Mughal Empire: दुनिया में बर्तनों की मौजूदगी के निशाँ 24,000 साल पुराने हैं। आज खाने को गर्म और ठंडा रखने वाले बर्तनों का आविष्कार हो गया है। हालांकि वर्तमान की तरह ही बर्तनों का इतिहास भी समृद्ध रहा है। मुगल शासक (Mughal Emperor) शाहजहाँ (Shah Jahan) के पास ऐसी प्लेट थी, जिसमें खाना डालते ही या तो उसका रंग बदल जाता था या फिर वह टूट जाता था।
जी हाँ, इस तरह की एक प्लेट आज भी आगरा स्थित ताज म्यूजियम में रखी है। प्लेट को शीशे के फ्रेम में कई सुरक्षा कर्मियों और सीसीटीवी कैमरे की निगरानी में रखा गया है। प्लेट के ठीक ऊपर एक निर्देश पट्टिका पर हिंदी और अंग्रेजी में प्लेट की खूबी लिखी है, ”ज़हर परख रकाबी (तश्तरी) एक प्रकार की चीनी मिट्टी से निर्मित बर्तन जो कि विषाक्त भोजन डालने से रंग बदलती या टूट जाती है।”
चावल के दानों पर लगाया जाता था चांदी का लेप
सलमा युसूफ हुसैन ने अपनी किताब द मुगल फीस्ट: रेसिपीज फ्रॉम द किचन ऑफ एम्परर शाहजहाँ में बताया है कि मुगल सम्राट आमतौर पर अपनी रानियों और हरम में रहने वाली स्त्रियों भोजन करते थे। उत्सव के अवसरों को छोड़कर वह रईसों और दरबारियों के साथ भोजन करते थे। रोजाना का भोजन आमतौर पर किन्नरों द्वारा परोसा जाता था।
हकीम (शाही चिकित्सक) द्वारा तैयार की गई मेनू के अनुसार शाही रसोई में खाना बना करता था। उदाहरण के लिए, पुलाव के चावल के प्रत्येक दाने को चांदी के वर्क से लेपित किया जाता था। ऐसा करने के पीछे हकीम का तर्क होता था कि चांदी के लेप वाले चावल से पाचन क्रिया सही होती और उस चावल से बना व्यंजन कामोत्तेजक के रूप में भी कार्य करता है।
शाहजहां ने अपने अंतिम वक्त में छोले को चुना
शाहजहाँ का भोजन प्रेम जगज़ाहिर है। हालांकि इस महान सम्राट के अंतिम वर्ष बहुत कष्टकारी थे। शाहजहाँ के बेटे औरंगज़ेब ने उन्हें अपदस्थ कर आगरा के किले में कैद कर दिया था। वह आठ साल तक कैद रहे और साल 1666 में उनकी मृत्यु हुई। किंवदंती है कि औरंगज़ेब ने आदेश दिया था कि उनके पिता को उनकी पसंद का केवल एक इंग्रीडिएंट दिया जाए। तब शाहजहाँ ने छोले को चुना था।
कहा जाता है कि उन्होंने छोले को इसलिए चुना था क्योंकि उसे कई अलग-अलग तरीकों से पकाया जा सकता है। आज भी उत्तर भारतीय व्यंजनों के विशिष्ट व्यंजनों में से एक है शाहजहानी दाल, जो मलाई की भरपूर ग्रेवी में छोले को डालकर पकाने से बनता है।