लखनऊ के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह (Wajid Ali Shah) को जब अंग्रेजों ने सत्ता से हटाया तो उन्होंने ब्रिटेन जाकर महारानी विक्टोरिया के सामने पैरवी करने का फैसला लिया। नवाब को लगा कि महारानी खुद राज-परिवार से हैं, इसलिये उनकी बात समझेंगी। नवाब वाजिद अली शाह अपनी मां मलिका कीश्वर बहादुर फख्र-उज-जमानी उर्फ जनाब-ए-आलिया, भाई सिकंदर हसमत, करीबी मंत्रियों और रिश्तेदारों के साथ इंग्लैंड जाने के लिए कलकत्ता पहुंचे।
कलकत्ता पहुंचते ही बदल गया नवाब का मन
इतिहासकार रूद्रांग्शु मुखर्जी (Rudrangshu Mukherjee) लिखते हैं कि नवाब वाजिद अली शाह को कुर्सी से हटाए जाने का बेहद दुख था। कलकत्ता के रास्ते में ही उन्होंने ”बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए…” गीत लिखा था। नवाब जब कलकत्ता पहुंचे तो उनका मन बदल गया और वहीं रुकने का फैसला किया। उनकी एक बेगम अपने बेटे के साथ इंग्लैंड रवाना हो गईं।
ब्रिटिश हुकूमत को इस बात का इल्म था कि नवाब वाजिद अली शाह को भले ही सत्ता से हटा दिया गया हो लेकिन लखनऊ और आसपास के इलाकों में उनकी धमक बरकरार थी। इसका उदाहरण 1857 की क्रांति में दिखा। इसकी आंच अवध तक पहुंची तो ब्रिटिश हुकूमत को लगा कि इसमें नवाब वाजिद अली शाह का हाथ हो सकता है। नवाब को कैद कर फोर्ट विलियम भेज दिया गया, जहां करीब 2 साल रहे।
कैद से छूटे तो मिला बंगला नंबर-11
नवाब वाजिद अली शाह फोर्ट विलियम से रिहा हुए तो अंग्रेजों ने उन्हें कलकत्ता शहर से दूर हुगली के करीब मटियाबुर्ज में रहने की जगह दी। साथ ही एक लाख रुपये महीने का पेंशन भी बांध दिया। नवाब को जो बंगला नंबर 11 मिला उसमें कभी कलकत्ता के चीफ जस्टिस सर लॉरेंस पील (Sir Lawrence Peel) रहा करते थे और बाद में बर्दवान के राजा चांद मेहताब बहादुर ( Chand Mehtab Bahadur) को मिल गया था।
नवाब की 365 बीवियां थीं
इतिहासकार रोजी लेवलेन जोन्स (Rosie Llewellyn-Jones) अपनी किताब द लास्ट किंग इन इंडिया: वाजिद अली शाह (The Last King in India: Wajid Ali Shah) में लिखती हैं कि नवाब ने कई किलोमीटर में फैले इस लंबे-चौड़े बंगले का नाम ”सुल्तान खाना” रखा और अंदर एक प्राइवेट मस्जिद भी बनवाई। नवाब वाजिद अली शाह जब लखनऊ से आए थे उनके साथ उनकी 365 बीवियां, बच्चे मंत्री, रसोईयां, दरबान, गार्ड और नौकर-चाकर भी कलकत्ता आए थे। इन सबके रहने के लिए ”सुल्तान खाना” छोटा पड़ा और नवाब को बगल के दो और बंगलों को किराए पर लेना पड़ा।
एक साथ 27 बेगमों को तलाक
नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेज भले ही एक लाख रुपये महीने का भत्ता दिया करते थे, लेकिन उनका काम मुश्किल से ही चल पाता था। इसी बीच नवाब की एक बेगम माशूक महल के बेटे ने अंग्रेजों से शिकायत कर दी कि नवाब उसकी मां को गुजर-बसर के लिए पर्याप्त पैसे नहीं देते हैं। अंग्रेजी हुकुमूत ने नवाब को माशूक महल का भत्ता 2500 महीना बढ़ाने का आदेश दे दिया।
The Life and Times of the Nawabs of Lucknow के लेखक रवि भट्ट लिखते हैं कि वाजिद अली शाह को अंग्रेजों का यह आदेश चुभ गया और उन्होंने 31 जुलाई 1878 को माशूक महल समेत अपनी 27 बेगमों को एक ही दिन एक साथ तलाक दे दिया। अंग्रेजों से कहा कि उनकी हालत ठीक नहीं है और इनका खर्च नहीं उठा सकते।