अंग्रेजों के खिलाफ भड़के 1857 (Revolt of 1857) के सैनिक विद्रोह का नेतृत्व करने के कारण मुगल साम्राज्य के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर (Bahadur Shah Zafar) को अपनी जिंदगी का अंतिम वक्त कैद में काटना पड़ा था। ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें दिल्ली से गिरफ्तार कर बर्मा (अब म्यांमार) के रंगून (Rangoon) भेज दिया था।
अक्टूबर 1862 के आखिर में जफर की हालत एकदम बिगड़ गई थी। ना वह निगल पा रहे थे और न ही खाना हज़म कर पा रहे थे। उनको चम्मच से सूप पिलाया जाता था लेकिन 3 नवंबर तक उसका भी गले से उतरना मुश्किल हो गया। इसके बाद उनके मौत की तैयारी की जाने लगी।
जिस घर में जफर को नजरबंद किया गया था, उसी के पीछे उन्हें दफन करने की तैयारी की गई। 7 नवंबर 1862 की सुबह पांच बजे आखिरी मुगल बादशाह का निधन हो गया।
15 दिन बाद दिल्ली पहुंची खबर
बहादुर शाह जफर की मौत की खबर दिल्ली 15 दिन बाद पहुंची थी। महान शायर मिर्ज़ा असदउल्लाह बेग ख़ान उर्फ ग़ालिब ने बादशाह के मौत की खबर अवध अखबार में पढ़ी। इसी दिन अंग्रेजों ने यह भी ऐलान किया था कि जामा मस्जिद आखिरकार दिल्ली के मुसलमानों को वापस दे दी जाएगी। विलियम डैलरिंपल (William Dalrymple) ने अपनी किताब ‘द लास्ट मुगल’ में इस दिन को याद करते हुए लिखा है, गालिब पर वैसे ही बहुत से हादसों और मौतों का सदमा था इसलिए उनकी प्रतिक्रिया बहुत खामोश और ठंडी थी।
उन्होंने बस इतना लिखा, ”7 नवंबर जुमे के दिन और 14 जमादुल-अव्वल को अबू जफर सिराजुद्दीन बहादुर शाह जफर को फिरंगियों और जिस्म की कैद से रिहाई मिल गई। इन्ना लिल्लाहि वइन्ना इलैहि राजिऊन (हम खुदा के पास से आए हैं और उसके पास ही वापस जाएंगे।)” प्रतिक्रिया सिर्फ ग़ालिब की ही ठंडी नहीं थी। हिंदुस्तानी और अंग्रेजी के किसी अखबार ने भी जफर की मौत पर विस्तार से नहीं लिखा था।
बादशाह की गिरफ्तारी के बाद बर्बाद हो गई थी दिल्ली!
दरअसल, बहादुर शाह जफर की गिरफ्तारी के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली में जमकर लूटपाट मचाई थी। ग़ालिब यह सब देख बहुत दुखी थे। वह जनवरी 1862 में अपने एक मित्र को लिखे खत में बताते हैं, ”अफसोस, मेरे प्यारे दोस्त, यह वह दिल्ली नहीं है जहां आप पैदा हुए थे, यह वह दिल्ली नहीं है, जहां आपने इल्म हालिस किया था, यह वह दिल्ली नहीं है जहां आप मुझसे पढ़ने आया करते थे।
यह वह दिल्ली नहीं है जहां मैंने जिंदगी के इक्यावन बरस बिताए। यह एक डेरा है। यहां मुसलमान या तो कारीगर हैं या अंग्रेजों के नौकर हैं। बाकी सब हिंदू हैं। गद्दी से हटा दिए गए बादशाह जफर की औलादें-जो तलवारों से बच गई हैं–पांच-पांच रुपया महीना पाती हैं। औरतों में जो बूढ़ी हैं, वह कुटनियां और जो जवान हैं, वह तवायफ बन गई हैं…”
नाली में मिली थी आखिरी मुगल बादशाह की हड्डियां
बहादुर शाह जफर की मौत के बाद उनके शव को ईंटों की कब्र में दफ्न कर दिया गया था। जनाजे में सिर्फ उनके बेटों और नौकरों को शामिल होने दिया गया था। कब्र का नामो-निशान मिटाने के लिए अंग्रेजों ने पूरी कोशिश की थी। लेकिन करीब 130 साल बाद 1991 में नाली की खुदाई के दौरान बहादुर शाह जफर की कब्र कथित तौर पर मिल गयी थी। खुदाई के दौरान उनकी हड्डियां बरामद होने की बात कही गई थी।