श्रीलंका की राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक बर्बादी के लिए वहां की बहुसंख्यकवादी दक्षिणपंथी राजनीति को भी जिम्मेदार बताया जा रहा है। श्रीलंका में नफरत की इस राजनीति की नींव स्वतंत्रता के साथ ही पड़ गयी थी। फरवरी 1948 में श्रीलंका अंग्रेजों की डेढ़ सौ साल की गुलामी से आजाद हुआ था। आजादी के तुरंत बाद सिंहली प्रभुत्व वाली सरकार ने संसद में ‘सीलोन नागरिकता अधिनियम’ नामक एक विवादास्पद कानून पारित किया था। पहले श्रीलंका का नाम सीलोन था। 1972 में उसे बदलकर लंका कर दिया गया। 1978 में लंका के आगे सम्मान सूचक शब्द ‘श्री’ जोड़ा गया, जिससे देश का नाम श्रीलंका हो गया।
भारतीय मूल के तमिल बने शरणार्थी : ऊपरी तौर पर ‘सीलोन नागरिकता अधिनियम’ का मकसद नागरिकता प्राप्त करने के लिए साधन उपलब्ध कराना था। लेकिन उसका असली एजेंडा भारतीय मूल के तमिलों को नागरिकता से वंचित करना था। उस कानून ने भारतीय मूल के तमिलों और श्रीलंकाई तमिलों को अलग-अलग जातीय समूह के रूप में चिन्हित करते हुए, भारतीय मूल के तमिलों के लिए नागरिकता लेना असंभव बना दिया। संसद में सीलोन भारतीय कांग्रेस ने इस कानून का विरोध किया था। बावजूद इसके 15 नवंबर 1948 को यह कानून लागू हो गया।
एक झटके में तकरीबन 700,000 तमिलों की नागरिकता खत्म हो गयी, वो राज्यविहीन हो गए। यह कानून स्पष्ट रूप से उन भारतीय मूल के तमिलों के साथ भेदभाव करने वाला था, जो पिछली तीन-चार पीढ़ियों से श्रीलंका में रहते आए थे। उनके पूर्वजों को अंग्रेज भारत से श्रीलंका चाय बागानों में काम करने लिए ले गए थे।
विवादास्पद कानून से शरणार्थी बन गए तमिलों की वापसी के लिए सन् 1964 में भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और श्रीलंका के प्रधानमंत्री सिरिमावो भंडारनायके के बीच समझौता हुआ, जिसके तहत 300,000 तमिलों को श्रीलंका की नागरिकता दी जानी थी। सिरिमा-शास्त्री संधि अपने उद्देश्य को पूरा करने में असफल रहा। 1974 में इंदिरा गांधी की तरफ से भी इस दिशा में प्रयास किया गया था, तब 150,000 भारतीय तमिलों को श्रीलंका की नागरिकता देने पर समझौता हुआ था लेकिन उसका हाल भी सिरिमा-शास्त्री संधि जैसा ही हुआ।
जब तमिलों का हुआ नरसंहार : साल 2009 में राष्ट्रपति रहते हुए महिंदा राजपक्षे ने तमिल विद्रोही गुट लिट्टे को खत्म करने के नाम पर आम तमिल नागरिकों पर जमकर बर्बरता करवाई थी। तब गोटबाया रक्षा मंत्री हुआ करते थे। पत्रकारों और संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों का अनुमान है कि गृहयुद्ध में मारे गए लोगों की संख्या 40,000 से 70,000 के बीच हो सकती है, जो 12,000 के आधिकारिक सरकारी अनुमान से कहीं अधिक है। उस रक्तरंजित अध्याय के बाद भी राजपक्षे परिवार ने सिंहल-बौद्ध राष्ट्रवाद की राजनीति जारी रखी, जिसका परिणाम आज श्रीलंका भुगत रहा है।
अल्पसंख्यक समुदाय को बाहरी घोषित करने से शुरू हुई इस देश की यात्रा का कठिन होना स्वाभाविक है। नागरिकता अधिनियम ने जातीय मतभेदों को श्रीलंका की आम जनता के वजूद का हिस्सा बना दिया। यही वजह है कि वहां की राजनीतिक व्यवस्था सिंहली बहुमत की तरफ झुकती ही चली गयी। श्रीलंका की दोनों प्रमुख पार्टियां यूनाइटेड नेशनल पार्टी और श्रीलंका फ्रीडम पार्टी सिंहली-प्रभुत्व वाली हैं। ये दोनों पार्टियां बहुसंख्यक (सिंहली) मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए अल्पसंख्यक समुदायों (मुस्लिम, तमिल, आदि) को निशाना बनाती रही हैं। इनकी नीतियों ने वहां की जनता को बार-बार हिंसा और गृहयुद्ध जैसी स्थितियों में धकेलने का काम किया।