बीसीसीआई में सुधारवादी कदमों को लेकर उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के एक महीने के बाद इसे लेकर बहस खत्म होती नहीं दिख रही क्योंकि कुछ विशेषज्ञों ने इसे ‘प्रत्यक्ष रूप से असंवैधानिक’ करार दिया है जबकि अन्य का मानना है कि इस कानून का आधार है क्योंकि इससे जनता की रुचि और जनता का पैसा जुड़ा है। बीसीसीआई ने उच्चतम न्यायालय के फैसले पर सलाह देने और अपना पक्ष रखने के लिए शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाशीष मार्कंडेय काटजू को चुना है जिन्होंने कथित तौर पर इस फैसले को ‘असंवैधानिक’ करार दिया है। हालांकि सिफारिश करने वाले न्यायाधीशों के पैनल के प्रमुख पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि इस विवाद पर उच्चतम न्यायालय का फैसला अंतिम है।
उन्हें जाने माने संविधान विशेषज्ञ गोविंद गोयल का भी समर्थन किया जिन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय को बोर्ड के मामलों को देखने को पूर्ण अधिकार है क्योंकि जनता की रुचि और पैसा इसमें जुड़े हैं। गोयल को हालांकि सिर्फ इतनी आशंका है कि फैसला देने के बाद इस मामले को लोढ़ा समिति पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए था और न्यायालय को सरकार से कहना चाहिए था कि सिफारिशों को आगे बढ़ाने के लिए खेलों के विशेषज्ञों की सेवाएं लेकर वे अपनी एजेंसियों को इस मामले से जोड़ें।
गोयल ने साथ ही उच्चतम न्यायालय के फैसले पर बीसीसीआई को ‘सलाह देने और उसके मार्गदर्शन’ के लिए न्यायमूर्ति काटजू द्वारा चार सदस्यीय समिति के प्रमुख की पेशकश स्वीकार करने पर भी आशंका जताते हुए कहा कि अनुच्छेद 124 (7) उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों को भारत में किसी भी अदालत या अधिकरण के समक्ष पक्ष रखने से रोकता है। फैसले की समीक्षा की मांग करने वाले बीसीसीआई को हालांकि वरिष्ठ अधिवक्ता अनूप जॉर्ज चौधरी का समर्थन मिला जिन्होंने इस फैसले को प्रत्यक्ष रूप से असंवैधानिक करार दिया।
चौधरी ने फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह फैसला पूर्व की संवैधानिक पीठ के फैसलों को संदर्भ में रखते हुए नहीं दिया गया है जो दो न्यायाधीशों की पीठ के लिए बाध्यकारी था। उच्चतम न्यायालय के फैसले को लेकर जारी बहस काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि बीसीसीआई ने पुनरीक्षण याचिका दायर की है जबकि क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार ने अपने सचिव आदित्य वर्मा के जरिए बीसीसीआई के पदाधिकारियों के खिलाफ कथित तौर पर ‘अवमानना’ के बयान के लिए अवमानना याचिका दायर की है।