फुटबॉल डे-यानी पूरा दिन खेल को समर्पित। तीन अगस्त को जन्मदिन था भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान सुनील क्षेत्री का जिसे ‘फुटबॉल दिल्ली’ ने फुटबॉलमय बना दिया। ‘ई समिट’ से विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हुई। खेल मंत्री किरण रिजीजू भी इससे जुड़े और नामी हस्तियां भी। यह समिट केंद्रित था दिल्ली को फुटबॉल का गढ़ बनाना। राजधानी में खेल को किस तरह आगे बढ़ाया जाए और कैसे ऊंचाइयों पर पहुंचाया जाए, यह लक्ष्य था।
यह कुछ-कुछ उसी तरह है जैसे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन (29 अगस्त) ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। फर्क इतना है कि इस दिन खिलाड़ियों को उनकी उपलब्धियों के लिए अर्जुन अवार्ड, प्रशिक्षकों को द्रोणाचार्य अवार्ड, सबसे जानदार प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ी को राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड से सम्मानित किया जाता है। कुछ और श्रेणियों में भी पुरस्कार दिए जाते हैं।
सपना संजोया है दिल्ली की खेल संस्था ‘फुटबॉल दिल्ली’ के अध्यक्ष शाजी प्रभाकरण ने। सपना संजोने में कोई बुराई नहीं है। खेल को विकास पथ पर ले जाने के लिए नई राह तलाशना भी गलत नहीं। आखिर दिल्ली फुटबॉल का अतीत सुनहरा रहा है। खेल की जड़ें इतनी गहरी हैं कि अखिल भारतीय फुटबॉल फेडरेशन के गठन से पहले ही दिल्ली में फुटबॉल चलाने वाली संस्था बन गई थी।
दिल्ली फुटबॉल लीग की शुरुआत 1948 में हुई। यंगमैन क्लब को पहला चैंपियन बनने का गौरव मिला। यह दिल्ली का सबसे पुराना क्लब है। इसका गठन 1885 में हुआ था। बाद में यंगमैन की टीम काफी शक्तिशाली बनकर उभरी और सन 50 के दशक में कोलकाता की दिग्गज टीमों को पीटने की गौरवगाथा भी उनके साथ जुड़ी हुई है।
लेकिन इससे पहले ही राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली की टीम ने अपनी ताकत का अहसास करवा दिया था। 1941 में जब राष्ट्रीय फुटबॉल चैंपियनशिप की शुरुआत हुई तो दिल्ली फाइनल खेली मगर बंगाल से हार गई। 1942 और 43 में चैंपियनशिप हुई नहीं और जब 1944 में दिल्ली ने मेजबानी की तो राष्ट्रीय खिताब जीत लिया। पहले फाइनल में हुई हार का हिसाब चुकता करते हुए बंगाल को हराया। संतोष ट्रॉफी में दिल्ली की यह इकलौती सफलता है। 1950 और 52 में दो बार सेमी फाइनल तक भी पहुंची। जूनियर खिलाड़ियों ने 60 के दशक में दो बार राष्ट्रीय चैंपियन बनकर दिल्ली को मजबूत टीमों में शुमार रखा।
समय-समय पर राष्ट्रीय स्तर पर भी दिल्ली ने देश को बेहतरीन खिलाड़ी दिए। अजीज कुरेशी, अरुणेश शर्मा, जी. बरनर्ड, लक्ष्मण बिष्ट, त्रिलोक बिष्ट एशियाई यूथ चैंपियनशिप में भारतीय टीम में खेलने वाले खिलाड़ी बने। मोहम्मद युसूफ, कृपाल सिंह और ओपी मल्होत्रा जैसे खिलाड़ियों को सन 50 के दशक में विदेशी टीमों के खिलाफ खेलने का गौरव मिला।
दिल्ली फुटबॉल में गुटबाजी के बावजूद 1980 के दशक में सीनियर टीम को तरुण राय और अनादि बरुआ के रूप में दो खिलाड़ी दिए। तरुण ने अपनी गति, कौशल और गोल कलाकारी से राष्ट्रीय चयनकर्ताओं का ध्यान खींचा। 1984 में वेस्ट इंडीज दौरे पर गई भारतीय टीम में उनको जगह मिली। 1986 में त्रिवेंद्रम में हुए नेहरू गोल्ड कप के लिए भारतीय टीम में उनका चयन हुआ। उनके लिए गौरव का क्षण था जब 1985 में सोवियत संघ के शेकटार क्लब के खिलाफ उन्हें भारतीय टीम की कमान सौंपी गई। 2014 के एशियाई खेलों में वह भारतीय महिला फुटबॉल टीम के कोच रहे।
अनादि बरुआ भी 1986 नेहरु गोल्ड कप टीम का हिस्सा रहे। अनादि ने 1985 में दिल्ली में जर्मनी के बोकम क्लब के खिलाफ शानदार गोल बनाया था। 1981 में एशियाई स्कूल फुटबॉल और 1982 में काठमांडू में एशियाई युवा अंतरराष्ट्रीय चैंपियनशिप में भी वे टीम का हिस्सा थे। बरुआ भी भारतीय महिला फुटबॉल टीम के कोच रह चुके हैं। इसके बाद सीनियर भारतीय टीम में जगह बनाने वाले खिलाड़ी रहे संतोष कश्यप। संतोष मुंबई की टीम महिंद्रा एंड महिंद्रा में चले गए। बाद में वे कोचिंग से भी जुड़े। इसके बाद मानचित्र पर आए सुनील क्षेत्री। उनके बाद यह गौरव गोलकीपर गुरविंदर सिंह को मिला।
लेकिन छाप छोड़ी छेत्री ने। ढेरों सफलताओं में उनका योगदान रहा। तीन बार नेहरू कप जीत दिलाने में उनकी अहम भूमिका रही। अपनी गोल बनाने की कला से वह हमेशा सुर्खियों में रहे। कलाकारी पांव की हो या सिर की, वह गोल बनाने में उस्ताद हैं। बाक्स में उनकी पोजीशनिंग हमेशा सही रहती है। देश के लिए सबसे ज्यादा अंतरराष्ट्रीय मैच, सबसे ज्यादा गोल बनाने का गौरव उन्हीं के नाम है। इस ‘एशियाई आइकन’ रेकार्ड छह बार एआइएफएफ के ‘प्लेयर ऑफ द इयर’ बने हैं। मौजूदा अंतराष्ट्रीय खिलाड़ियों में वे रोनाल्डो (149 गोल) के बाद दूसरे नंबर हैं। उनके नाम 75 गोल हैं। अनेक उपलब्धियां और सम्मान वे हासिल कर चुके हैं। अर्जुन अवार्ड और पद्मश्री उन्हें मिल चुका है। दिल्ली में वे सिटी क्लब के लिए खेले पर ज्यादा समय नहीं। उनका नाम भुनाकर ‘फुटिबॉल दिल्ली’ खेल में कितना बदलाव लाएगा, समय बताएगा। बहरहाल चुनौती काफी कठिन है।