के साथ गठबंधन। परिस्थिति और बिगड़ी तो शरद पवार ने यह संकेत भी हवा में उछाला कि राकांपा के लिए कोई राजनीतिक अछूत नहीं है। इशारा साफ था कि नरेंद्र मोदी भी पचाए जा सकते हैं अगर उससे सत्ता पाने की संभावना बनती हो। पृथ्वीराज ने इसे समय रहते पहचाना और महाराष्ट्र की कांग्रेसी राजनीति की बागडोर संभाली। राकांपा से गठबंधन तोड़ने का फैसला पृथ्वीराज की पहल से ही संभव हुआ। उनका गणित साफ था कि फायदा न हो तो न हो, इससे कांग्रेस का नुकसान कम होगा।
और वही हुआ। चुनाव के बीच में ही उन्होंने वह इंटरव्यू दिया जिसे लेकर उनकी कम लानत-मलामत नहीं हुई। घबराए पृथ्वीराज ने माफी भी मांग ली, लेकिन उस इंटरव्यू ने कांग्रेस को चुनाव में बहुत राजनीतिक फायदा दिया। कांग्रेस का आलाकमान वक्ती जी-हुजूरों का जमावड़ा भर है, यह बात तो सबको पता थी; जो बात उजागर नहीं हुई थी वह इस रूप में उजागर हुई कि पृथ्वीराज के हाथ भी उन सबने ही बांध रखे थे।
कोई एक सकारात्मक बात कांग्रेस के पक्ष में कही जा रही थी तो वह यही थी कि अगर पृथ्वीराज को खुला मौका दिया गया होता तो महाराष्ट्र की कहानी कुछ दूसरी होती। कांग्रेसी प्रचारकों में केवल पृथ्वीराज थे जो सिर ऊंचा कर लड़ रहे थे, क्योंकि उनके सिर पर राजनीतिक कायरता के अलावा कोई दूसरा कलंक नहीं था। जहां भी कांग्रेस की जीत हुई, वहां-वहां उम्मीदवारों ने अपने बल पर और पृथ्वीराज की छवि के बल पर वोट जुटाए। अगर यह नहीं होता तो बयालीस सीटें गिनने को भी नसीब न होतीं कांग्रेस को।
यह सब मैंने पृथ्वीराज चव्हाण की प्रशंसा में नहीं लिखा है। वे मुख्यमंत्री बनने की योग्यता नहीं रखते हैं। वे कांग्रेस के उस राज-रोग के सर्वोत्तम प्रतिनिधि हैं जिसके शिकार की मनसा-वाचा-कर्मणा कोई प्रेरणा बचती ही नहीं है। लेकिन देश के मानस में जो बदलाव हुआ है, उसे समझ लेना जरूरी है। अब देश अनिर्णय को निर्णय मानने को तैयार नहीं है। इसलिए वह मनमोहन सिंह और पृथ्वीराज को एक साथ इनकार देता है। वह नरेंद्र मोदी को स्वीकार इसलिए नहीं कर रहा है कि उसे उनकी योग्यता पर भरोसा है। बात इतनी ही है कि कुछ करता हुआ और कुछ कहता हुआ राजनीतिक नेतृत्व देश को चाहिए। गूंगी और अंधी ईमानदारी का मारा यह देश अब सांस लेना चाहता है। नरेंद्र मोदी अपने तेवर से देश की इस भूख को शांत कर रहे हैं।
लेकिन भारतीय समाज की जिस भूख को उभार कर मोदी ने सफलता पाई है, उसमें खतरा अंतर्निहित है। उसके संकेत लगातार उभर रहे हैं। यह भूख बात के भात से शांत नहीं होगी। इसे असली भात चाहिए और दुखद सच्चाई यह है कि असली भात आज की राजनीति की हांडी में पक ही नहीं सकता। लेकिन पृथ्वीराज की राजनीति ने जो बात उभार कर सामने ला दी है वह यह कि न्यूनतम राजनीतिक ईमानदारी आज भी ब्याजसहित मूल लौटाती है। महाराष्ट्र में आज कांग्रेस का अस्तित्व बचा है और उसे बयालीस खंभों ने थाम रखा है, तो यह चमत्कार किसी परिवार के दम से नहीं हुआ है, पृथ्वीराज चव्हाण की न्यूनतम ईमानदारी के बल पर हुआ है।
आज के राजनीतिक बाजार में भी ईमानदारी की एक कीमत मिलती तो है; क्या इससे भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के बारे में थोड़ी आशा नहीं जागती है?
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