साल 2000 की बात है। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार थी। महाराष्ट्र से भाजपा-शिवसेना की सरकार जा चुकी थी और कांग्रेस-एनसीपी की सरकार आ चुकी थी। उपमुख्यमंत्री और गृह मंत्री का प्रभार मिला था शिवसेना के बागी ओबीसी नेता छगन भुजबल को, जिन्होंने 1991 में कांग्रेस ज्वाइन कर लिया था।

कांग्रेस-एनसीपी सरकार में शक्तिशाली मंत्रालय संभाल रहे भुजबल को 1997 में शिवसेना से मिला जख्म याद था। कमरे में बंद होकर जान बचाना याद था। अपने गुरु बाल ठाकरे से बदला लेने का इससे अच्छा मौका उनके लिए हो नहीं सकता था।

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गुरु को गिरफ्तार करने भुजबल ने भेजी पुलिस

छगन भुजबल मुंबई की भायखला मंडी में सब्जी बेचा करते थे। 60 के दशक की आखिर में उन्होंने बाल ठाकरे का भाषण सुनकर शिव सैनिक बनने की ठान ली। ओबीसी समुदाय पर अच्छी पकड़ और धारदार भाषण की बदौलत भुजबल बाल ठाकरे से सबसे करीबी शिष्य बनें। लेकिन समय ने रिश्ते को बदल दिया था। भुजबल अब अपने गुरु को गिरफ्तार करवाना चाहते थे।

वजह बनाया गया 1992-93 के मुंबई दंगों के दौरान ‘सामना’ में छपे संपादकीय को। ठाकरे पर आरोप था कि उन्होंने भड़काऊ संपादकीय लिखकर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी बढ़ाई। इस मामले में ठाकरे को गिरफ्तार करने के लिए सरकार की मंजूरी जरूरी थी। भुजबल ने भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी। यह एक गैर-जमानती अपराध है यानी ठाकरे की गिरफ्तारी तय थी। भुजबल के फैसले से राज्य का माहौल तनावपूर्ण हो गया।

पुलिस को चिंता थी कि अगर ठाकरे को गिरफ्तार किया गया तो हिंसा भड़क जाएगी। तत्कालीन अटल बिहारी सरकार के केंद्रीय कानून मंत्री राम जेठमलानी ने प्रेस से बात करते हुए कहा कि ठाकरे के खिलाफ मामला समयबद्ध था, इसलिए उनपर कार्रवाई नहीं हो सकती। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि केंद्र सरकार जरूरत पड़ने पर संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत महाराष्ट्र राज्य विधानमंडल को भंग कर सकती है। दरअसल, खुद प्रधानमंत्री वाजपेयी ने ही जेठमलानी से यह सुनिश्चित करने को कहा था कि ठाकरे को गिरफ्तार न किया जाए।

राम जेठमलानी विवाद

21 जुलाई 2000 को जब सुनवाई के लिए मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया, तो चीफ़ जस्टिस ए एस आनंद स्पष्ट रूप से परेशान थे। उन्होंने अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी से कहा, ‘यह दुखद है’ कैबिनेट मंत्रियों द्वारा टिप्पणी की जाती है, जबकि आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की मांग करने वाली एक याचिका देश के उच्चतम न्यायालय के समक्ष लंबित है।

न्यायाधीश विशेष रूप से इसलिए नाराज थे क्योंकि सरकार हलफनामे में कुछ और कह रही है और मंत्री प्रेस में कुछ दूसरी बात कर रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश आनंद ने पूछा, सरकार के पास सामूहिक जिम्मेदारी जैसी कोई चीज है या नहीं? क्या यह सभ्य सरकार चलाने का तरीका है? कोर्ट को कुछ बताना और जनता से कुछ कहना।

दरअसल कांग्रेस सरकार ने मुंबई दंगे की जांच के लिए श्रीकृष्ण आयोग का गठन किया था। 1995 में महराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनने के बाद आयोग को भंग कर दिया गया। सरकार के इस कदम को बॉम्बे हाईकोर्ट में पीआईएल के जरिए चुनौती दी गई। जिसके बाद मजबूरी में सरकार को आयोग बहाल करना पड़ा। लेकिन अब इस आयोग की जिम्मेदारी सिर्फ 1992 के दंगों की जांच करनी नहीं थी, इसे 1993 के बम विस्फोटों पर भी रिपोर्ट देनी थी। आयोग के सामने कुल 2126 हलफनामे भरे गए, इसमें से दो सरकार ने भरे।

अधिवक्ता अभिनव चंद्रचूड़ ने ‘सोली सोराबजी: लाइफ एंड टाइम्स’ नाम से अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी के जीवन पर आधारित पुस्तक लिखी है। इस किताब में दावा किया गया है कि मुख्य न्यायाधीश आनंद की टिप्पणी के बाद सोराबजी ने मंत्री का बचाव नहीं किया। अभिनव चंद्रचूड़ लिखते है कि उनका ऐसा करना बिल्कुल सही था। मंत्रियों ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी ही सरकार के हलफनामे का खंडन किया था, जो गलत था।

हालांकि राम जेठमलानी ने तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने प्रेस से कहा, ”विद्वान मुख्य न्यायाधीश को कम से कम यह एहसास होना चाहिए था कि वह एक ऐसे मंत्री के बारे में टिप्पणी कर रहे है जो कानून अच्छी तरह से जानता है।”

यह टिप्पणी करने के तुरंत बाद जेठमलानी को विदेश मंत्री जसवंत सिंह का फोन आया। उन्होंने जेठमलानी को बताया कि प्रधानमंत्री वाजपेयी चाहते हैं कि वे इस्तीफा दें। जेठमलानी ने ऐसा ही किया और उनकी जगह अरुण जेटली को कानून मंत्री बना दिया गया। इसके बाद नाराज जेठमलानी ने मीडिया को साक्षात्कार दिए और एक किताब लिखी जिसमें उन्होंने सोराबजी और मुख्य न्यायाधीश आनंद के खिलाफ कई आरोप लगाए।

राम जेठमलानी ने अपनी किताब ‘बिग इगोज, स्मॉल मेन’ में अटॉर्नी जनरल रहे सोली सोराबजी पर जमकर निशाना साधा है। उन्होंने आरोप लगाया है कि अरुण जेटली के साथ सोराबजी के अच्छे संबंध थे इसलिए उन्हें कानून मंत्रालय से हटाने के लिए सोराबजी ने साजिश की।

दरअसल चीफ जस्टिस से विवाद के बाद तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने राम जेठमलानी से इस्तीफा ले लिया था। और उनकी जगह अरुण जेटली को कानून मंत्री बनाया गया था। तब अटॉर्नी जनरल के रूप में सोली सोराबजी कार्यरत थे।

जेठमलानी इस बात से नाखुश थे कि सोराबजी अदालत में उनके लिए उस वक्त खड़े नहीं हुए जब मुख्य न्यायाधीश आनंद ने कड़ी टिप्पणी की। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कानून मंत्री की जगह अटॉर्नी जनरल को चुना।

जेठमलानी ने इस बात को लेकर भी उंगली उठाई कि भारत का अटॉर्नी जनरल रहते हुए सोराबजी ने हिंदुजा ब्रदर्स को सलाह क्यों दी। हिंदुजा भाइयों में से एक का नाम बोफोर्स घोटाले में आया था। स्वीडिश कंपनी एबी बोफोर्स पर आरोप था कि उसने भारतीय सेना को हथियार बेचने का अनुबंध हासिल करने के लिए भारत के कुछ शीर्ष नेताओं को रिश्वत दी। हालांकि सोराबजी की सलाह का बोफोर्स मामले से कोई लेना-देना नहीं था। सलाह एक बिजली परियोजना से संबंधित था जिसे हिंदुजा ब्रदर्स ने आंध्र प्रदेश में स्थापित किया था।

सोराबजी ने इस काम के लिए विशेष रूप से केंद्रीय कानून मंत्री अरुण जेटली से अनुमति ली थी। जेठमलानी ने मीडिया को इशारों-इशारों में यह भी बताने की कोशिश की कि सोराबजी ने हिंदुजा ब्रदर्स को सलाह देने की एवज में अपनी फीस नकद में प्राप्त की थी, हालांकि यह सच नहीं था। इस बात को जेठमलानी ने अपनी किताब में भी स्वीकार किया है।

दरअसल जेठमलानी की असली शिकायत यह थी कि सोराबजी ने हिंदुजा ब्रदर्स को सलाह देने के लिए केवल कानून मंत्री से ही अनुमति क्यों ली। पूरे मंत्रिमंडल से क्यों नहीं ली। जेठमलानी का मानना था कि अटॉर्नी जनरल को कोई निजी काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए था, खासकर जब यह सरकार के खिलाफ हो।

सोराबजी ने प्रेस में अपना बचाव करते हुए कहा था कि जेठमलानी ने कानून मंत्री के रूप में बर्खास्त होने के बाद ही इन सभी शिकायतों को उठाया। उन्होंने कहा सार्वजनिक जीवन में प्रवेश के बाद से मैं आलोचना के लिए तैयार था लेकिन निंदा के लिए नहीं।

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