देश स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की 127वीं जयंती (23 जनवरी, 2024) मना रहा है। आजादी की लड़ाई में बोस ही वह नेता थे, ज‍िन्‍होंने महात्‍मा गांधी को ‘राष्‍ट्रप‍िता’ कहा था। दोनों के बीच संबंधों को लेकर जब एक बार बोस की बेटी अनीता बोस से जब एक बार पूछा गया था तो उन्‍होंने गांधी को एक चतुर नेता बताया था।

“गांधी संत नहीं थे”

महात्मा गांधी और बोस के संबंध को लेकर सवाल पूछे जाने पर अनीता ने कहा, “कुछ मायनों में दोनों के विचार समान थे। लेकिन हर चीज को लेकर ऐसा नहीं था। 1930 के दशक में गांधीजी ने स्पष्ट रूप से उनके खिलाफ काम किया। अक्सर गांधी को एक संत के रूप में चित्रित किया जाता है, जो कि वह बिल्कुल भी नहीं थे। मेरी राय में वह बहुत चतुर राजनीतिज्ञ थे। वह एक वकील थे जो जानते थे कि सिस्टम पर कैसे काम करता है और लोगों को अच्छे के लिए किस तरह बदलना है। उन्होंने निश्चित रूप से मेरे पिता को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने को कहा। इसके बावजूद मेरे पिता उनका बहुत सम्मान करते थे। यह मेरे पिता ही थे जिन्होंने गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहा था।”

बोस प्रधानमंत्री बनते तो…

पिछले साल कर्नाटक भाजपा के नेता बासनगौड़ा पाटिल यतनाल ने सुभाष चंद्र बोस को भारत का पहला प्रधानमंत्री बताया था। हालांकि यह तथ्यात्मक रूप से गलत है। लेकिन गाहे-बगाहे ये सवाल उठता रहता है कि अगर जवाहरलाल नेहरू की जगह ‘नेताजी’ सुभाष चंद्र बोस आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो देश किस रास्ते पर जाता? उनकी प्राथमिकताएं क्या होती? देश में किस तरह का शासन होता?

साल 2005 में रेडिफ डॉट कॉम ने सुभाष चंद्र बोस की बेटी अनीता बोस से पूछा था कि अगर उनके पिता प्रधानमंत्री होते तो भारत कैसा होता? अनीता ने बताया कि अगर ऐसा होता तो उनके पिता शिक्षा और महिलाओं के अधिकारों को प्राथमिकता देते।

वह कहती हैं, “कुछ चीजें जिन्हें मेरे पिता ने बहुत पहले ही पहचान लिया था, अगर वह होते तो शायद उन नीतियों पर पहले अमल किया गया होता।” वह उदाहरण से बताती हैं, “1930 के दशक में भी उन्होंने माना था कि जनसंख्या विस्तार भारत में एक समस्या पैदा करेगा। उन्होंने शिक्षा को देश की प्रमुख आवश्यकताओं में से एक माना। उन्होंने शिक्षा के प्रसार और शिक्षा में सुधार की दिशा में बहुत मजबूती से काम किया होता। क्या उन्होंने निरक्षरता को पूरी तरह समाप्त कर दिया होता? इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। वह इसके बहुत प्रबल समर्थक तो जरूर रहे होते।”

अनीता आगे कहती हैं, “वह महिलाओं की सक्रिय भागीदारी की पुरजोर वकालत करने वालों में से एक होते। निःसंदेह, इस दृष्टि से आज भारत एक बहुत ही पिछड़ा देश है। एक तरफ आपके पास एक ऐसा देश है जो सबसे पहले एक महिला को प्रधानमंत्री बनाने वाले देशों में से एक था। दूसरी ओर सामाजिक जीवन के कई क्षेत्रों में महिलाएं पिछड़ी हुई हैं। आपके यहां अभी भी पत्नी को जलाना और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है। मेरे पिता निश्चित रूप से महिलाओं के अधिकारों के लिए खड़े होने वालों में से एक होते।”

“नेहरू और बोस दोनों कांग्रेस के वामपंथी दल के हिस्सा थे”

नेहरू की नीतियों से बोस की नीति कितनी अलग होती इस पर वह कहती हैं कि दोनों कांग्रेस के वामपंथी दल का हिस्सा हुआ करते थे। अनीता बताती हैं, “इसकी तो केलव कल्पना ही की जा सकती है कि पहले चरण में भारत में द्विदलीय व्यवस्था होती या बहुदलीय व्यवस्था। वैसे भी कांग्रेस पार्टी ने 1947 से 1970 के दशक तक भारत पर शासन किया। कुछ समय के लिए जनता पार्टी रही, वह विविध हितों वाली पार्टियों का गठबंधन था। लेकिन जनता पार्टी बहुत लंबे समय तक सत्ता में नहीं रह पाई और कांग्रेस लौट आई। तमाम पॉलिटिकल फोर्स ने लोगों को कांग्रेस पार्टी को समर्थन करने को कहा, जिसके सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम हुए। सकारात्मक पक्ष यह है कि इससे स्थिरता का दौर तैयार हुआ। दूसरी ओर, यदि आपके पास एक पार्टी है जो बहुत प्रभावशाली है तो यह लोकतंत्र को मजबूत करने वाली स्थिति नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में बेहतर विचारों की प्रतिस्पर्धा एक जरूर चीज़ है। एक पार्टी के प्रभुत्व वाली व्यवस्था सुस्त और भ्रष्ट भी हो जाती है। यदि मेरे पिता वहां होते तो उनकी अलग राय होती। नेहरू को यदि आप स्वतंत्र भारत के बाद के अग्रणी व्यक्तित्व के रूप में देखें तो वह कांग्रेस के वामपंथी दल का हिस्सा हुआ करते थे। मेरे पिता भी ऐसे ही थे।”

अनीता आगे कहती हैं, “दोनों (नेहरू-बोस) वामपंथी दृष्टिकोण के थे, इसके बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर भारत में कोई बहुत वामपंथी पार्टी नहीं है। कोई सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी नहीं है, कोई सोशलिस्ट पार्टी नहीं है। भारत में कम्युनिस्ट पार्टियां हैं जो क्षेत्रीय रूप से मजबूत हो सकती हैं, जैसे कि बंगाल और केरल में। लेकिन ऐसी सोशलिस्ट पार्टियां नहीं हैं जो केंद्र में यूरोप की तरह मजबूत हों।”

बोस ने हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की कांग्रेस में बंद कर दी थी एंट्री

सुभाष चंद्र बोस द्वारा लिखी बातों से पता चलता है कि वह हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठनों के प्रबल विरोधी थे। कांग्रेस अध्यक्ष रहने के दौरान बोस ने पार्टी में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के लोगों एंट्री बैन कर दी थी। 4 मई 1940 को बोस ने इस मुद्दे पर अपनी पत्रिका फॉरवर्ड ब्लॉक ‘कांग्रेस और सांप्रदायिक संगठन’ नामक एक लेख लिखा था।

लेख में बोस ने लिखा था, “एक समय था… जब कांग्रेस के प्रमुख नेता हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठनों के सदस्य और नेता हो सकते थे। उन दिनों ऐसे साम्प्रदायिक संगठनों की साम्प्रदायिकता दबे चरित्र की थी। इसलिए लाला लाजपत राय हिंदू महासभा के नेता हो सकते थे और अली ब्रदर्स मुस्लिम लीग के नेता हो सकते थे… लेकिन अब ये सांप्रदायिक संगठन पहले से भी अधिक सांप्रदायिक हो गए हैं। इसलिए, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने संविधान में इस विषय पर एक खंड जोड़ा है, कि हिंदू महासभा या मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठन का कोई भी सदस्य कांग्रेस की निर्वाचित समिति का सदस्य नहीं हो सकता है।”

नेहरू ने अपने साथ रहने के लिए किया था आमंत्रित

अनीता के पास ऑस्ट्रिया की राष्ट्रीयता है। हालांकि वह 1960 के दशक से अब तक कई बार भारत आ चुकी हैं। 1960-1961 में भारत प्रवास के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने उन्‍हें कुछ समय के लिए अपने साथ रहने के लिए आमंत्रित किया था। वह लगभग एक सप्ताह नेहरू के यहां रहीं। बकौल अनीता इस दौरान दोनों ने बोस के बारे में बहुत सी बातें की। 

अनीता का नाम बोस और उनकी पत्नी एमिली शेंकल ने इटली के क्रांतिकारी नेता गैरीबाल्डी की ब्राज़ीली मूल की पत्नी अनीता गैरीबाल्डी के सम्मान में रखा था। अनीता एक मशहूर अर्थशास्त्री हैं। वह पहले ऑग्सबर्ग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होने के साथ-साथ जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में राजनेता भी रह चुकी हैं।