गज़लों से लेकर हिंदी फिल्म के गीतों तक में अपनी आवाज़ का जादू बिखेरने वाले पंकज उधास का निधन (26 फरवरी, 2024) हो गया है। पंकज की बेटी नायाब उधास ने पिता के मौत की जानकारी सोशल मीडिया के माध्यम से दी है। दिग्गज गायक लंबे समय से बीमार थे और 10 दिनों से अस्पताल में थे। मूल रूप से चरखाड़ी (राजकोट, गुजरात) के जमींदार पर‍िवार से आने वाले पंकज उधास के दादा अपने गांव के पहले ग्रेजुएट थे।

पंकज उधास के गायक बनने की कहानी बेहद दिलचस्प है। 15 मई, 1951 को गुजरात के एक जमींदार परिवार में पैदा हुए पंकज उधास के पूर्वजों का गाने-बजाने से कोई ताल्लुक नहीं था। पंकज के दादा भावनगर स्टेट के महाराजा के डिप्टी दीवान थे। इसी वजह से पंकज के पिता अक्सर महाराजा के महल में जाया करते थे। वह सरकारी नौकरी में थे।

संसद टीवी को दिए एक इंटरव्यू में पंकज उधास ने बताया था कि महल में ही उनके पिता की मुलाकात उस ज़माने के एक मशहूर बीनकार अब्दुल करीम खां से हुई। खां साहब बीन बजाया करते थे। पंकज के पिता ने बीनकार से जिद की वह भी बीन बजाना सीखना चाहते हैं। लेकिन खां साहब इसके लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने पंकज के पिता को समझाया कि वह दीवान के बेटे हैं, इसलिए उनके लिए ये सब सीखना आसान नहीं होगा। लेकिन पंकज उधास के पिता नहीं माने। अंतत: उन्‍होंने खां साहब से द‍िलरुबा बजाना सीखा।

काम से लौटने के बाद पंकज के प‍िता बड़ी तल्‍लीनता के साथ द‍िलरुबा बजाया करते थे। उसकी आवाज पंकज को भी खूब भाती थी। हालांक‍ि, संगीत में उनकी कोई रुच‍ि नहीं थी। तब वह छह-सात साल के थे। पंकज की मां भी सुरीली आवाज की मालक‍िन थीं और पार‍िवार‍िक कार्यक्रमों में गाया करती थीं। इस तरह संगीतमय माहौल में पंकज की परव‍र‍िश हुई और तीनों भाइयों (मनहर और न‍िर्मल) का संगीत की दुन‍िया में पदार्पण हुआ।

इंटरव्यू में पंकज ने बताया था कि, “वालिद साहब जो साज बजाते थे, हम उसे उत्सुकतापूर्वक सुना करते थे। हम सोचते थे कि ये कैसे बजता है। मुझे लगता है वहीं से मेरी शुरुआत हुई। मेरे दो बड़े भाई हैं। मनहर और निर्मल। मनहर मुझसे आठ साल बड़े। पहले वह स्कूल में गाते थे। बाद में लोकल लेवल पर गाने लगे। हमारा बचपन राजकोट में गुजरा। वह राजकोट में गाते थे। हम देखने जाते थे। वह एक माहौल था म्यूजिक था। उस माहौल ने कहीं न कहीं हमें मुतअस्सिर किया।”

डॉक्टर बनना चाहते थे पंकज उधास

बचपन में पंकज उधास ने सोचा था कि वह बड़े होकर डॉक्टर बनेंगे। लेकिन उनके पिता ने उनके रुझान को समझा और सलाह दी। पंकज ने बताया था, “मैं डॉक्टर बनना चाह रहा था। मेरे पिता मेरा बहुत ध्यान रखते थे। वह बहुत ही संवेदनशील थे, शायद म्यूजिक की वजह से वह ऐसे हो गए थे। उन्होंने कई बार मुझसे कहा कि आप डॉक्टर बनना चाहते हैं तो बेशक बनिये। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि आप डॉक्टर ही बनें। आप डॉक्टर तभी बनें, जब आपको लगे कि आप डॉक्टर बनना चाहते हैं। शायद वह जान गए थे कि मेरा रुझान किस तरफ है। वह जान गए थे कि उनके बच्चे का दिन हारमोनियम बजाते या गाना गाते बीतता है। ये एक नेचुरल प्रोसेस था।”

पंकज उधास का करियर

पंकज उधास की शुरुआती जिंदगी भावनगर में बीती। बाद में उनका पूरा परिवार मुंबई आ गया। उन्होंने मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से बैचलर की डिग्री। साथ ही मास्टर नवरंग से इंडियन क्लासिकल की ट्रेनिंग ली।

तीनों भाइयों में सबसे छोटे, पंकज ने गुलाम कादर खान से 13 साल की उम्र में संगीत सीखना शुरू क‍िया। बाद में मुंबई में मास्‍टर नवरंग के शाग‍िर्द बने। तभी उन्‍हें पता चला क‍ि बड़े भैया मनहर एक मौलवी से उर्दू सीख रहे हैं। दरअसल, उन्‍हें कल्‍याणजी ने उर्दू सीखने की सलाह दी थी। यह जानने के बाद पंकज ने भी मौलवी साहब से उर्दू स‍िखाने की व‍िनती की। उनसे तालीम पाते हुए पंकज कव‍िता और शायरी की दुन‍िया में दाख‍िल हुए। उन्‍होंने मीर, उमर खय्याम और मिर्जा गाल‍िब को पढ़ा-समझा।

पंकज उधास को बॉलीवुड में पहला ब्रेक 1971 में ही म‍िल गया था। तब उन्‍हें ‘कामना’ फ‍िल्‍म में गाने का मौका म‍िला था। लेक‍िन, फ‍िर दूसरा मौका पाने के ल‍िए काफी पापड़ बेलने पड़े। पंकज उधास ने समझ ल‍िया क‍ि बॉलीवुड की गलाकाट प्रत‍ियोग‍िता में उन जैसे नए ख‍िलाड़ी का ट‍िकना आसान नहीं है। यह बात उन्‍हें दो साल के भीतर ही समझ आ गई थी। तब तक वह गजल गाने लगे थे और उन्‍होंने फैसला ल‍िया क‍ि अब केवल गजलों पर ही ध्‍यान देना है, बॉलीवुड के पीछे नहीं भागना है। वहां भी उन्‍हें काफी मशक्‍कत करनी पड़ी। लेक‍िन, 1980 में जब उनका पहला अलबम ‘आहट’ आया तो उनके ल‍िए सफलता के दरवाजे खुल गए। न केवल गजलों की दुन‍िया में, बल्‍क‍ि बॉलीवुड में भी। उसकी कामयाबी आलम यह हुआ कि 2011 तक उनकी 100 से ज्यादा गजल एल्बम मार्केट में छा गईं। इस दौरान उन्हें बेशुमार अवार्ड से नवाजा गया।

भारत-चीन युद्ध के दौरान दिया था पहला स्टेज परफॉर्मेंस

पंकज ने अपना पहला स्टेज परफॉर्मेंस अपने बड़े भाई मनहर उधास के साथ भारत-चीन युद्ध के दौरान दिया था। उन्होंने ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ गया था। साल 1986 पंकज उधास के लिए मील का पत्थर साबित हुए, जब उन्हें नाम फिल्म में ‘चिट्ठी आई है’ गाने का मौका मिला। इसके बाद घायल, मोहरा, साजन, ये दिल्लगी और फिर तेरी याद आई जैसी फिल्मों ने उनकी शोहरत में और इजाफा किया।

पंकज उधास की पहचान आम तौर पर ऐसे गजल गायक के रूप में होती है जो शराब और मयखाने से जुड़ी गजलें गाता है। लेक‍िन, उनकी यह पहचान बाजार की ‘साज‍िश’ का नतीजा है और इससे वह खुद बड़े नाखुश थे। साल 2001 में इस नाखुशी का इजहार उन्‍होंने एक इंटरव्‍यू में भी क‍िया था। तब पंकज उधास ने कहा था, ‘मेरी गाई हजारों गजलों में से महज 25 के करीब शराब पर हैं। अफसोस, क‍ि म्‍यूज‍िक कंपन‍ियों ने उन्‍हें ही कंपाइलेशन के ल‍िए चुना। यह मार्केट‍िंग का बुरा तरीका है। जब मैंने उन गजलों को र‍िकॉर्ड क‍िया था तो मुझे जरा भी अहसास नहीं था क‍ि ऐसा होगा।’

1980 के दशक में गजल गाय‍िकी की दुन‍िया में एक चलन था क‍ि एक ही मंच पर देश भर के गजल गायक अपनी आवाज की जादू ब‍िखेरा करते थे। 1983 से 1986 तक यह स‍िलस‍िला चला। फ‍िर बंद हो गया। पंकज उधास ने इसे फ‍िर से शुरू क‍िया। अब उनकी मौत के बाद एक बार फ‍िर गजल की दुन‍िया की यह रवायत भी दम न तोड़ दे।