ऋतांश आज़ाद
1945 में 18 अगस्त को ताइवान में नेताजी सुभाषचंद्र बोस का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। पिछले कुछ सालों से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और RSS की ये कोशिश रही है कि सुभाषचंद्र बोस को हीरो के तौर पर पेश किया जाए। सितंबर 2022 में प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली में इंडिया गेट पर सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति का अनावरण किया।
2018 में पीएम मोदी नेताजी की तरह की टोपी पहने नज़र आए थे। उनसे जुड़ी तारीखों को याद करने की सरकारी घोषणाएं भी होती रही हैं। ये भी कहा गया कि पिछली सरकारों के द्वारा उन्हें सम्मान नहीं दिया गया था।
माना जाता है कि ये सारी कवायद महापुरुषों की विरासत पर दावा ठोकने की बीजेपी और आरएसएस की सुनियोजित पहल का ही हिस्सा हैं। लेकिन सवाल है कि क्या सुभाषचंद्र बोस की विचारधारा बीजेपी/RSS के विचारों से मेल खाती है? इसे जानने के लिए हमें नेताजी के लेख और उनके कामों को देखना चाहिए। अगर हम ऐसा करेंगे तो हम पाएंगे कि सुभाषचंद्र बोस RSS/बीजेपी की विचारधारा के कट्टर विरोधी थे। आइए देखते हैं!
सुभाषचंद्र बोस ने अपनी किताब द इंडियन स्ट्रगल (The Indian struggle) के “सितम्बर 1939 से अगस्त 1942 तक” नामक अध्याय में लिखा है कि जब उन्होंने मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना और हिन्दू महासभा के नेता सावरकर से आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा बनने को कहा तो जिन्ना तब केवल यही सोच रहे थे कि अंग्रेज़ों की मदद से भारत के विभाजन की अपनी योजना कैसे साकार की जाए। भारतीय स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस के साथ संयुक्त लड़ाई लड़ने का विचार उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं आया। हालांकि मैंने उन्हें सुझाव दिया कि इस तरह के एकजुट संघर्ष की स्थिति में, जिन्ना ही स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री होंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि सावरकर अंतरराष्ट्रीय स्थिति से अनभिज्ञ थे और केवल यह सोच रहे थे कि भारत में ब्रिटेन की सेना में प्रवेश करके हिंदू सैन्य प्रशिक्षण कैसे प्राप्त कर सकते हैं। इन साक्षात्कारों से, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
यहाँ सुभाषचंद्र बोस की इन दोनों सांप्रदायिक संगठनों पर राय साफ देखी जा सकती है। इसके अलावा यहां सुभाषचंद्र बोस यह भी चिन्हित कर रहे हैं कि सावरकर जो कि हिन्दू महासभा के नेता थे और जिन्हें आज की बीजेपी अपना आदर्श मानती है, वे अंग्रेज़ी सेना में भारतीयों की भर्ती करा रहे थे ! बता दें कि आज की बीजेपी इसी हिन्दू महासभा की वैचारिक वंशज है।
सुभाषचंद्र बोस इन संगठनों के इतने प्रबल विरोधी थे कि 1938 में जब वे कांग्रेस अध्यक्ष बने तो उन्होंने हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के लोगों की कांग्रेस में एंट्री बंद कर दी थी। उन्होंने इस मुद्दे पर अपनी पत्रिका फॉरवर्ड ब्लॉक में 4 मई 1940 को ‘कांग्रेस और सांप्रदायिक संगठन’ नामक एक लेख लिखा। इसमें सुभाषचंद्र बोस लिखते हैं “एक समय था… जब कांग्रेस के प्रमुख नेता हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठनों के सदस्य और नेता हो सकते थे। उन दिनों ऐसे साम्प्रदायिक संगठनों की साम्प्रदायिकता दबे चरित्र की थी। इसलिए लाला लाजपत राय हिंदू महासभा के नेता हो सकते थे और अली ब्रदर्स मुस्लिम लीग के नेता हो सकते थे… लेकिन अब ये सांप्रदायिक संगठन पहले से भी अधिक सांप्रदायिक हो गए हैं। इसलिए, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने संविधान में इस विषय पर एक खंड जोड़ा है, कि हिंदू महासभा या मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठन का कोई भी सदस्य कांग्रेस की निर्वाचित समिति का सदस्य नहीं हो सकता है।”
इसी तरह नवंबर 1944 को टोक्यो यूनिवर्सिटी में दिए गए एक भाषण में नेताजी ने कहा था “मैं एक मित्रतापूर्ण चेतावनी देना चाहूंगा कि ब्रिटिश प्रचार दुनिया को यह धारणा देने की कोशिश करता है कि भारत के मुसलमान स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन नहीं करते हैं। यह गलत है। अक्सर आप अखबारों में मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा जैसे कुछ संगठनों के बारे में पढ़ते हैं। अंग्रेज इन संगठनों को बढ़ावा देते हैं क्योंकि इनकी नीति ब्रिटिश समर्थन की है और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के खिलाफ है। वे यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि मुस्लिम लीग भारत के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन वह ब्रिटिश दुष्प्रचार है। तथ्य यह है कि मुस्लिम लीग और उसके नेता जिन्ना भारतीय मुसलमानों के सिर्फ एक अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। अधिकांश भारतीय मुसलमान राष्ट्रवादी हैं और वे आज़ादी के आंदोलन का उतना ही समर्थन करते हैं जितना और कोई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष एक मुस्लिम व्यक्ति हैं और कांग्रेस के कई अन्य सदस्य भी मुस्लिम हैं, जिनमें से कई आज जेल में हैं।”
इसी तरह नेताजी ने अगस्त 1942 में छपे अपने लेख ‘Free India and her problems’ में भी इन दोनों सांप्रदायिक दलों को अंग्रेज़ों की समर्थक पार्टियां कहा था! यानी सुभाषचंद्र बोस न सिर्फ हिन्दू महासभा, RSS और मुस्लिम लीग की राजनीति के कट्टर विरोधी थे बल्कि उन्हें अंग्रेज़परस्त भी मानते थे!
इसी मुद्दे पर पूर्व सांसद तथा CPI(M) की पॉलित ब्यूरो सदस्य सुभाषिनी अली (जो सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज की नेता डॉ. लक्ष्मी सहगल की बेटी भी हैं) ने लिखा है “जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा में शामिल हुए, तो उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि एक बार बोस उनसे मिले थे और कहा था कि, यदि तुम हिन्दू महासभा को एक राजनीतिक दल के रूप में गठित करते हो तो मैं देखूंगा, (कैसे गठित करते हैं)। यदि आवश्यकता पड़ी तो बल प्रयोग से भी इसे तोड़ डालूंगा।”
RSS/जनसंघ के नेता बलराज माधोक ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जीवनी में बताया है कि सुभाषचंद्र बोस के लोगों ने हिन्दू महासभा के कई कार्यक्रमों को बलपूर्वक रोका भी था।
इन तथ्यों से पता चलता है कि नेताजी सांप्रदायिक राजनीति के कितने कट्टर विरोधी थे। कुछ और उदाहरण यहां पेश करना चाहता हूं । 1941 में नेताजी ने जब आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया तो उसके झंडे के बीच में एक बाघ की तस्वीर थी। ये बाघ टीपू सुल्तान का बाघ था! सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के उदेश्य उर्दू के तीन शब्द इत्तेफाक, एतमाद और कुर्बानी थे। ये नेताजी के सचिव आबिद हसन ही थे जिन्होंने आज़ाद हिन्द फौज को ‘जय हिन्द’ का नारा दिया। INA के तीन बड़े अफसर जिन्हें कैद किया गया और जो INA पर हुए मुकदमों के मुख्य अभियुक्त बने उनके नाम थे कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों जो सिख थे, मेजर जनरल शाहनवाज खान जो मुसलमान थे और कर्नल प्रेम सहगल जो हिन्दू थे।
ये सभी उदाहरण उनकी धर्मनिरपेक्ष राजनीति की गवाही दे रहे हैं। लेकिन नेताजी न सिर्फ धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पक्षधर थे बल्कि वे वामपंथी भी थे! आज जहां अदानी, अंबानी को सरकार संपत्ति बेच रही है, वहीं नेताजी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ थे!
5 अप्रैल 1931 को सुभाषचंद्र बोस ने भगत सिंह के बनाए संगठन नौजवान भारत सभा की कराची में हुई एक कॉन्फ्रेंस में भाषण दिया था। ये भाषण भगत सिंह और उनके साथियों की 31 मार्च 1931 को हुई शहादत के बाद दिया गया था। इसमें उन्होंने कहा “मैं भारत में समाजवादी गणतंत्र चाहता हूं। मुझे जो संदेश देना है वह सम्पूर्ण स्वतंत्रता का संदेश है।”
इसी भाषण में आगे कहते हैं, “मेरा मानना है कि जिस कार्यक्रम से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है वह है: (1) समाजवादी कार्यक्रम पर किसानों और मज़दूरों को संगठित करना (2) सख्त अनुशासन के तहत स्वयंसेवी संगठन में युवाओं को संगठित करना (3) जाति व्यवस्था का खात्मा और सभी प्रकार के सामाजिक और धार्मिक अंधविश्वासों का खात्मा (4) महिलाओं संघों का गठन जो कि इस नई विचारधारा को समझें और इस नए कार्यक्रम पर काम करें (5) ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार का कार्यक्रम (6) नये संगठन एवं कार्यक्रम के प्रचार के नये साहित्य का उत्पादन।”
इसी तरह 1938 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद हरिपुरा में दिए अध्यक्षीय भाषण में सुभाषचंद्र बोस ने कहा, “मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि गरीबी, अशिक्षा और बीमारी के खात्मे और वैज्ञानिक उत्पादन व वितरण से संबंधित हमारी मुख्य राष्ट्रीय समस्याओं को केवल समाजवादी आधार पर ही प्रभावी ढंग से निपटाया जा सकता है।”
ऊपर दर्ज की गई बातों से ये साफ हो जाता है कि सुभाषचंद्र बोस धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी राजनीति के पक्षधर थे। साथ ही वे RSS की सांप्रदायिक विचारधारा का पुरज़ोर विरोध करते थे।
अब आखिरी बात। आज संघ उन्हें गांधी जी और नेहरू के खिलाफ खड़ा करने की कोशिशों में लगा रहता है। निसन्देह उनके गांधी जी और नेहरू से मतभेद थे। लेकिन वे मतभेद उस तरह के नहीं थे जैसे RSS और गांधी या नेहरू के बीच थे। 1939 में जब सुभाषचंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की, तो उसका मकसद कांग्रेस के भीतर वामपंथी रुझान को मज़बूत करना था और यहां उनका गांधी से मतभेद था। उनका मतभेद जन विद्रोह के समय और संघर्ष के तरीकों लेकर भी था। लेकिन बाद में वे सुभाषचंद्र बोस ही थे जिन्होंने 6 जुलाई 1944 को एक रेडियो संदेश में गांधी को ‘राष्ट्र पिता’ की उपाधि दी और भारत छोड़ो आंदोलन को समर्थन किया। वे बोस ही थे जिन्होंने अपनी बनाई गई आज़ाद हिन्द फौज में सैनिक टुकड़ियों के नाम ‘गांधी ब्रिगेड ‘, ‘नेहरू ब्रिगेड’ और अबुल कलाम आज़ाद के नाम पर ‘आज़ाद ब्रिगेड’ रखा।
इन सभी बातों से ये यह साफ है कि RSS और बीजेपी का सुभाषचंद्र बोस की विरासत पर दावा करना बेबुनियाद है। युवा पीढ़ी से निवेदन है कि वे किसी के झांसे में न आकर खुद नेताजी सुभाषचंद्र बोस को पढ़ें और उनके सपनों का भारत को बनने में योगदान दें। यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।