पी.आर. कुमारस्वामी

नवंबर 1938 की बात है। यूरोप पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। उन्हीं दिनों मोहनदास करमचंद गांधी ने कहा, “फिलिस्तीन अरबों का उसी प्रकार है जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों का या फ्रांस फ्रांसीसियों का है।” यह बयान महात्मा गांधी के सबसे ज्यादा उद्धृत बयानों में से एक है। लेकिन दिलचस्प यह है कि यह उनका सबसे गलत समझा गया बयान भी है।

वर्तमान में इजरायल और हमास के बीच जारी हिंसा ने इस उद्धरण को फिर से चर्चा में ला दिया है। इन पंक्तियों को उद्धृत करने वालों में से कुछ पूरी तरह से गैर-गांधीवादी हैं और विभिन्न प्रकार की राजनीतिक हिंसा का समर्थन करते हैं। कुछ लोग गांधी के एक वाक्य को उठाकर अन्य की आसानी से अनदेखी कर देते हैं।

कई लोगों ने 26 नवंबर, 1938 को हरिजन में प्रकाशित लेख – ‘द ज्यूज़’ – को पूरा नहीं पढ़ा होगा। यहां तक कि जिन लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधी को पूंजीपति वर्ग का सदस्य और ब्रिटिश एजेंट कह उनका मजाक बनाया, वे लोग फिलिस्तीन पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए गांधी के इस वाक्य का इस्तेमाल करते हैं।

सवाल उठता है कि क्या महात्मा गांधी फिलिस्तीन को लेकर उतने ही दृढ़ थे जितना कि विद्वानों, अभिजात वर्ग और पॉपुलिस्ट लोगों की भीड़ ने उन्हें चित्रित किया? क्या उन्होंने इस दलदल में उतरने से पहले मुद्दों को समझा था?

गांधी की स्वयं की स्वीकारोक्ति के अनुसार, उन्होंने यहूदी धर्म को ईसाई धर्म और यहूदियों के खिलाफ सदियों से चले आ रहे धार्मिक पूर्वाग्रहों के चश्मे से ही समझा। ब्रिटेन में वेस्ट कल्चर और दक्षिण अफ्रीका में यहूदी मित्रों के संपर्क में रहने के बावजूद, गांधी ने मातृभूमि के लिए यहूदियों की लालसा को कभी नहीं समझा, सराहना तो दूर की बात है।

गांधी और यहूदी नेताओं की मुलाकात

गांधी ने पवित्र भूमि (यरुसलेम) पर पैगंबर मोहम्मद के दिए उपदेशों को स्वीकार किया और उनका समर्थन किया। लेकिन इस्लाम-पूर्व यहूदी दावों को समान महत्व नहीं दिया।  

इसके अलावा, महात्मा गांधी के सौ खंडों के संग्रहित कार्यों (लेख, पत्र आदि) को ध्यान से पढ़ने पर कुछ दिलचस्प सच्चाइयों का पता चलता है। गांधी और यहूदी नेताओं की कई बैठकों के संदर्भ और विवरण Collected Works of Mahatma Gandhi में मिलते हैं। उदाहरण के लिए, 15 अक्टूबर, 1931 को, दो ज़ायोनी हस्तियां – World Zionist Organisation के अध्यक्ष नहूम सोकोलोव और Zionist Executive के सदस्य सेलिग ब्रोडेट्स्की ने महात्मा गांधी से मुलाकात की थी। यह मुलाकात दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन में हुई थी।

गायब दस्तावेज

इसी तरह जुलाई 1937 में गांधी ने दक्षिण अफ्रीका प्रवास दौरान अपने साथी रहे हरमन कालेनबाख के माध्यम से फिलिस्तीन में यहूदी एजेंसी को एक अहस्ताक्षरित बयान दिया। यह कलेक्टेड वर्क्स के खंड 96 से गायब है। यह खंड विशेष रूप से कालेनबाख पेपर्स को समर्पित है।

इन गायब दस्तावेजों और आख्यानों के बिना भी, गांधी इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष के संबंध में एक महात्मा से कम नहीं लगते। क्या वह संघर्ष के दोनों पक्षों के प्रति अहिंसा की अपनी मांग पर कायम थे? उत्तर “नहीं” है।

जिस लेख में गांधी लिखते हैं कि फिलिस्तीन अरबों का है, उसी में उनकी दो और टिप्पणियां हैं। उन्होंने हिटलर द्वारा यहूदियों पर की जा रही हिंसा को लेकर लिखा की यहूदियों को अहिंसा का रास्ता अपना चाहिए। उन्होंने मांग की कि यह अहिंसा न केवल शब्दों और कार्यों में बल्कि दिलों में भी होनी चाहिए।

ठीक उसी समय गांधी ने अरब हिंसा पर लिखा, “मैं अरब की ज्यादतियों का बचाव नहीं कर रहा हूं। काश उन्होंने उस चीज़ का विरोध करने के लिए अहिंसा का रास्ता चुना होता जिसे वे अपने देश पर अतिक्रमण मान रहे हैं। लेकिन सही और गलत के स्वीकृत सिद्धांतों के अनुसार, अरब प्रतिरोध के खिलाफ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।”

हिंसा को लेकर अलग-अलग राय क्यों?

अरब हिंसा के प्रति उनके उदार रुख की केवल एक ही संभावित व्याख्या हो सकती है। चूंकि वह अहिंसा के अपने आह्वान को अरबों द्वारा स्वीकार किए जाने को लेकर अनिश्चित थे, इसलिए उन्होंने उनके रुख को “समझने” का फैसला किया। ऐसा उन्होंने उस समय किया जब फिलिस्तीन में अरब हिंसा चरम पर थी (1936-39)। वह फिलिस्तीन के अरबों को यह सलाह देने में भी खुद को असमर्थ ( या अनिच्छुक) पा रहे थे कि यहूदियों के खिलाफ अहिंसा नहीं ना करें। जबकि इसी वक्त वह यहूदियों से अहिंसक रहने की मांग कर रहे थे।

“फिलिस्तीन अरबों का है” न केवल गांधी के विचारों का एक चयनात्मक पाठ है, जिसे उनके करीबी विश्वासपात्रों ने काफी हद तक सेंसर कर दिया, बल्कि फिलिस्तीन में यहूदी और अरब हिंसा पर उनके विचारों में मूलभूत विरोधाभास को भी नजरअंदाज कर दिया है। इस प्रकार, जब फिलिस्तीन की बात आती है, तो महात्मा गांधी भी अहिंसा के अपने स्वर्ण मानकों पर खरे नहीं उतर सके।

(पीआर कुमारस्वामी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में Contemporary Middle East विषय पढ़ाते हैं। उन्होंने ‘स्क्वायरिंग द सर्कल: महात्मा गांधी एंड द ज्यूइश नेशनल होम’ नाम की किताब भी लिखी है।)