पिछले दिनों इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति की एक सलाह पर बहस छिड़ गई है। जाहिर है इस बहस को शुरू कराने के पीछे उद्देशय है। लेकिन इतना तय है कि इस पर अमल हो गया तो यह निश्चित रुप से कम आय के कर्मचारियों के लिए अमानवीय होगा। दूसरे देशों खास तौर से एक बड़े पड़ोसी देश की अर्थव्यवस्था से मुकाबले के लिए दी गई सलाह का उन बड़े डाक्टरों ने समर्थन किया है जिनका मासिक वेतन इतना है कि आप साल भर में भी उतना नहीं कमा सकते।
बहस छिड़ी है एक सलाह पर
इंफोसिस संस्थापक की सलाह है कि देश के युवाओं को 70 घंटे काम करना चाहिए। ऐसी सलाह का उन लोगों ने पुरजोर समर्थन किया है जिनकी आय सुन कर आप एकबारगी चकरा जाएं। खुद नारायण मूर्ति की कुल संपत्ति 4.1 बिलियन डॉलर बताई गई है। इसमें इतने शून्य हैं कि आप गिनते रह जाएं। मगर जिनकी जेब शून्य है, उनसे कहा जा रहा है कि अगर पड़ोसी देश चीन से मुकाबला करना है, तो सत्तर घंटे काम करो। अवश्य काम करेंगे। अगर मौजूदा सैलरी कम से कम दो गुनी करवा दी जाए। मान लीजिए किसी कर्मी का वेतन अभी 25-30 हजार है तो क्या उससे उम्मीद करेंगे कि वह सत्तर घंटे काम करेगा। क्या वह 80-90 रुपए प्रति घंटे के लिए वह जान देगा।
क्या यह संभव है?
चलिए मान लेते हैं कि आपका वेतन थोड़ा बढ़ा भी दिया तो क्या सत्तर घंटे काम व्यावहारिक होगा। क्या आप मजदूरों-कर्मचारियों और प्रोफेशनल कर्मियों से सातों दिन दस घंटे काम कराएंगे? या फिर छह दिन 12 घंटे काम करा कर उन्हें एक दिन विश्राम देंगे? या पांच दिन तक 14 घंटे काम करा कर दो दिन का अवकाश देंगे। क्या होगा इसका फार्मूला। अब इन कार्यदिवस में कर्मचारियों के घर से आने और जाने का समय जोड़ दीजिए। ज्यादातर कर्मचारी बस-मेट्रो और ट्रेन से अपने कार्यस्थल पहुंचते हैं। इसमें आने जाने का समय मिलाएं तो यह दो-तीन घंटे से कम नहीं।
सत्तर घंटे का दूरगामी असर
प्रतिदिन चौबीस घंटे में से 12 या 14 घंटे काम करने और आने-जाने का समय जोड़ने के बाद एक कर्मचारी के पास कितना समय बचेगा? शायद उसे सोने के लिए भी पर्याप्त आठ घंटे न मिले। यहां तक कि पत्नी और बच्चों से बात करने के लिए भी समय नहीं मिलेगा। यानी उनके लिए जिनके वास्ते वह कोल्हू के बैल की तरह काम करेगा। यही नहीं वह ठीक से नाश्ता और भोजन तक न कर पाएगा। पार्क में न टहलने से या व्यायाम न करने से अपनी रही-सही सेहत भी खो बैठेगा। रिश्तेदारों से और समाज से तो वह कट ही जाएगा।
हम किसी से कम नहीं
नारायण मूर्ति के बयान का समर्थन करने वालों में ज्यादातर वे लोग हैं जिनकी आय लाखों में हैं। वे कह रहे हैं कि वे तो पहले ही कई घंटे काम कर रहे हैं। हम भी यह मानते हैं कि करना चाहिए जब आप गाड़ी और चालक रखते हों। सपोर्ट टीम रखते हों। हवाई जहाज में उड़ते हों। आप को दाल-रोटी के लिए सोचना नहीं पड़ता। पत्नी और बच्चों की जरूरत तुरंत पूरी कर देते हैं। आपको कर्ज लेकर घर नहीं चलाना पड़ता। हम कहते हैं कि आप 25 हजार, तीस हजार या 40-50 हजार रुपए की आय में 12 या 14 घंटे काम कर के दिखाइए। सार्वजनिक परिवहन से यात्रा कीजिए। अगर आप समय पर दफ्तर पहुंचना चाहते हैं तो डेढ़ घंटे इसमें जोड़ लीजिए। तब आपकी ड्यूटी कितने घंटे हो गई, इस पर सोच लीजिए। फिर तर्क कीजिए।
महिला कर्मियों के लिए मुश्किल
जो लोग महिलाओं की दुहाई दे रहे हैं कि वे तो पहले से सत्तर घंटे काम कर रही हैं, तो उनको बता दिया जाए कि नई व्यवस्था में क्या होगा। पुरुष कर्मचारियों की तरह उनकी भी वही स्थिति होगी। मगर नई व्यवस्था में और भी बदतर स्थिति होगी। वे न तो घर के काम कर पाएंगी और न अभी की तरह बच्चों की देखभाल। पच्चीच-तीस हजार के वेतन में उनसे मत कहिएगा कि वे घर में कामकाज के लिए सेविका रख लेंगी। वे कब सोएंगी और कब पति-बच्चों के लिए खाना बनाएंगी। उनके दांपत्य जीवन का क्या होगा। जापान में क्या हुआ? यह हमने देखा। युवाओं में शादी करने और बच्चे पैदा करने के प्रति अरुचि हो गई। काम के घंटे बढ़ते ही हमारे यहां भी यही होगा। यही नहीं स्त्री-पुरुष संबंधों में भी बड़ा बदलाव होगा। कई जुटलताएं सामने आएंगी।
दूसरे देशों के बीच कहां हैं हम?
अपने यहां साढ़े नौ से साढ़े पांच की ड्यूटी के हिसाब से आठ घंटे की ड्यूटी है। कहीं नौ घंटे भी है। तो इस लिहाज से पांच कार्य दिवस में कम से कम 40 से 45 घंटे की ड्यूटी लोग करते हैं। अमेरिका जैसे बड़े देश में भी यही समय है। रूस में भी लोग आठ घंटे ही काम करते हैं। मगर जिससे मुकाबला करना चाहते हैं, उस चीन में लोग लगभग हमारी तरह ही काम करते हैं। कुछ दशक पहले जरूर उन्होंने अथक मेहनत की। मगर आज वे वैश्विक मानक के अनुसार काम कर रहे हैं। पूरा यूरोप हमसे आगे है मगर वहां के नागरिक सप्ताह में 37 घंटे ही काम करते हैं। अलबत्ता भूटान और संयुक्त अरब अमीरात में जरूर पचास घंटे से ज्यादा लोग काम करते हैं।
कितना है व्यावहारिक?
मैंने अपने तीन दशक करिअर में सप्ताह में कई दिन दस-दस घंटे काम किए हैं। इसमें मेरे आने जाने का समय भी जोड़ लीजिए। लेकिन इसका अंजाम भी देखा। बीमार पड़ा। फिर भी खुद को संभाला क्योंकि तब भी मेरे पास चार घंटे थे घर-परिवार के लिए। अब मुझे बारह घंटे काम करना पड़े तो शायद एक घंटा ही होगा मेरे पास। यह उदाहरण भर है। दफ्तर को हमने पूरा समय दिया, मगर निजी जीवन खत्म। स्वभाव में चिड़चिड़पन बढ़ गया। कामकाज के दौरान मतभेद और शिकवे-शिकायतें भी। यह भी तय है कि जो अभी काम करने से जी चुराते हैं वे तब भी काम करने से भागेंगे। ऐसे में अनुशासित कर्मचारी और मरेगा। वहां क्या होगा जहां पहले ही कर्मचारियों की संख्या कम है। तब तो वह मशीन बन कर रह जाएगा। उसके भीतर की संवेदना मरने लगेगी।
जन स्वास्थ्य विज्ञानी डॉ. एके अरुण कहते हैं कि यह मानवीयता की हत्या होगी। लोग कई बीमारियों के शिकार होंगे। अब भी कई युवा आनलाइन 14-15 घंटे काम कर रहे हैं। उनकी हालत क्या है? किसी ने देखा? हम नई वैश्विक व्यवस्था का हिस्सा तो बनना चाहते हैं, मगर विश्व स्तर की स्वास्थ्य सेवाएं और सामाजिक सुरक्षा क्या दे पाएंगे। उनका यह भी सवाल है कि क्या दस फीसद को अधिक काम देकर नब्बे फीसद को खाली बैठाना चाहते हैं? आज भी लाखों लोगों के पास काम नहीं है।
क्या है आदर्श विकल्प?
हम सभी इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति का बेहद सम्मान करते हैं। उन्होंने शून्य से शिखर यों ही तय नहीं किया है। घंटों मेहनत की है। उनकी भावनाओं का सम्मान होना चाहिए। सबकी इच्छा है कि भारत की मौजूदा अर्थव्यवस्था एक नई ऊंचाई भरे। हमारे पास 52 करोड़ से ज्यादा श्रमिक संसाधन है। यह विश्व बैंक का ही आंकड़ा है। सबसे बड़ी बात कि इसमें 85 फीसद लोग असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इसमें सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मियों की संख्या जोड़ लें तो यह संख्या साठ करोड़ पार कर जाएगी। इतने विशाल मानव संसाधन को अगर विकसित भारत बनाने के वास्ते एक घंटा अतिरिक्त कार्य करने के लिए प्रेरित किया जाए तो यह कहीं बेहतर होगा। अगर सचमुच साठ करोड़ घंटे देश के विकास में लोग लगाएंगे, तो वह कहीं अधिक अभिनव योगदान होगा कर्मचारियों का। यह सच्ची देशभक्ति होगी।