Thiruparankundram Hill: मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै बेंच ने मदुरै में थिरुपरनकुंद्रम पहाड़ी (Thiruparankundram Hill) पर स्थित सिकंदर बदुशा दरगाह में पशु बलि की प्रथा पर रोक लगा दी है। यह फैलला जस्टिस आर. विजयकुमार द्वारा दिया गया। जिन्हें जून 2025 में दो न्यायाधीशों वाली पीठ द्वारा दिए गए विभाजित फैसले के बाद तीसरे न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था।

कोर्ट के समक्ष दायर याचिकाओं में यह सवाल उठाया गया था कि क्या दरगाह अपने वार्षिक उत्सव के दौरान पशु बलि की प्रथा जारी रख सकती है। क्या ऐसी प्रथाएं संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित हैं। इस फैसले से पहाड़ी पर स्थित मंदिर और दरगाह के बीच विवाद सुलझ गया है, जो प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत एक संरक्षित स्मारक है, जहां धार्मिक रीति-रिवाज वैधानिक विनियमन के अधीन हैं।

मामले की पृष्ठभूमि

दरगाह उसी पहाड़ी की चोटी पर मंदिरों और गुफाओं के के पास स्थित है। ऐतिहासिक अभिलेखों में दर्ज है कि इस दरगाह तक जाने वाली सीढ़ियां, काशी विश्वनाथ मंदिर के शिखर तक जाने वाले मार्ग का हिस्सा हैं। दशकों तक, दोनों धार्मिक समुदाय बिना किसी बड़े विवाद के इस क्षेत्र का उपयोग करते रहे।

हालिया विवाद तब शुरू हुआ जब दरगाह ट्रस्टियों द्वारा वितरित एक पर्चे में साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए बकरों और मुर्गियों के वध सहित “सम्प्रदायिक सद्भावना पर्व 2025” की घोषणा की गई। पर्चे में पहाड़ी को सिकंदर मलाई बताया गया था।

हालांकि, इस पहाड़ी को विभिन्न समुदायों में कई नामों से जाना जाता है। हिंदुओं में “स्कंद मलाई (Skanda Malai)”, मुसलमानों में “सिकंदर मलाई (Sikkandar Malai)” और जैनियों में “समनार कुंदरू (Samanar Kundru)”। जबकि स्थानीय लोग इसे इसके ऐतिहासिक नाम “तिरुपरनकुंद्रम पहाड़ी (Thiruparankundram Hill)” से पुकारते हैं।

इस पर्चे के बाद, हिंदू समूहों ने पवित्र भूमि पर पशु बलि दिए जाने पर आपत्ति जताई। हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ दान विभाग (HR&CE) ने जिला अधिकारियों के समक्ष एक प्रतिवेदन (Representation) प्रस्तुत किया, जिसमें तर्क दिया गया कि इस प्रथा से पहाड़ी की पवित्रता भंग होगी।

ज़िला कलेक्टर की रिपोर्ट में यह तो स्वीकार किया गया कि कुछ मंदिरों सहित कुछ धार्मिक संदर्भों में पशु बलि पूजा का एक अभिन्न अंग है, लेकिन यह निर्णायक रूप से स्थापित नहीं किया गया कि दरगाह में यह एक अनिवार्य प्रथा है। यह असहमति जल्द ही मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ तक पहुंच गई।

मुकदमेबाजी का इतिहास

थिरुपरनकुंद्रम पहाड़ी पर विवाद नया नहीं है। यह एक सदी से भी ज़्यादा पुराना है। 1920 में, तिरुपरनकुंद्रम स्थित अरुलमिगु सुब्रमण्यम स्वामी मंदिर ने दरगाह द्वारा एक छोटा मंडप बनाने के प्रयास के बाद पूरी पहाड़ी पर स्वामित्व की घोषणा की। 1923 में निचली अदालत ने फैसला सुनाया कि मंदिर का लगभग पूरी पहाड़ी पर स्वामित्व है, सिवाय नेल्लीथोप्पु (Nellithoppu) की लगभग 33 सेंट (Cents) ज़मीन के, जहां मस्जिद और दरगाह का ध्वजदंड (Flagstaff) स्थित है।

दरगाह ने अपील की, लेकिन 1931 में तत्कालीन सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकारी प्रिवी काउंसिल ने पुष्टि की कि मंदिर के पास “अनादि काल से (From Time Immemorial)” पहाड़ी थी।

बाद के मामलों ने इस स्थिति को और पुख्ता किया। 1958 में अदालत ने दरगाह के सीमित क्षेत्र के बाहर उत्खनन पर रोक लगा दी। 2011 में, उसने मंदिर की अनुमति के बिना किसी भी नए निर्माण या प्रकाश व्यवस्था पर रोक लगा दी। बाद में पर्यटन योजनाओं और ध्वज स्थापनाओं से संबंधित याचिकाएं भी खारिज कर दी गईं।

एक शताब्दी से ज्यादा समय से न्यायालयों ने पहाड़ी पर मंदिर के अधिकार को लगातार बरकरार रखा है, जबकि दरगाह के अधिकार को केवल उसके 33 सेंट के भूखंड तक ही मान्यता दी है।

विभाजित फैसला

हाई कोर्ट में दायर याचिकाओं के नए दौर में दरगाह पर पशु बलि पर प्रतिबंध लगाने और पहाड़ी का वर्णन करने के लिए “सिकंदर मलाई” शब्द का प्रयोग करने पर रोक लगाने की मांग की गई। जस्टिस जे. निशा बानू और जस्टिस एस. श्रीमति, जिन्होंने मामले की संयुक्त सुनवाई की, लेकिन मत भिन्न रहे।

जस्टिस बानू ने याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि क्षेत्र के विभिन्न धार्मिक संस्थानों में पशु बलि की प्रथा है और “इस पर सलेक्टिव रूप से प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। उन्होंने कहा कि “पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना भेदभावपूर्ण प्रवर्तन होगा।” उन्होंने कहा कि दरगाह पहाड़ी के एक विशिष्ट हिस्से पर स्थित है, जो मंदिर परिसर से अलग है।

संविधान के अनुच्छेद 25 (Article 25) का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि “पशु बलि, जो धार्मिक प्रथा का एक हिस्सा है, उस पर प्रतिबंध लगाने वाले किसी कानून के अभाव में, इस अदालत द्वारा ऐसी गतिविधि पर रोक लगाने का कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। उन्होंने कहा कि अनुष्ठान और समारोह, “भोजन और पहनावे तक फैले हुए हैं, और किसी भी बाहरी प्राधिकारी को ऐसी प्रथाओं में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। बता दें, अनुच्छेद 25 धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन करने और उसे मानने के अधिकार की गारंटी देता है।

हालांकि, जस्टिस श्रीमती (Justice Srimathy) ने इसके विपरीत विचार व्यक्त किया। उन्होंने पाया कि दरगाह में पशु बलि की प्रथा न तो ऐतिहासिक और न ही कानूनी अभिलेखों द्वारा समर्थित है। 1920 के सिविल डिक्री और अन्य प्रशासनिक आदेशों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि “सिकंदर दरगाह में बकरे और मुर्गे की बलि देने की बात कहने वाला पर्चा निश्चित रूप से शरारतपूर्ण और दुर्भावनापूर्ण है,” और “इससे स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा होगा ।” उन्होंने कहा कि दरगाह प्रथागत प्रथा के किसी भी दावे को साबित करने के लिए सिविल कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती है।

नामकरण के मुद्दे पर जस्टिस बानू ने याचिका को फिर से खारिज कर दिया और कहा कि पहाड़ी को “सिकंदर मलाई” कहने पर कोई कानूनी रोक नहीं है। इसके विपरीत, न्यायमूर्ति श्रीमति (Justice Srimathy) ने फैसला सुनाया कि नाम नहीं बदला जा सकता। उन्होंने कहा कि “मदुरै मुस्लिम यूनाइटेड जमात और राजनीतिक दल संगठन का हिस्सा होने का दावा करने वाले व्यक्तियों द्वारा जारी किए गए पर्चे शरारतपूर्ण थे और पहाड़ी का नाम बदलने की कोशिश थे।

नेलिथोप्पु (Nellithoppu) में सभाओं और प्रार्थनाओं के प्रश्न पर जस्टिस बानू ने पहले के आदेशों का हवाला दिया। विशेष रूप से 1920 के निर्णय और उसके बाद की निष्पादन कार्यवाही (Execution Proceedings) का, जिसमें पहले से ही दरगाह समुदाय के वहां पूजा करने के अधिकार को मान्यता दी गई थी।

न्यायमूर्ति श्रीमती (Justice Srimathy) ने असहमति जताई। उन्होंने कहा कि हाल ही में हुए आयोजनों में भारी भीड़ उमड़ी और मंदिर के रास्तों तक पहुंच बाधित हुई, जो पहले के आदेशों के विपरीत है। उन्होंने कहा कि दरगाह में रमज़ान, बकरीद या किसी भी अन्य इस्लामी त्योहार के दौरान दरगाह में नमाज़ अदा करने की कोई प्रथा नहीं थी। और यह एक नई प्रथा है और इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।

तीसरे न्यायाधीश का फैसला

मतभेद को देखते हुए मामले को सुलझाने के लिए तीसरे न्यायाधीश के रूप में जस्टिस आर. विजयकुमार को भेजा गया। जस्टिस विजयकुमार पशु बलि और नामकरण के मुद्दों पर न्यायमूर्ति श्रीमति की राय से सहमत थे, तथा नेलिथोप्पु (Nellithoppu) में प्रार्थना के सीमित अधिकार पर न्यायमूर्ति बानू की राय से सहमत थे।

पशु बलि (Animal Sacrifice) के सवाल पर जज ने कहा कि दरगाह और बकरे की खाल उतारने वाले एक गवाह ने दावा किया कि यह प्रथा लंबे समय से चली आ रही है, लेकिन “कुछ मंदिरों में प्रचलित इस प्रथा पर भरोसा नहीं किया जा सकता। खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि दरगाह पहाड़ी की चोटी पर स्थित है, जिसे हिंदू भक्त स्वयं भगवान मानते हैं।” उन्होंने आगे कहा कि “जब तक अनादि काल से चली आ रही ऐसी प्रथा को स्थापित करने के लिए सकारात्मक सबूत नहीं मिल जाते, तब तक अन्य मंदिरों में प्रचलित प्रथाओं को कारण नहीं बताया जा सकता।

राजस्व और पुलिस अधिकारियों (Revenue and Police Officers) ने एक बकरे के चमड़े उतारने वाले से पूछताछ की। जिसने दावा किया कि उसके पिता ऐतिहासिक रूप से बकरे की खाल उतारने और उसे तैयार करने का काम करते थे और वह इस काम में अपने पिता की मदद करता था। आरपीओ ने इस कथन पर पूरी तरह भरोसा किया, क्योंकि “अन्य धर्मों के लोग दरगाह पर बकरे की खाल उतारने और उसे तैयार करने आते थे, और वहां पका हुआ खाना खाते थे। न्यायाधीश ने गवाही को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि “धारा 164 दंड प्रक्रिया संहिता का कोई साक्ष्य मूल्य (Evidentiary Value) नहीं है और यह कोई ठोस सबूत नहीं है। इसका इस्तेमाल केवल बाद में किसी गवाह की पुष्टि या खंडन करने के लिए किया जा सकता है।

प्राचीन स्मारक एवं पुरातत्व स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 का हवाला देते हुए जस्टिस विजयकुमार ने कहा कि पूरी पहाड़ी एक संरक्षित स्मारक (Protected Monument) है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) नियमों के नियम 8 के अनुसार, ऐसे स्थलों में जानवरों को लाना या उनमें खाना पकाना या परोसना प्रतिबंधित है, जब तक कि विशेष अनुमति न दी गई हो। इसलिए, कोर्ट ने पशु बलि की प्रथा पर रोक लगा दी और दरगाह को निर्देश दिया कि यदि वह यह साबित करना चाहता है कि यह प्रथा 1920 के आदेश से पहले भी मौजूद थी, तो वह दीवानी न्यायालय (Civil Court) जाए। पहाड़ी पर उत्खनन पर भी स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगा दिया गया।

नामकरण के मुद्दे पर निर्णय को पहले के सिविल डिक्री और एएसआई रिकॉर्ड के साथ संरेखित किया गया, जिसमें कहा गया कि इस स्थल को थिरुपरनकुंद्रम हिल (Thiruparankundram Hill) कहा जाना जारी रहना चाहिए, और “इसे सिकंदर मलाई ( Sikkandar Malai) या समानार कुंदरू (Samanar Kundru) नहीं कहा जाएगा।

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नेलिथोप्पु (Nellithoppu) में नमाज़ के मामले में जस्टिस विजयकुमार ने जस्टिस बानू से सहमति जताई। उन्होंने माना कि नेलिथोप्पु की 33 सेंट ज़मीन दरगाह की है। इसका स्वामित्व निर्विवाद है। फैसले में कहा गया कि मुसलमानों को सिर्फ़ रमज़ान और बकरीद के त्योहारों के दौरान नेलिथोप्पु इलाके में नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दी जा सकती है… और वे पारंपरिक पदचिह्नों (Traditional Footsteps) को अपवित्र या ख़राब नहीं करेंगे।

कोर्ट ने सभाओं को नेलिथोप्पु क्षेत्र तक सीमित कर दिया। साथ ही मांसाहारी भोजन ले जाने या परोसने पर रोक लगा दी, और मंदिर के श्रद्धालुओं के रास्ते में किसी भी तरह की बाधा डालने पर रोक लगा दी। अदालत ने पुरातत्व विभाग को पूरी पहाड़ी का सर्वे करने और एक साल के भीतर रिपोर्ट पेश करने का भी निर्देश दिया।

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