भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू खुद इस बात को बार-बार दोहराते थे कि उनसे भी गलती हो सकती है, इसलिए उनके फैसलों पर उंगली उठाने वाला कोई होना चाहिए। नेहरू को यह भी पता था कि उनके बहुत से कैबिनेट मंत्री, उनसे इतना घबराते थे कि वे अपने मतभेद प्रत्यक्ष तौर पर जता नहीं सकते थे। नेहरू अपने ऐसे नेताओं से बहुत खीजते थे, जो उनसे स्पष्ट रूप से असहमत होने का साहस नहीं रखते थे।

दूसरी तरफ जयप्रकाश नारायण थे, जो नेहरू को भाई कहते थे लेकिन उनके फैसलों की स्वस्थ आलोचना करने से कतराते नहीं थे। इसके अलावा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेपी की अविश्वसनीय संगठनात्मक कुशलता को देखते हुए भी नेहरू उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे।

1952 के लोकसभा चुनावों में अपनी भारी जीत के बाद, नेहरू ने जेपी को उप-प्रधानमंत्री के रूप में अपनी सरकार में शामिल होने का न्योता दिया था। असल में नेहरू ने कांग्रेस और जेपी की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के विलय का प्रस्ताव भी दिया था। लेकिन जेपी ने नेहरू के सभी प्रस्तावों को ठुकरा दिया और गांवों में जाकर गरीबों के बीच काम करना चुना, गांधी की तरह सत्ता दूर रहकर समाज सेवा का विकल्प चुना।

नेहरू ने जेपी से क्या कहा था?

जेपी और नेहरू की बैठकों को नेहरू के एक रिश्तेदार आईसीएस अधिकारी ब्रज कुमार नेहरू ने अपने संस्मरण में दर्ज किया है। द प्रिंट के एक आर्टिकल में ब्रज कुमार नेहरू के संस्मरण के कुछ अंश छपे हैं। 1952 में नेहरू द्वारा जेपी को दिए प्रस्ताव को याद करते हुए ब्रज कुमार नेहरू ने लिखा है, “चुनावों में मिली बड़ी जीत से प्रधानमंत्री स्वाभाविक रूप से खुश थे। वह जिस बात को लेकर नाखुश थे, वह थी एक विपक्ष की अनुपस्थिति, जो उन्हें रचनात्मक विकल्प सुझा सकती थी। प्रधानमंत्री ने जयप्रकाश नारायण को बताया कि वह सर्वज्ञाता नहीं हैं; उन्हें किसी की आवश्यकता है जो बता सके कि वे कहां गलत चल रहे हैं।  …उनकी कैबिनेट में सब भीरु, दब्बू लोग थे; उनके अंदर चाहे कितना भी संदेह क्यों न हों, वे अपनी आशंकाओं को ज़ाहिर करने की हिम्मत नहीं रखते थे।”

ब्रज कुमार नेहरू आगे लिखते हैं, “… प्रधानमंत्री ने जेपी से पूछा, उन्हें मनाया, फिर उनसे विनती की, फिर उन्हें इस तरह की भूमिका निभाने के लिए मनाने का प्रयास किया कि जब भी वह भटक रहे हों वे उन्हें सही मार्ग पर वापस लाएं। लेकिन जेपी का उत्तर हमेशा ‘ना’ ही था…”

मीटिंग में रोने लगे थे जेपी

द इंडियन एक्सप्रेस की कंट्रीब्यूटिंग एडिटर नीरजा चौधरी ने Vaad नाम के यूट्यूब चैनल पर बातचीत में इस बात की तस्दीक की है कि नेहरू ने जेपी को उप-प्रधानमंत्री बनने का ऑफर दिया था। लेकिन उन्होंने ऑफर ठुकरा दिया था। चौधरी बताती हैं कि नेहरू के प्रस्ताव पर सोशलिस्ट पार्टी की बैठकों में विस्तार से चर्चा हुई थी। एक मीटिंग में जेपी बहुत रोए थे क्योंकि कुछ लोगों ने जेपी पर ‘महत्वाकांक्षी’ होने का आरोप लगाया था।  

रवि विश्वेश्वरैया शारदा प्रसाद ने द प्रिंट के एक आर्टिकल में सोशलिस्ट पार्टी की मीटिंग का जिक्र किया है। वह लिखते हैं, “जेपी से नेहरू के कैबिनेट में शामिल होने और उनके उत्तराधिकारी बनने के प्रस्ताव, और जेपी की लगातार मनाही 1952 और 1953 में जारी रहा। जेपी की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में इस बात का विस्तार से विचार-विमर्श किया गया कि क्या जेपी और आचार्य जे.बी. कृपलानी नेहरू के उनके कैबिनेट में शामिल होने के निमंत्रण को स्वीकार करें। अशोक मेहता इसके पक्ष में थे, लेकिन कृपलानी ने कहा कि पार्टी को नेहरू सरकार को बाहर से समर्थन देना चाहिए और न उन्हें और न जेपी को नेहरू के कैबिनेट में शामिल होना चाहिए। हालांकि, राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव को किसी भी प्रकार का समर्थन देने का प्रबल विरोध कर रहे थे।”

बता दें कि रवि विश्वेश्वरैया शारदा प्रसाद के पिता एचवाई शारदा प्रसाद इंदिरा गांधी के सूचना सलाहकार थे और उनके मामा केएस राधाकृष्ण, जयप्रकाश नारायण के सबसे करीबी सहयोगी थे।

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Morarji Desai | Jayaprakash Narayan
जेपी ने अंदरूनी लड़ाई खत्‍म करने की अपील की लेकिन उनकी कोश‍िशों का जनता पार्टी के नेताओं पर कोई असर पड़ा। (Express archive photo)