केसी बब्बर
‘लगभग दस साल पहले मैं एक सामाजिक संस्था के कार्यक्रम में गया था। मुझे याद है उन दिनों कोई भी सामाजिक या अन्य सार्वजनिक कार्यक्रम होता तो संचालन पर होने वाला खर्च संस्था के पदाधिकारी और कार्यकर्ता बाजारों में चंदा इकट्ठा करके करते। इस तरह, शहर में होने वाले सार्वजनिक आयोजन बाहर से आए हुए वक्ताओं, कवियों आदि को बुला कर बड़ी धूमधाम से किए और करवाए जाते। शहर से चंदा जमा किया जाता तो उसी से प्रचार हो जाता। चंदा देने वाला हर शख्स उसमें अपनी भागीदारी को भी महसूस करता। इस सारी कवायद में आयोजन करने वाली संस्था पर एक नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी भी होती कि कार्यक्रम ठीक तरह से हो और उसे ज्यादा से ज्यादा प्रशंसा मिले।
बहरहाल, वहां दूसरे दिन की सभा में एक सत्र को ‘राष्ट्र रक्षा सम्मेलन’ का नाम दिया गया था। कुछ मुख्य या विशिष्ट अतिथिगण मंचासीन थे। मंच संचालक की ओर से एक वक्ता का नाम चर्चा के लिए पुकारा गया जो शायद बिजनौर स्थित किसी आश्रम के संन्यासी थे। उन्होंने अपना वक्तव्य संस्कृत के किसी मंत्र को बोलने के बाद शुरू किया। शुरू की पंक्तियां मुझे आज भी याद हैं- ‘जब भी किसी देश, समाज, काल, सार्वजनिक सभाओं में धूर्तों, लंपटों, दुष्टों को मंचासीन करके फूल-मालाओं से उनका स्वागत कर जय-जयकार की जाएगी और कोई विचारशील व्यक्ति उस सभा के कोने में अकेला खड़ा कुछ सोच रहा होगा, उस समाज में देश में दिन-दहाड़े हत्या और अन्य अपराध होंगे, लेकिन अपराधी नहीं मिलेगा। बचे हुए लोग भय के वातावरण में जीवित रहेंगे और समय-समय पर वहां प्राकृतिक आपदाएं सिर उठाती रहेंगी।’
उनके घंटे भर के संबोधन में राष्ट्र निर्माण और बाकी कुछ तो समझ में आया, लेकिन समय-समय पर आने वाली प्राकृतिक विपत्तियों का कोई खुलासा नहीं हुआ। सभा समाप्त होने के बाद मैंने इस विषय पर उनसे मिल कर यह जानने की उत्सुकता प्रकट की कि ऐसे में प्राकृतिक विपदाओं के आने का क्या संबंध है। उन्होंने कहा कि मुझे लगभग बीस से ज्यादा वर्ष हो गए इस तरह के कार्यक्रमों में अपने वक्तव्य देते। पहले के मुकाबले आज सामाजिक और स्वयंसेवी संस्थाओं की स्थिति में बहुत अंतर आया है। पहले हमें संस्था के पदाधिकारी जाते समय दक्षिणा के अलावा काफी मान-सम्मान भी देते थे। उस सम्मान और कार्यकर्ताओं के हौसले को देख कर एक संतुष्टि भी होती कि अभी भी समाज में बहुत कुछ करने को बचा है। लेकिन अब आयोजकों का सारा ध्यान बाहर से बुलाए गए विद्वानों के वक्तव्यों को सुनने-सुनाने के बजाय कार्यक्रम के मुख्य या विशिष्ट अतिथियों और मंचासीन नेताओं की सेवा, यशोगान और उनकी छवि के निर्माण में लगा रहता है, ताकि अधिक धनराशि बटोरी जा सके।
ऐसे में कार्यक्रमों की सार्थकता और गंभीरता खत्म हो जाती है और उनका उद्देश्य पीछे छूट जाता है। समूचा आयोजन राजनेताओं और समाजसेवियों का अखाड़ा बन कर रह जाता है। वही लोग आने वाले समय में सामाजिक संस्थाओं से मान्यता पाकर और दौलत के सहारे विधायक, सांसद और मंत्री बनते हैं। इस तरह से अपराध के समाजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। बड़ी धनराशि खर्च कर मंत्री बने लोगों को आम जनता की समस्याओं की कोई जानकारी नहीं होती और न उससे कोई वास्ता होता है। वे पैसा कमाने के लालच में देश की विकास परियोजनाओं में धांधलियों में हिस्सेदार बन जाते हैं। बांध, सड़क, पर्यावरण की अनदेखी और किसी भी परियोजना का मतलब केवल अनैतिक तरीके से पैसा कमाना भर रह जाता है। ऐसे में बांधों का टूटना, पुलों का गिरना, नदियों के जल-स्रोत सिकुड़ना, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में निकम्मे और नाकारा नेतृत्वों की भूमिका कम नहीं होती। ऐसे ही भ्रष्ट नेतृत्व की आड़ में ऊपर से नीचे तक सारी व्यवस्था दम तोड़ने लगती है।
मैं उस संन्यासी की बातों को विश्व में पांव फैलाती वैश्वीकरण की प्रकिया के माध्यम से हमारे सामाजिक जीवन में धनबल के बढ़ते हस्तक्षेप के रूप में देख रहा था। आज लगभग सभी सामाजिक संस्थाएं और उनके कार्यकर्ता मुख्य और विशिष्ट अतिथियों की परिक्रमा में लगे रहने में ही अपना और संस्था का भविष्य तलाश रहे होते हैं। इससे बेखबर कि ऐसा कर वे समाज, सामाजिकता और सामाजिक आंदोलनों को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं। कभी सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों की देश की राजनीति और समाज में अहम भूमिका हुआ करती थी। वह अब सिरे से गायब होती जा रही है। इस परिप्रेक्ष्य में सामाजिक आंदोलनों की ताकत को नए सिरे से सोचने की जरूरत है। सुधार और गतिशीलता की जरूरत जमीनी है। वातानुकूलित भवनों में विचार गोष्ठियों से काम नहीं चलने वाला। आज सोचने-समझने वाली सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों की परिवर्तनकामी शक्तियां जिस तरह अकेली और हाशिये पर हतप्रभ अवस्था में खड़ी नजर आ रही हैं, उसके कारणों पर विचार करना होगा।
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