साल 1979 की बात है। नीम का थाना निवासी शिकायतकर्ता ने 2 मई को एक ट्रैक्टर खरीदा था। ट्रैक्टर शिकायतकर्ता के पिता के नाम पर पंजीकृत था, इसलिए वह ट्रैक्टर के पंजीकरण को बदलवाने के लिए सीकर स्थित जिला परिवहन कार्यालय (डीटीओ) पहुंचे।
डीटीओ कार्यालय में हरि नारायण बतौर क्लर्क तैनात थे, अब वह सेवानिवृत्त हो चुके हैं। शिकायतकर्ता का आरोप है कि हरि नारायण ने उनसे रिश्वत के रूप में 150 रुपये (अपने और अपने सहयोगियों अशोक जैन और मूलचंद प्रत्येक के लिए 50-50 रुपये) की मांग की थी।
निचली अदालत का फैसला
साल 1985 में निचली अदालत ने हरि नारायण को भारतीय दंड संहिता की धारा 161 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5(1)(डी), धारा 5(2) के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया था। कोर्ट ने हरिनारायण को तीन महीने की कैद और 500 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई।
हाईकोर्ट पहुंचा मामला
हरि नारायण ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ राजस्थान हाईकोर्ट (Rajasthan High Court) में अपील की। मामला अब तक चल रहा था। पिछले सप्ताह हाईकोर्ट ने इस 44 साल पुराने मामले में फैसला सुनाते हुए हरि नारायण को बरी कर दिया।
जस्टिस नरेंद्र सिंह ढड्डा (Justice Narendra Singh Dhadda) ने फैसला सुनाते हुए कहा, अभियोजन पक्ष ने केवल कथित दागी राशि बरामद की लेकिन रिश्वत की मांग को साबित करने में विफल रहा।
13 फरवरी को फैसला सुनाते हुए अदालत ने कहा, “अभियोजन की कहानी के अनुसार, शिकायतकर्ता द्वारा अपीलकर्ता को 150 रुपये दिए गए थे, लेकिन अभियोजन पक्ष रिश्वत की मांग और स्वीकृति को साबित करने में विफल रहा। केवल पैसे की वसूली इसे रिश्वत मानने का आधार नहीं हो सकती।”
बेंच ने यह भी कहा कि जांच अधिकारी ने जानबूझकर अशोक जैन और मूलचंद को छोड़ दिया और केवल अपीलकर्ता को बुक किया। बेंच ने कहा, “मेरी राय में ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को गलत तरीके से दोषी ठहराया। इसलिए ट्रायल कोर्ट के फैसले को अलग रखा जाना चाहिए।” हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को रद्द कर करते हुए हरि नारायण को बरी कर दिया।