इश्क और इंकलाब के शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्म पंजाब के सियालकोट में 13 फरवरी, 1911 को हुआ था। विभाजन के बाद फ़ैज पाकिस्तान में रहे, लेकिन काम के सिलसिले में भारत आते रहे।
उसी दौरान का एक किस्सा पटकथा लेखक, गीतकार और कवि जावेद अख़्तर ने निर्माता-निर्देशक नासिर मुन्नी कबीर से बातचीत में बताया, जिसे किताब (Talking Life) की शक्ल में वेस्टलैंड प्रकाशन ने छापा है। पढ़िए जावेद अख़्तर का बताया वो किस्सा:
1968 की बात है। मेरे पास तब रहने की भी जगह नहीं थी। मैं कमल स्टूडियो के कंपाउंड में सोता था। कभी खाना खा लिया। कभी भूखे ही रह गए। तब एक पेग चवन्नी (पच्चीस पैसे) का मिलता था। कोई पिला देता तो पी लेते थे। उन्हीं दिनों फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ बॉम्बे आए हुए थे। रंग भवन नाम के ओपन एयर थिएटर में उनका कार्यक्रम था। ये थिएटर मरीन लाइन्स में था। मैं अंधेरी में रहता था। यानी बहुत दूर था। मेरे पास मरीन ट्रेन के पैसे तक नहीं थे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के मुशायरे के टिकट की बात ही छोड़ दीजिए।
मैं बहुत दुखी था। सोच रहा था कि जिस शायर को बचपन से पढ़ रहे हैं, वो आया है। लेकिन अपना ये हाल है कि वहां तक जा भी नहीं सकते। मुझे ज्यादा उदास देखकर दोस्त ने कहा चलो तुम्हे शराब पिलाता हूं। मैं चला गया। थोड़ी देर तक तो हम पीते रहे। वक्त का अंदाजा नहीं रहा। शायद 11 बज गए थे। अब नशे में होने की वजह से मुझमें हिम्मत आ गई। मैं उठा और बगैर टिकट जाकर ट्रेन में बैठ गया। लोकल ट्रेन मरीन ड्राइव पहुंची। वहां मैं उतर गया। शायद इतनी देर हो गई थी कि वहां गेट पर कोई टिकट चेक करने वाला भी नहीं था। मैं आगे बढ़ चला। चलते-चलते मैं रंग भवन पहुंचा। वहां भी कोई टिकट चेक करने वाला नहीं था। शायद मुशायरा अंतिम चरण में था। मैं अंदर गया। अब नशे की वजह से मुझे सुनाई कम दे रहा था। मुझे पता नहीं चल रहा था कि स्टेज पर क्या हो रहा है। मैं पीछे से जाकर स्टेज पर बैठ गया। वहां गाव-तकिया (मसनद) रखा हुआ था। मैं कब उस पर सो गया, पता नहीं चला।
जब आंख खुली तो मुशायरा खत्म हो चुका था। मैंने देखा फ़ैज़ के साथ उनके चाहने वाले 10-12 लोग चल रहे हैं। सभी फ़ैज़ साहब की कार की तरफ बढ़ रहे थे। मैं तेजी से वहां गया और ऑर्गनाइजर के वॉलेंटियर (एक दुबला-पतला लड़का) को डांटा कि क्या कर रहे हो तुम। इन्हें कंट्रोल नहीं कर सकते तुम। आइए फ़ैज़ साहब, आप इधर आइए। मैंने उन्हें गाड़ी में बैठाया। खुद बैठा। आगे बैठे वॉलेंटियर से कहा- चलो, गाड़ी निकालो।
अब मैंने फ़ैज़ साहब से बातचीत शुरू कर दी। वो नहीं जानते कि मैं कौन हूं। न ही उन्हें मेरा नाम मालूम है। लेकिन बातचीत चलती रही। वॉलेंटियर को लग रहा था कि हम दोनों एक-दूसरे को जानते हैं। गुलमर्ग होटल के सामने गाड़ी रुकी। मैं उतरा, फ़ैज़ साहब भी उतरे। अब वॉलेंटियर ने मुझसे पूछा कि गाड़ी रखनी है या भेज दें। मैंने फ़ैज़ साहब से पूछा- गाड़ी रखनी है क्या फ़ैज़ साहब? उन्होंने कहा- नहीं मियां, अब तो कहीं जाना नहीं है। इसलिए जाने ही दीजिए। मैंने गाड़ी भेज दी।
हम होटल के अंदर गए। मैंने रिसेप्शन से उनके कमरे की चाभी उठा ली। हम कमरे में गए। वहां व्हिस्की की बोतल रखी हुई थी। उन्होंने कहा- कुछ सोडा-वोडा मंगवा लीजिए। उन्हें लग रहा था मैं ऑर्गेनाइजर का खास आदमी हूं। मैंने सोडा मंगवा लिया। फिर दोनों शराब पीने लगे और पीते-पीते उर्दू लिपि की बात होने लगी। इतनी देर में अली सरदार जाफरी और मजरूह सुल्तानपुरी कमरे में आते हैं। उन्होंने देखा कि यहां तो बहस चल रही है। उन्हें लगा फ़ैज़ साहब जानते ही होंगे लड़के को। वो भी बैठ गए। मैंने दो ग्लास और मंगवा ली।
अब पहले का ठर्रा और अभी की स्कॉच से मेरा दिमाग गुल हो रहा था। मैंने फ़ैज़ साहब से कहा कि मैं सोता हूं। उन्होंने कहा- हां मियां, आप सो जाइए। मैं अंदर गया। वहां दो बेड थे। एक पर सो गया।
जब नींद खुली तो सुबह हो चुकी थी। मुझे कुछ आवाज सुनाई दे रही थी। अब मैं बिलकुल होश में था।
बाहर फ़ैज़ साहब का इंटरव्यू चल रहा था। मैं चादर ताने सब कुछ सुन रहा था। पत्रकारों के बीच असली ऑर्गेनाइजर कुलसुम सयानी (स्वतंत्रता सेनानी) भी बैठी हुई थीं। उन्हें संदेह हो रहा था कि बिस्तर पर कौन सोया हुआ है। उन्होंने बातचीत के बीच में ही फ़ैज़ साहब से पूछ लिया कि ये कौन सोया हुआ है? फ़ैज़ साहब इस सवाल को छोड़कर, उस सवाल का जवाब देने में व्यस्त रहे जो उनसे पहले पूछा गया था।
मैं चादर के अंदर से सब सुन रहा था। इतने में मैं उठा, पूछा- फ़ैज़ साहब मैं चलूं? उन्होंने कहा- हां मियां, आप जाइए। और मैं तेजी से बाहर निकल गया।
