देश के नए चीफ जस्टिस सूर्यकांत ने 24 नवंबर को अपना पद संभाला। उनका कार्यकाल 15 महीनों का होगा, जिसमें उन्हें कई अहम फैसले लेने हैं। इस बीच इंडियन एक्सप्रेस ने उनसे विभिन्न मुद्दों पर खास बातचीत की। उसी इंटरव्यू का एक अंश यहां प्रस्तुत है।

सवाल: करीब 14 साल तक आपने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में अपनी सेवाएं दीं। उस दौरान ड्रग्स का मुद्दा कई बार आपके सामने आया। यह चुनौती कितनी बड़ी थी?

जवाब: साल 2015 के आसपास यह मुद्दा मेरे सामने आया था। उस समय मैं हाईकोर्ट में वरिष्ठ न्यायाधीश था, जब तक मैं हिमाचल प्रदेश का चीफ जस्टिस नहीं बना था, मैंने इस बात पर जोर दिया था कि इस मुद्दे पर कम से कम महीने में एक बार जरूर सुनवाई हो, ताकि लगातार नजर बनी रहे और स्थिति को सुधारा जा सके।

अगर सच कहूं तो यह मामला हमारे धैर्य की भी परीक्षा था। यह कोई ऐसा केस नहीं था जो किसी एक आदेश या कुछ निर्देशों से सुलझ जाता। लगातार निगरानी जरूरी थी। सभी स्टेकहोल्डर्स से संवाद करना पड़ता था। उस समय पंजाब में ड्रग्स की स्थिति विस्फोटक थी। मैंने सबसे पहले हर स्तर पर हालात को समझने की कोशिश की-चाहे प्रभावित परिवारों से बातचीत हो, प्रशासनिक प्रतिक्रिया हो या सरकारी मशीनरी की भूमिका।

एक बड़ी चुनौती यह भी थी कि उन ईमानदार अधिकारियों का ट्रांसफर रोका जाए, जो जमीन पर सही तरीके से काम कर रहे थे। जब सभी जरूरी एजेंसियों ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी और हमारे पास एक स्पष्ट तस्वीर आ गई, तभी हम सही दिशा में आगे बढ़ पाए। माइक्रो और मैक्रो, दोनों स्तरों पर समस्या से निपटना जरूरी था।

इस मामले में कई पहलुओं पर काम किया गया। एक इन्वेस्टिगेटिव कमेटी बनाई गई और ड्रग्स के धंधे से मुनाफा कमाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हुई। साथ ही रोकथाम पर भी पूरा ध्यान दिया गया—सीमावर्ती इलाकों में सुरक्षा कैसे बढ़ाई जाए, तकनीक का कैसे इस्तेमाल हो। लेकिन यह भी जरूरी था कि पीड़ितों को नजरअंदाज न किया जाए। इसी दिशा में डी-एडिक्शन सेंटर, रिहैबिलिटेशन फैसिलिटी और कॉलेजों में जागरूकता अभियान शुरू किए गए। एक्सपर्ट कमेटियां भी गठित की गईं।

सवाल: समय-समय पर यह मुद्दा उठता रहा है कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ होते हैं। आपको क्यों लगता है कि CJI का मास्टर ऑफ रोस्टर होना जरूरी है?

जवाब: यह सही है कि CJI को मास्टर ऑफ रोस्टर कहा जाता है, लेकिन मुझे लगता है कि इस भूमिका को अक्सर ठीक से समझा नहीं जाता। CJI सुप्रीम कोर्ट का प्रशासनिक प्रमुख होता है और वरिष्ठता के साथ कई जिम्मेदारियां आती हैं। रोस्टर की समीक्षा करना उनमें से एक है। लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि मामलों को मनमाने ढंग से असाइन किया जाता है। ऐसे फैसले व्यापक मंथन, अन्य जजों से चर्चा और कई फैक्टर्स को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं।

सवाल: एक वरिष्ठ साथी ने कहा था कि न्यायिक स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ एग्जीक्यूटिव से आजादी नहीं, बल्कि प्रेशर ग्रुप्स से भी स्वतंत्रता है। क्या आप इससे सहमत हैं?

जवाब: बिल्कुल। मैं इससे पूरी तरह सहमत हूं। न्यायिक स्वतंत्रता, न्याय वितरण प्रणाली के लिए सबसे जरूरी है। यह ‘डॉक्ट्रिन ऑफ सेपरेशन ऑफ पावर’ के साथ मिलकर काम करती है। हमारे संविधान में भी इसका स्पष्ट उल्लेख है। हमें संविधान और नागरिकों के अधिकारों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए।

सवाल: क्या आप कुछ ऐसा करना चाहेंगे जो पिछले चीफ जस्टिस नहीं कर पाए?

जवाब: यह कहना सही नहीं होगा कि मुझे कुछ बिल्कुल अलग करना है जो मेरे पूर्ववर्तियों ने नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट अब तक 52 चीफ जस्टिस देख चुका है। यह स्वाभाविक है कि सभी की प्राथमिकताएं और कार्यशैली अलग रही हैं। लेकिन एक चीज हमेशा समान रही है-संस्था के प्रति प्रतिबद्धता और न्याय के लिए संघर्ष। व्यक्तिगत रूप से, मैं मामलों की लंबितता के मुद्दे पर विशेष ध्यान देना चाहता हूं। मेरा लक्ष्य एक ऐसी प्रणाली विकसित करना है, जहां देश के हर नागरिक को समय पर न्याय और सही प्रतिनिधित्व मिल सके। यह मेरे लिए सबसे मौलिक मुद्दा है।

सवाल: कई बार देखा जाता है कि सुनवाई के दौरान जजों की टिप्पणियां सोशल मीडिया पर विवाद का कारण बन जाती हैं। क्या सोशल मीडिया को कंट्रोल करने की जरूरत है?

जवाब: मैं नहीं मानता कि सोशल मीडिया को कंट्रोल करने की जरूरत है। ऐसा करना गलत होगा। जब कोई वीडियो वायरल होती है और उसकी आलोचना होती है, तो यह सोशल मीडिया का स्वभाव है। इससे कोई बच नहीं सकता। अगर मनोरंजन के पहलू को अलग रख दें, तो सोशल मीडिया का एक अहम काम जागरूकता फैलाना और लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जोड़ना भी है। लेकिन जब संदर्भ बदल दिया जाता है और पूरी तस्वीर सामने नहीं रखी जाती, तो इसका उल्टा असर भी पड़ सकता है।

सवाल: अक्सर कहा जाता है कि ‘जेल अपवाद है और जमानत नियम’, लेकिन कई अदालतें इसका पालन नहीं करतीं। आप इसे कैसे देखते हैं?

जवाब: यह सिद्धांत हमारी न्यायिक प्रक्रिया का अहम हिस्सा है। लेकिन यह धारणा कि इसका हमेशा समान रूप से पालन नहीं होता, हर मामले के तथ्यों, परिस्थितियों और उसकी गंभीरता पर निर्भर करती है। कोई भी मामला अपने संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

सवाल: आपने हमेशा कॉलेजियम सिस्टम का बचाव किया है। क्या आपको लगता है कि इसमें सुधार की गुंजाइश है?

जवाब: कोई भी सिस्टम या प्रैक्टिस, चाहे वह कितनी ही अच्छी क्यों न हो, सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है। परिवर्तन ही नियम है। जैसे-जैसे समाज आगे बढ़ता है, संस्थानों को भी खुद को बदलना पड़ता है। कॉलेजियम सिस्टम पहले की तुलना में कहीं ज्यादा पारदर्शी हुआ है, लेकिन बेहतर होने की गुंजाइश बनी रहती है। प्रत्याशियों के साथ शुरू हुई इन-पर्सन इंटरैक्शन एक स्वागत योग्य कदम है। इससे कॉलेजियम के सभी सदस्यों को प्रत्याशी को समझने का अवसर मिलता है। आगे हमें उनकी काबिलियत, अनुभव और मेरिट पर और ज्यादा ध्यान देना होगा।

सवाल: कुछ मामले ऐसे होते हैं जिनमें टेक्निकल नॉलेज जरूरी होती है, जैसे टैक्सेशन या पर्यावरण से जुड़े केस। सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों से कैसे निपटता है?

जवाब: मेरे कई पूर्व सहयोगियों की अलग-अलग क्षेत्रों में विशेषज्ञता रही है। टैक्सेशन जैसे मामलों में हमने काफी प्रभावी ढंग से काम किया है। इसके अलावा, जहां जरूरत होती है, वहां डोमेन एक्सपर्ट्स की मदद भी ली जाती है।

ये भी पढ़ें- सीजेआई ने कानूनी भाषा को सरल बनाने की दी सलाह