अर्जुन सेनगुप्ता

मोहनदास करमचंद गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर के बीच मित्रवत संबंध रहे। दोनों महान शख्सियतों के बीच दोस्ती 1914-15 में शुरु हुई और टैगोर के निधन (1941) तक चली।

दोनों पहली बार 6 मार्च, 1915 को पश्चिम बंगाल के शांतिनिकेतन में मिले थे। यह गांधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के कुछ माह बाद गांधी की घटना है। गांधी ने टैगोर के शांतिनिकेतन में लगभग एक महीना बिताया था और उस विद्यालय पर अपनी गहरी छाप छोड़ी थी।

आज तक, शांतिनिकेतन उस बैठक की स्मृति में हर साल 10 मार्च को ‘गांधी पुण्य दिन’ मनाता है। इस दिन स्कूल के कामकाजी कर्मचारियों (चौकीदार, माली, रसोइया, आदि) को एक दिन की छुट्टी मिलती है, जबकि छात्र और शिक्षक काम करते हैं – जो आत्मनिर्भरता को लेकर गांधी के विचारों का एक उदाहरण है।

गांधी और टैगोर की मुलाकात

1915 से पहले ही टैगोर विश्व प्रसिद्ध हो चुके थे। उन्होंने 1913 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता था और पश्चिम में उनकी धूम मची हुई थी। हालांकि, गांधी को अभी भी वह नेता बनने में समय था, जो अंततः वह बने।

लेकिन ऐसा नहीं है कि टैगोर गांधी के बारे में बिल्कुल नहीं जानते थे। टैगोर के बड़े भाई ज्योतिरींद्रनाथ 1901 में गांधी से मिले थे। मुलाकात के बाद गांधी द्वारा लिखा गया एक लेख टैगोर परिवार की पत्रिका भारती में भी प्रकाशित हुआ।

टैगोर को ब्रिटिश समाज सुधारक और एक कॉमन फ्रेंड सीएफ एंड्रयूज ने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के काम से अवगत कराया था। यह एंड्रयूज ही थे जिन्होंने 1915 में गांधी की वापसी के बाद शांतिनिकेतन में बैठक की व्यवस्था की थी, जहां दोनों की पहली बार मुलाकात हुई।

शांतिनिकेतन की स्थापना टैगोर ने एक आवासीय विद्यालय और कला केंद्र के रूप में की थी। यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज लिस्ट में शांतिनिकेतन के बारे में लिखा है कि “यह (विद्यालय) प्राचीन भारतीय परंपराओं, धार्मिक और सांस्कृतिक सीमाओं से परे मानवता की एकता की दृष्टि पर आधारित है।”

6 मार्च की बैठक का विवरण दुर्लभ है। गांधी के सहयोगी काका कालेलकर के ऐसे ही एक वृत्तांत में दोनों की विपरीत उपस्थिति का उल्लेख किया गया है। कालेलकर ने लिखा है, “उनका (टैगोर का) लंबा, आलीशान शरीर, उनके चांदी जैसे बाल, उनकी लंबी दाढ़ी, उनका प्रभावशाली चोगा… एक शानदार छवि उभर रही थी। दूसरी तरफ गांधी थे, अपनी छोटी धोती और साधारण कुर्ते में, कश्मीरी टोपी लगाए खड़े। यह ऐसा दृश्य था मानो शेर चूहे का सामना कर रहा हो।”

दोस्ती और मतभेद, दोनों गहरे

पहली मुलाकात के बाद से ही गांधी-टैगोर की दोस्ती परवान चढ़ने लगी। वे घनिष्ठ पत्र मित्र बन गये और आने वाले वर्षों में कई बार मिले। हालांकि, यह बिल्कुल एक जैसे विचार वाले दो लोगों की दोस्ती नहीं थी। दोनों हर तरह की बातों पर एक-दूसरे से असहमत थे।

द महात्मा एंड द पोएट के परिचय में लिखा, “बुनियादी दार्शनिक सवालों पर उनके बीच मतभेद थे, जिसके कारण कई राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों पर विवाद हुआ।”