श्रीशचंद्र मिश्र

दो साल पहले रियो ओलंपिक में चौथा स्थान पाने भर से राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाजी गर्इं दीपा कर्मकार इस साल जकार्ता के एशियाई खेलों में फ्लाप रहीं। वजह उनका पूरी तरह स्वस्थ न होना बताया गया। उस सूरत में तो उन्हें खेलों से बाहर रखा जाना चाहिए था। बहरहाल दीपा के मामले में यह साफ हो गया है कि एक सफलता के बाद किसी भी खिलाड़ी पर उम्मीदों का बोझ लाद देना कितना खतरनाक साबित हो सकता है। यह अपने आप में कम दयनीय स्थिति नहीं है कि किसी खिलाड़ी के ओलंपिक खेलों के लिए क्वालीफाइ करने व चौथा स्थान पाने भर से गर्व की अनुभूति होने लगे और उस उपलब्धि को भारतीय खेलों के इतिहास का शिलालेख मान लिया जाए। 2016 में हुए 28वें ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेने को आतुर सवा सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में किसी खिलाड़ी के पदक जीतने से ज्यादा महत्व अपना चेहरा दिखाने का मौका मिलने को ही मान लिया जाए तो दीपा कर्मकार की सफलता पर गदगद होना बनता है। बाकी देशों के खिलाड़ी भले ही पदकों पर निगाह लगाएं, अपने यहां ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेने और फिसल जाने पर ही छाती फूल जाने की जो पुरानी परंपरा रही है उसे बदला भी कैसे जा सकता है?

मकसद दीपा कर्मकार की सफलता की अवहेलना करने का कतई नहीं है। उन मानसिक जड़ता को दिखाने का है जिसने खेलों को बरसों से जकड़ रखा है। आज तमाम खेल प्रशासक और खेल मंत्रालय आनंदित है कि दीपा ने वह कर दिखाया जो पिछले 96 साल में कोई पुरुष जिमनास्ट नहीं कर पाया। नौ दशक से ज्यादा की इस गंभीर शून्यता की स्थिति पर शर्मिंदगी किसी को नहीं है। आखिर 96 साल में पहले कोई दीपा क्यों सामने नहीं आई? आज दीपा स्टार बन गई हैं। उन्हें भारतीय खेलों का चमकता चेहरा मान लिया गया है और उम्मीदों का बोझ उन पर डाल दिया गया है कि अब तो हर वैश्विक खेलों में पदक पक्का? इस तरह की मृगतृष्णा ने न जाने कितने प्रतिभावान खिलाड़ियों का भविष्य चौपट कर दिया है। रियो ओलंपिक के बाद और ज्यादा बेहतर करने का दबाव दीपा के लिए भारी पड़ रहा है।

दीपा इस स्थिति का शिकार ज्यादा नहीं बनेंगी। यह उम्मीद इसलिए है क्योंकि आज वे जिस पड़ाव पर हैं उसके लिए उन्होंने सोलह साल मशक्कत की है। छह साल की नन्हीं उम्र में सपाट तलवों की बाधा के बावजूद जिमनास्टिक की ट्रेनिंग शुरू करते हुए दीपा ने सपनों और उम्मीदों की भूल भुलैया में न उलझ कर बेहतर से बेहतर करने के लक्ष्य पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखा है। लक्ष्य भले ही थोड़ा भटक गया हो पर अहम सवाल यह है कि कड़ी चुनौतियों का सामना करते हुए क्या दीपा भविष्य में ओलंपिक पदक की दहलीज तक पहुंच पाएंगी? दीपा का अब तक का जो सफर रहा है उसमें बिना किसी सहारे के सिर्फ अपनी लगन और मेहनत से उन्होंने कई चुनौतियों का सामना करते हुए सफलता पाई है। निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में वे जन्मी। खेलों से उनका परिचय इतना ही था कि उनके पिता दुलाल कर्मकार इंफल के भारतीय खेल प्राधिकरण के केंद्र में वेट लिफ्टिंग के कोच थे और चाहते थे कि उनकी बेटी भी किसी खेल का हिस्सा बने। दीपा के लचीले शरीर को जिमनास्टिक के लिए ज्यादा उपयुक्त मान कर वे दीपा को छह साल की उम्र में जिमनास्टिक कोच के पास ले गए। दीपा के सपाट तलवों को देख कर कोच ने उन्हें कोई और खेल अपनाने की सलाह दी। पिता नहीं माने। पिता की इस जिद को पूरा करने को नन्हीं दीपा ने जिमनास्टिक में कोई विशेष रुचि न होने के बावजूद अपना लक्ष्य बना लिया।

सालों की मेहनत के बाद दीपा का नाम उस समय सुर्खियों में आया जब 2014 में ग्लासगो में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में वॉल्ट इवेंट में उन्होंने कांस्य पदक जीता। यह सफलता पाने वाली वे पहली महिला जिमनास्ट थीं। 2015 में हिरोशिमा मे हुई एशियाई प्रतियोगिता में भी इसी इवेंट में दीपा ने कांस्य पदक जीता। उसी साल विश्व प्रतियोगिता के फाइनल में पहुंचने वाली वे पहली जिमनास्ट बनीं।

प्रोड्यूनोवा वॉल्ट में दीपा को गजब की महारत हासिल है। इसे सबसे मुश्किल और खतरनाक इवेंट माना जाता है। इसमें तीन बार समरसाल्ट करना पड़ता है और जरा सी चूक से जिमनास्ट की गर्दन तक टूट सकती है। रूसी जिमनास्ट येलेना प्रोड्यूनोवा ने 1999 में इसे आजमाया था। इसके बाद जिन चार जिमनास्टों ने इस खतरनाक इवेंट को किया उनमें दीपा भी हैं। 15.100 अंक का ताजा विश्व रेकार्ड दीपा के ही नाम है। ओलंपिक क्वालीफाइ में दीपा ने वॉल्ट इवेंट का स्वर्ण पदक अपने नाम किया सो अलग।