भारत में क्रिकेट की तस्वीर बदल रही है। घरेलू क्रिकेट में परंपरागत रूप से मजबूत टीमों का बोलबाला नहीं रहा। अब रणजी फाइनल खेले जा रहे हैं बिना मुंबई, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसी टीमों के। चुनौती बन रही हैं छोटी टीमें। चुनौती ही नहीं, नामी-गिरामी खिलाड़ियों के बगैर भी ट्रॉफी जीतकर ये टीमें साबित कर रही हैं कि देश में क्रिकेट प्रतिभाओं का अपार खजाना है। क्रिकेट की नई ताकत के रूप में उभरा है विदर्भ। लगातार दो साल रणजी और ईरानी कप जीतकर विदर्भ की टीम उस उपलब्धि से जुड़ गई जिसको पाने का श्रेय सिर्फ दो टीमों मुंबई और कर्नाटक को मिला है। जिस टीम ने देश को बहुत ज्यादा स्टार खिलाड़ी नहीं दिए हों, उसने अपने क्रिकेट जज्बे से देश को फतह किया है।
2018-19 सत्र का रणजी फाइनल विदर्भ और सौराष्ट्र के बीच खेला गया जिसमें विदर्भ ने पहली पारी की बढ़त से बाजी मारी। दोनों टीमों में अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी नाममात्र के ही थे। खिताब का सफलतापूर्वक बचाव कर विदर्भ ने साबित किया कि 2017-18 में टीम को मिली खिताबी जीत महज तुक नहीं थी। इसके पीछे थी खिलाड़ियों की मेहनत, अनुशासन, समर्पण, जीत का जज्बा और कोच की कुशल रणनीति।
किसी भी टीम की सफलता में कोच की बड़ी भूमिका होती है। दो साल पहले पूर्व अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी चंद्रकांत पंडित ने विदर्भ क्रिकेट को चमकाने की चुनौती स्वाकारी थी। देश के लिए विकेटकीपर बल्लेबाज के तौर पर खेल चुके पंडित खिलाड़ी के तौर पर मुंबई की ओर से खेलते हुए रणजी चैंपियन बनने का सपना साकार कर चुके हैं। फिर मुंबई टीम के कोच के तौर पर सफल रहे। 1983-84 और 1984-85 में रणजी चैंैंपियन बनी मुंबई की टीम में चंद्रकांत पंडित ने विकेटकीपर बल्लेबाज के रूप में योगदान दिया था।
जब उन्होंने प्रशिक्षक का दायित्व संभाला तो तीन बार मुंबई (2002-03, 2003-04, 2015-16), एक बार राजस्थान (2011-12) और अब दो बार विदर्भ (2017-18, 2018-19) को चैंपियन बनवाया। मुंबई को लगातार दो साल रणजी फाइनल में ले जाने के बावजूद चंद्रकांत को 2017 में कोच की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया। बस यह चूक जहां मुंबई को भारी पड़ गई, वहीं विदर्भ के लिए वरदान साबित हुई। विदर्भ ने पेशकश देने में देर नहीं लगाई और पंडित ने भी पेशेवर कोच की तरह ठुकराया नहीं।
जब किसी क्रिकेट संघ की कमान खिलाड़ी के हाथ में हो तो कोच को अपनी सोच, अपनी बात रखना आसान हो जाता है। पूर्व अंतरराष्ट्रीय गेंदबाज प्रशांत वैद्य, जिनके पास एसोसिएशन की कमान है, ने पंडित के साथ मिलकर विदर्भ क्रिकेट को ऊंचाइयों पर ले जाने का खाका तैयार किया। तीन तरह के खिलाड़ियों पर फोकस किया गया। पहले जो सिर्फ खेलने के इच्छुक हैं, दूसरो जो टीम में खेलना चाहते हैं और तीसरो जो बड़े स्तर पर नाम कमाना चाहते हैं। इसमें कोच को कुछ भी करने की पूरी आजादी दी गई। किसी भी तरह के हस्तक्षेप से बचा गया। टीम में एकजुटता को प्राथमिकता दी गई।
नतीजा टीम पहली बार रणजी चैंपियन बन गई। जब दूसरा साल आया तो पहले दिन से ठान लिया कि रणजी ट्रॉफी को गिरफ्त से नहीं जाने देना है। और यह सपना भी पूरा किया गया। इससे पहले विदर्भ अपनी क्रिकेट के लिए नहीं जाना जाता रहा। लेकिन आयोजन में कुशलता के लिए मशहूर रहा। यों बदनामी का भी दाग लगा जब नागपुर की विकेट को खतरनाक करार देते हुए मैच रद्द हुआ था। 1987 में रिलायंस विश्व कप का मैच भी यहां खेला गया था जिसमें चेतन शर्मा ने ‘हैट्रिक’ की थी। बाद में शशांक मनोहर यहां से बीसीसीआइ के अध्यक्ष बने और फिर आइसीसी के चेयरमैन भी।
लेकिन क्रिकेट में निखार पिछले दो साल में ही आया। अनुभवी वसीम जाफर रणजी की दोनों सफलताओं में अहम रहे। रणजी ट्रॉफी में सर्वाधिक रन बनाने का रेकॉर्ड उनके ही नाम है। जाफर ने इस सीजन में 11 मैचों में 1037 रन बनाए। 69.13 की औसत से बनाए गए रनों में उन्होंने चार शतक और दो अर्धशतक लगाए। जाफर को टीम इंडिया में खेलने के ज्यादा अवसर नहीं मिल पाए पर घरेलू क्रिकेट में उनका बल्ला खूब चमका है। उनके नाम एक नायाब रेकॉर्ड है – दस रणजी फाइनल खेलना और सभी में चैंपियन टीम का खिलाड़ी होना।
खब्बू स्पिनर आदित्य सरवटे ने 11 मैचों में 19.67 की औसत से 55 विकेट लिए। फाइनल में करिअर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए उन्होंने 57 रन पर 11 विकेट लिए। फैज फजल बल्ले से चमके और कप्तानी भी खूब की। उनकी कप्तानी में विदर्भ ने रणजी और ईरानी कप का दो साल दोहरा खिताब जीता। रणजी खिताब का बचाव करने वाली विदर्भ छठी टीम है। मुंबई ने छह बार, कर्नाटक ने दो बार, महाराष्ट्र, दिल्ली और राजस्थान को एक बार यह गौरव मिला है। उमेश यादव और रजनीश गुरबानी ने भी जरूरत के समय विकेट निकालकर अपनी उपयोगिता साबित की। बेहतर सुविधाएं प्रदान की गईं। प्रैक्टिस विकेट हमेशा तैयार मिली। खाने की गुणवत्ता बढ़िया। यह भी सुनिश्चित किया गया कि अकादमी के बच्चों को भी यही सुविधा मिले।
बड़ी और छोटी टीमों में कम हो रहा फासला
बड़ी और छोटी टीमों में फासला कम हो रहा है। सौराष्ट्र ने फाइनल खेला। उम्मीदें चेतेश्वर पुजारा से थीं जिन्होंने आस्ट्रेलिया में ऐतिहासिक टैस्ट शृंखला जिताने में योगदान दिया। पुजारा नाकाम रहे। 1, 0 का स्कोर रहा। उन्हें आउट करने की रणनीति बनाई गई थी। पुजारा की नाकामी से सौराष्ट्र का पहली बार खिताब जीतने का सपना टूट गया। रणजी ही नहीं, लगातार दूसरे साल ईरानी ट्रॉफी को भी जीतकर विदर्भ की टीम ने यह साबित कर दिया कि सफलता सितारा खिलाड़ियों से नहीं, टीम वर्क, मजबूत इरादे और जुझारूपन से मिलती है। मैदान में जब भी परिस्थिति खिलाफ हुई कोई न कोई बल्लेबाज या गेंदबाज तारणहार बन गया। रणजी और ईरानी कप का बचाव कर विदर्भ की टीम मुंबई और कर्नाटक के बाद इस उपलब्धि के साथ जुड़ गया। दूसरी टीमों के लिए यह सबक है।

