कोनेरू हंपी – सपना अपना और उम्मीद देश की। प्रतिभा और दिमागी कौशल जिसके पास हो, चैंपियन बनने वाली क्लास हो, वो बुलंदियों को छुए बिना कैसे हार मान सकता है। मां बनने पर खेल में दो साल की जुदाई हताशा वाली रही। ओलंपियाड हो या क्लासिकल विश्व शतरंज या फिर रैपिड फॉर्मेट, सितंबर 2018 में हंपी जब शतरंज जगत में लौटी तो परिणाम निराशाजनक रहे। पर, 2019 में लय वापस आई और सफलता कदम चूमने लगी। साल का अंत विश्व खिताब जैसे अनुपम उपहार के साथ हुआ। 32 साल की भारतीय ग्रैंडमास्टर ने उस सपने को साकार कर लिया जिसे उन्होंने बचपन में शतरंज से जुड़ते वक्त संजोया था।
आंध्र प्रदेश की यह खिलाड़ी आज रैपिड फॉर्मेट में विश्व चैंपियन हैं। उस फॉर्मेट में जो कभी उसकी मजबूती नहीं रहा। सपना अभी अधूरा है पर इरादे मजबूत। अब लक्ष्य क्लासिकल फॉर्मेट में विश्व चैंपियन बनना है। इस फॉर्मेट में वह 2011 में खिताब जीतने से एक कदम दूर रह गई थीं। तब चीन की ग्रैंडमास्टर हाउ यिफान ने उनके सपने को चकनाचूर किया था।
चैंपियन बनने की खुशी हर खिलाड़ी को होती है। इसमें इजाफा और हो जाता है जब सफलता उम्मीदों के विपरीत मिले। चैंपियनशिप के अंतिम दिन मेडल की तो आस थी पर विश्व चैंपियन का ताज बंध जाएगा इसकी कल्पना किसी को नहीं थी। चीन की टान झोंगयी के साथ बाजी जीतने से रजत पदक पक्का हो गया था। लेकिन दूसरे मुकाबले में एक और चीनी खिलाड़ी लेड टिंग जाइ की हार से हंपी को टाइब्रेक का मौका मिल गया जिसे भुनाकर उन्होंने इतिहास रच दिया। इस सफलता का महत्व और बढ़ जाता है क्योंकि यह रूस की धरती मॉस्को पर मिली। रूस को शतरंज की महाशक्ति माना जाता है।
हंपी दूसरी भारतीय खिलाड़ी हैं जिन्हें रैपिड में विश्व चैंपियन बनने का सौभाग्य मिला। 2017 में विश्वनाथन आनंद ने रैपिड में अपनी बादशाहत साबित की थी। इससे भारत उन देशों में शामिल हो गया जिसके पुरुष और महिला खिलाड़ी को रैपिड विश्व चैंपियन बनने का गौरव मिला।
हंपी 1995 में प्रकाश में आई। पिता कोनेरू अशोक से खेल की बारीकियां सीखकर उन्होंने अंडर-8 आयु वर्ग में चौथा स्थान हासिल किया था। इसके बाद निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर हंपी की सफलता का दौर शुरू हुआ। उन्होंने अंडर-10, अंडर-12 और अंडर-14 में विश्व खिताब जीते। हंपी ने 14 साल की उम्र में ही जूनियर विश्व खिताब जीत लिया था। यह चैंपियनशिप 20 साल तक के खिलाड़ियों के लिए आयोजित किया जाता है।
हंपी ने कई शतरंज ओलंपियाड में देश का प्रतिनिधित्व किया और सर्वाधिक पदक जीते। वह हंगरी की जूडिथ पोलगर के बाद दूसरी महिला शतरंज खिलाड़ी हैं जिन्होंने 2009 में इएलओ रेटिंग में 2600 के स्कोर को पार किया। उनकी सर्वश्रेष्ठ रेटिंग 2623 रही है। उन्हें अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री से भी नवाजा जा चुका है।
भारतीय नजरिए से यह खिताब मिलना अहम है। यह महिला शतरंज खिलाड़ियों को प्रेरित कर सकता है। यह ठीक है कि हमारे पास कोनेरू हंपी, द्रोणावल्ली हरिका और तानिया सचदेव जैसी स्तरीय खिलाड़ी हैं। लेकिन नई पौध को खेल के प्रति आकर्षित करना भी हमारी जिम्मेदारी है। शतरंज में भी अब काफी पैसा आ गया है। देश में ही राष्ट्रीय चैंपियनशिप के अलावा कई टूर्नामेंटों का आयोजन होता है।
भारतीय महिलाएं चार दशक पहले भी चर्चित हुई थीं। पर तब उनका दायरा एशियाई शतरंज तक ही सिमट कर रह गया था। काफी समय खाडिलकर बहनों का राज रहा। भाग्यश्री, विजयलक्ष्मी और अनुपम अभ्यंकर एशियाई क्वीन बनीं। लेकिन रूस और चीन के दबदबे में भारतीय खिलाड़ी अपनी छाप नहीं छोड़ पाई।
आज स्थिति और भी विचित्र है। देश को शतरंज में विश्व चैंपियन मिला है तो दूसरी तरफ अपनी शतरंज फेडरेशन अंदरूनी कलह में उलझी हुई है। पश्चिम बंगाल में गड़बड़ी के मुद्दे पर अखिल भारतीय शतरंज महासंघ में गुटबाजी हो गई है। फेडरेशन अध्यक्ष और महासचिव शक्ति परीक्षण की तैयारी में हैं। मामला अदालत में पहुंच गया है जो और भी दुखद है। खेल प्रभावित न हो इसका समाधान जल्दी निकलना चाहिए।
सुरेश कौशिक
