Lyari Town Pakistan History: जहां हर मोड़ पर दहशत का माहौल था, जहां खुले बाजार में राजनीतिक सौदेबाजी चलती थी, जहां मॉर्निंग अलार्म नहीं गोलियों की तड़तड़ाहट से लोगों की सुबह होती थी, पाकिस्तान का ल्यारी वो सबकुछ था जो रणवीर सिंह की फिल्म धुरंधर में दिखाया गया है। फर्क सिर्फ इतना है कि वो सिनेमाई पर्दे पर दिखाई गई कुछ घटनाओं पर आधारित है, असल कहानी तो और ज्यादा खौफनाक, खूंखार और खूनी है।

कराची का सबसे पुराना शहर ल्यारी

ल्यारी कराची का सबसे पुराना शहर है। मछलीपालन यहां का मुख्य व्यापार रहा है। अफ़्रीकी मूल के भारतीय/पाकिस्तानी (शीदी) समुदाय की बड़ी आबादी इस क्षेत्र की पहचान है। इतिहास के पन्ने टटोलने पर पता चलता है कि 1200 से 1900 एडी के बीच बड़ी संख्या में पूर्वी अफ्रीका से आए गुलामों, नाविकों, सेवकों और व्यापारियों के वंशज ल्यारी में आकर बस गए। वर्तमान में भी बलूचिस्तान के मकरान तटरेखा और सिंध के निचले क्षेत्रों में इन लोगों की आबादी सबसे ज्यादा है।

ल्यारी की अलग ही बोली

इन लोगों की बोली ऐसी है कि कोई भी इन्हें आसानी से पहचान सकता है, ल्यारी में ना पंजाबी बोली जाती है, ना उर्दू बोली जाती है और ना ही सिंधी बोली जाती है। ये आबादी तो बलोची बोलती है, उसमें सिंधी तड़का होता है, मकरानी उर्दू होती है और अंग्रेजी शब्द काफी इस्तेमाल किए जाते हैं। जब भारत का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान अस्तित्व में आया, ल्यारी में डेमोग्राफी बदल गई। यहां पश्तूनों, सिंधियों और मोहाजिरों की आबादी बढ़ने लगी, साथ में मज़दूर वर्ग के अफ़ग़ान, बांग्लादेशी और बर्मी प्रवासी भी आकर बस गए।

इतना सबकुछ हुआ, लेकिन ल्यारी के विकास पर पाकिस्तानी हुकूमत की कभी नजर नहीं गई। कहने को ये कराची के इतने करीब बसा, लेकिन फिर भी गरीबी, असामनता और उपेक्षा से जूझता रहा। 1960 आते-आते पाकिस्तान का ल्यारी कोई विकसित शहर तो क्या बन पाया, उसने खुद के लिए एक नया तमगा हासिल किया- अर्बन स्लम

ल्यारी-यहां क्रिकेट नहीं फुटबॉल प्रेमी

इस अर्बन स्लम के शौक भी पूरे पाकिस्तान से काफी जुदा हैं, यहां क्रिकेट प्रेमी नहीं फुटबॉल के दीवाने मिल जाएंगे। यहां शोएब अख्तर की कहर बरपाती गेंदबाजी की चर्चा कोई नहीं करता, लेकिन पेले ने फुटबॉल में कौन से नए रिकॉर्ड बना दिए, ये जरूर पता होता है। कई बॉक्सिंग स्टार्स भी इसी ल्यारी ने पाकिस्तान को दिए हैं। यहां हर उस खेल ने तरक्की की है जिसकी बाकी पूरे पाकिस्तान में सिर्फ उपेक्षा होती है।

ल्यारी का इस्लाम उदारवादी है

ल्यारी में जिस इस्लाम धर्म का भी पालन होता है, वो उदारवादी दिखाई पड़ता है। यहां के रहने वाले लोगों को मकरानी समुदाय से भी जोड़कर देखा जाता है, ये बरेलवी विचारधारा से प्रेरित होते हैं। बरेलवी इस्लाम की ऐसी विचारधारा है जो तब अस्तित्व में आई जब कठोर और सख्त इस्लामी आंदोलनों का असर बढ़ रहा था। ये एक ऐसा इस्लाम है जिसे ज्यादा खुला माना जाता है, भारत-पाकिस्तान के दरगाहों की संस्कृति का एक खूबसूरत मिश्रण भी दिखता है। ल्यारी के लोग 12वीं शताब्दी के सूफी संत पीर मांगों के भक्त हैं, मंगोपीर में उनकी एक मशहूर दरगाह भी है जहां बड़ी संख्या में लोग आते हैं। इस दरगाह में एक बड़ा तालाब है जहां मगरमच्छों को खाना खिलाना पुण्य का काम माना जाता है।

ल्यारी की गलियों में गूंजता डिस्को

ल्यारी की गलियों में 1970 के बाद से संगीत ने भी दस्तक दी, अमेरिकन-यूरोपियन डिस्को म्यूजिक पर थिरकते बलूचियों ने सभी का ध्यान आकर्षित किया। छोटे-छोटे स्टूडियो बने, बलूच धुनों के साथ पश्चिमी म्यूजिक का संगम हुआ और ल्यारी की एक और पहचान दुनिया के सामने आई। इसके बाद सिंधी गायिका शाजिया खुश्क ‘लियारी डिस्को’ गाना लेकर आईं और रातोंरात ही ल्यारी का संगीत लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गया।

अब संगीत और संस्कृति अगर ल्यारी की फिजा बदल रही थी, राजनीतिक सरगर्मी यहां का तापमान बढ़ा रही थी। राजनीतिक गलियारों में एक बात आम थी- कराची पर कब्जा करना है तो ल्यारी जीतना जरूरी है। पाकिस्तान पीपल्स पार्टी यानी कि पीपीपी ने इस बात को गंभीरता से लिया था, उसका सबसे वफादार वोटबैंक इसी ल्यारी में बना। 1970 के आम चुनाव के बाद से लगातार ल्यारी में पीपीपी का बोलबाला रहा है, उनका घोषणा पत्र ऐसी योजनाओं से भरा रहा है जिसने ल्यारी की गरीब जनता का दिल जीता। वर्तमान में एमक्यूएम, एएनपी, सुन्नी तहरीक और कुछ दूसरी उग्र बलूच और सिंधी राष्ट्रवादी पार्टियों ने यहां अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है।

ल्यारी कैसे बना वोटबैंक की राजनीति?

अब जिन पार्टियों ने ल्यारी में अपना वोटर बेस बनाया है, उन्होंने ही इस धरती को सबसे ज्यादा लहूहुलान भी करवाया है। ल्यारी के चप्पे-चप्पे पर जिन गैंगस्टर्स का जिक्र मिलता है, उनके पालने-पोसने का काम इन नेताओं ने ही किया है। राजनीति में अपराधीकरण कैसे होता है, ल्यारी इसका सबसे सटीक उदाहरण है। ल्यारी का सबसे पहला गैंगस्टर काला नाग है। 1960 के दशक में ये सक्रिय हुआ था और ल्यारी में अफीम-चरस का धंधा चलाता था। उसने दो अन्य साथियों को ट्रेन किया- शेरू और डाडल। दोनों ही गोरख धंधों में पूरी तरह लिप्त थे और धीरे-धीरे काला नाग के बिजनेस को भी कब्जाना चाहते थे।

ल्यारी का सबसे पहला गैंगस्टर

इस लालच ने शेरू और डाडल को ही एक दूसरे के खिलाफ कर दिया और लड़ने के लिए दोनों ने अपनी गैंग बनाई। यह पहली बार था जब ल्यारी में दो गैंग आमने-सामने आईं और खूनी खेल शुरू हो गया। 1967 आते-आते काला नाग मारा गया, पुलिस से भागने की कोशिश कर रहा था और गोली का शिकार हुआ। अब काला नाग तो मर गया, लेकिन उसका बेटा अल्लाह बक्श पिता के नक्शे कदमों पर चला। उसने खुद को मार्केट में काला नाग 2 बताया। वो भी पिता की तरह अफीम का धंधा करता, शेरू और डाडल की गैंग से पंगा लेता और ऐसे ही ल्यागी गलियों में खून बहता रहा। फिर 1980 आया, पाकिस्तान के पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान में हालात बदलने लगे। उन बदले हालातों ने बड़ी संख्या में अफगानी शरणार्थियों को पाकिस्तान ला दिया, सभी ल्यारी में आकर बस गए।

गैंगवॉर का आगाज कहां से हुआ?

ये वो दौर था जब ल्यारी सिर्फ अफीम-चरस का धंधा नहीं कर रहा था, वहां अब हेरोइन भी आने लगा। गैंगवॉर जो पहले चाकुओं के सहारे जीती जा रही थीं, हाथों में अब आधुनिक हथियार आ चुके थे। गोलियों की तड़तड़ाहट ही बताने के लिए काफी थी कि खूनी खेल का एक अलग ही अध्याय ल्यारी लिख रहा था। अब हथियार नए आए थे तो समीकरण भी जमीन पर बदलने लगे। दोस्त दुश्मन बन बैठे और नई गैंग ल्यारी में खड़ी हो गईं। काला नाग 2 ने शेरू और डाडल को खत्म करने के लिए एक और गैंगस्टर इकबाल बाबू से हाथ मिलाया। शेरू-डाडल के नेटवर्क को ध्वस्त कर दोनों के सामने हाजी लालू नाम के एक दूसरे गैंगस्टर की चुनौती आ गई। यानी कि ल्यारी की गलियों में एक ही प्रतिस्पर्धा रह गई- बाबू बनाम लालू।

ल्यारी के गैंगवॉर में दिखा परिवारवाद

अब लालू को मारने के लिए बाबू ने हनीफ बजोला से मदद मांगी। वहीं लालू ने बाबू को खत्म करने के लिए डाडल के अनाथ बेटे को ट्रेनिंग देना शुरू कर दिया। डाडल का ही एक और बेटा तब तक सुर्खियों में आना शुरू हो चुका था, नाम था रहमान डकैत। वो गुस्से में था, उसके पिता डाडल को जिस तरह से खत्म किया, वो उसका बदला चाहता था। वो हर कीमत पर बाबू और काला नाग 2 को मारना चाहता था। अब रहमान डकैत बदले की आग से धधक रहा था, दूसरी तरफ लालू का बेटा अरशद पप्पू भी गैंगस्टर्स की दुनिया में एंट्री मार चुका था। यानी कि लालू बनाम बाबू के बाद अरशद पप्पू बनाम रहमान डकैत की लड़ाई शुरू हो गई थी। 10 सालों तक ल्यारी की गलियों में जितना भी खून-खराबा मचा, उसके जिम्मेदार यही दोनों रहे। इसी दौरान दोनों ने ही राजनीतिक पार्टियों के साथ साढ़-गाढ़ करना भी शुरू कर दिया, महत्वकांक्षाएं उबाल मार रही थीं, सपने देख लिए गए थे कि कराची पर कब्जा करना है, अपनी पसंद की सरकार पाकिस्तान में चाहिए।

रहमान डकैत और अरशद पप्पू का आतंक

रहमान डकैत और अरशद पप्पू ने पीपीपी और MQM के नेताओं के साथ संपर्क साधा और वहां से पाकिस्तान की राजनीति ने भी अलग रूप लिया। दोनों गुंडे इन पार्टियों को पैसा लाकर देते थे, बदले में इन्हें मिलती थी राजनीतिक शरण, आंतक मचाने की खुली छूट। रहमान डकैत ने तो एक कदम आगे बड़ पीपल्स अमन कमेटी बना डाली, सामने से तो इसे चैरिटी करने वाला संगठन बताया गया, लेकिन धीरे-धीरे ल्यारी में यही पीपीपी के लिए चुनौती भी बन गया। ऐसे में 2009 में जब पीपीपी फिर सत्ता में लौटी, पुलिस ने सबसे पहले रहमान डकैत को ही रास्ते से हटाया। लेकिन यहां चुनौती खत्म नहीं बल्कि शुरू हुई थी। रहमान के मारे जाने के बाद ल्यारी सियासी पिक्चर में अगला नाम आया उजैर बलूच का। ये रहमान का ही चचेरा भाई था, इसी ने पीपल्स अमन कमेटी की बाद में कमान संभाली।

जब ल्यारी में पुलिस की हुई नो एंट्री

उसका आतंक इतना ज्यादा बढ़ चुका था कि 2011 में आतंकवाद निरोधक कानून के तहत संगठन पर ही प्रतिबंध लग गया। लेकिन ये पाकिस्तान है जहां पर प्रतिबंध सिर्फ कागजों पर लगता है, जमीन पर कुछ नहीं बदलता। इसी वजह से बैन होने के बावजूद भी ल्यारी में खूनी खेल जारी रहा, उजैर और अर्शद पप्पू की गैंग एक दूसरे के सदस्यों को मौत के घाट उतारते रहे, हालात ऐसे बन गए कि पुलिस के लिए ही ल्यारी में इलाके ‘नो गो जोन’ घोषित हो गए। यहीं से पाकिस्तान सरकार की नींद टूटी और ऑपरेशन ल्यारी की शुरुआत हुई।

ऑपरेशन ल्यारी की शुरुआत

2013 में नवाज शरीफ की सरकार ने ल्यारी में हालात काबू में करने के लिए रेंजर्स को खुली छूट दे दी। इसका मतलब था कि हर कीमत पर इन गैंगस्टर्स को रोकना था। इसका असर देखने को मिला, हजारों की संख्या में अपराधी गिरफ्तार हुए, हथियारों की सप्लाई पर रोक लगी और गैंगवॉर की घटनाओं में कमी आनी शुरू हो गई। ये वो समय था जब पाकिस्तान की गलियों में गैंगस्टर्स के साथ एक और नाम काफी चलता था- एनकाउंटर स्पेशलिस्ट चौधरी असलम। ऑपरेशन ल्यारी जो तब सफल माना गया, उसमें उनका बड़ा हाथ रहा, लेकिन फिर 9 जनवरी 2014 को तालिबान के आत्मघाती हमले में वे मारे गए।

आज पाकिस्तान का ल्यारी कुछ शांत दिखाई देता है, गैंगवॉर के किस्से भी कम हुए हैं। लेकिन गरीबी, बेरोजगारी, सरकार की बेरुखी ने यहां आज भी अपराध की जड़ों को कमजोर नहीं किया है।