भारत ने टोक्यो में इतिहास रचा है। उसने टोक्यो ओलंपिक में कुल 7 पदक जीते, जो उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। टोक्यो में उसने 13 साल बाद स्वर्ण पदक जीता। ये सब देख हमें हमारे एथलीट्स पर गर्व की अनुभूति होती है। राजनेता भी उनकी तारीफों के पुल बांधने में जुटे हैं। हालांकि, एक सच यह भी है कि भारत खेलों की महाशक्ति बनने से अभी मीलों दूर है।

देश में खेलों के इंफ्रास्ट्रक्चर में कितनी कमी है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 62% सरकारी स्कूलों में खेल के मैदान नहीं हैं। टोक्यो में भारत की रजत पदक विजेता, साइखोम मीराबाई चानू मणिपुर की राजधानी इंफाल से 30 किमी दूर स्थित नोंगपोक काकचिंग की रहने वाली हैं। मणिपुर के अधिकांश स्कूलों में खेल के मैदान नहीं हैं। यही वजह है कि आर्थिक रूप से कमजोर घरों से ताल्लुक रखने वाले अधिकांश ओलंपियंस को उच्च गुणवत्ता वाली ट्रेनिंग सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं।

मीराबाई चानू इस निराशाजनक परिदृश्य का जीता-जागता उदाहरण हैं। यही नहीं, चंडीगढ़ की रहने वाली 23 साल की बॉक्सर रितु भी इसी समस्या का शिकार हैं। बॉक्सिंग स्कूल नेशनल की मेडलिस्ट और इंटर स्कूल की मेडलिस्ट रितु मुक्केबाजी छोड़ पिछले एक साल से पार्किंग अटेंडेंट का काम कर रही हैं। खराब वित्तीय स्थिति के कारण रितु को 2017 में खेल छोड़ना पड़ा। वह अब 350 रुपये के दैनिक वेतन पर पार्किंग में आने वाली गाड़ियों की रसीद रसीद देने में बिताती है।

रितु बताती हैं, जब से मेरे पिता बीमार पड़े तब से मुझे मुक्केबाजी छोड़नी पड़ी। यह कठिन है, लेकिन मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। अगर मुझे उस वक्त सपोर्ट मिलता तो मैं जारी रखती। मैं चंडीगढ़ राज्य या बॉक्सिंग चंडीगढ़ और बॉक्सिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित नेशनल में नहीं खेल पाई, क्योंकि मेरे पास कोच या उचित ट्रेनिंग की सुविधा नहीं थी।

अखिल भारतीय स्कूल शिक्षा सर्वेक्षण ने 2016 में कितने स्कूल परिसर में खेल के मैदान हैं, इसे लेकर एक सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण में पता चला कि देश के केवल 38% सरकारी स्कूलों में खेल के मैदान हैं, यानी 62%, स्कूलों में खेल के मैदान नहीं हैं। प्राइवेट या निजी स्कूलों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। देश के 48% निजी स्कूलों में ही खेल के मैदान हैं।

मार्च 2020 में, शिक्षा पर बनी एक संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी। उसमें कहा गया था कि 2018 तक ओडिशा के तीन में से दो स्कूलों में खेल का मैदान नहीं थे। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पुरुषों और महिलाओं की भारतीय हॉकी टीम को प्रायोजित कर रहे हैं। भले ही वह यह बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन उन्हीं के सूबे में स्कूल स्तर पर उचित खेल सुविधाओं का बहुत अभाव है।

संसदीय रिपोर्ट के अनुसार, जब स्कूलों में खेल के मैदानों की बात आती है तो दक्षिणी राज्य बेहतर प्रदर्शन करते हैं। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में 71% स्कूलों में खेल के मैदान हैं। 121 साल पहले 1900 में अपनी पहली ओलंपिक उपस्थिति के बाद से भारत की पदकों की कुल संख्या 35 ही पहुंच पाई है। इसमें 10 स्वर्ण, 9 रजत और 16 कांस्य पदक शामिल हैं।

सरकार टोक्यो ओलंपिक में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों के दम पर भले ही अपनी पीठ थपथपा रही हो, लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि 2021 में ओलंपिक होने के बावजूद, केंद्र सरकार ने खेल बजट में 8.16% की कटौती की थी। इस फरवरी में, खेलों के लिए बजटीय आवंटन 2,596.14 करोड़ रुपये था, जो पूर्व के मुकाबले 230.78 करोड़ रुपये कम है।

भारतीय खेल प्राधिकरण को 660.41 करोड़ रुपए का अनुदान दिया गया। यह पिछले वर्ष प्राप्त आवंटन से 500 करोड़ रुपए अधिक है। खेल मंत्रालय की प्रमुख योजना खेलो इंडिया के बजट में पिछले साल के मुकाबले 232.71 करोड़ रुपए की कमी देखे गई। वित्तीय वर्ष 2019-20 में यह 890.42 करोड़ था, जो 2020-21 में घटकर 657.71 करोड़ रुपए रह गया।

सीधे शब्दों में कहें तो, खेल जगत में भारत के प्रदर्शन को उसकी पूरी क्षमता तक सुधारा जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले स्कूलों में खेल के मैदान जैसी बुनियादी सुविधाएं प्रदान करनी होंगी। साथ ही खेल संबंधी योजनाओं के निवेश और उसका बजट बढ़ाना होगा। विश्व मंच पर चमकने के लिए भारत को अपने खेल के बुनियादी ढांचे को व्यापक रूप से बदलने की जरूरत है।