भगत सिंह युग के कम प्रसिद्ध क्रांतिकारियों में भगवतीचरण वोहरा का नाम भी शामिल हैं। वह यह गुमनामी चाहते भी थे, उन्होंने लिखा- मैं ऐसी जगह और ऐसे तरीके से मरना चाहता हूं कि किसी को इसके बारे में पता न चले और न ही कोई आंसू बहाए।

वोहरा क्रांतिकारी गुटों के ‘दिमाग’ माने जाते थे। वह आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों और सिद्धांतकारों में से थे। उन्हें अपने समय का महान बुद्धिवादी माना जाता है। वह एक प्रमुख पैम्फिल्टर और प्रचारक भी थे। बम बनाने में सिद्धहस्त वोहरा कई क्रांतिकारियों कार्रवाइयों में शामिल रहे। अभियुक्त भी बनाए गए। लेकिन कभी पुलिस द्वारा नहीं पकड़ गए। उन्हें कभी किसी अदालत ने सजा नहीं सुनाई।

समृद्ध परिवार के क्रांतिकारी

वोहरा का जन्म 15 नवंबर, 1902 को अविभाजित पंजाब में लाहौर के एक बहुत ही समृद्ध परिवार में हुआ था। जो ब्रिटिश राज के प्रति अपनी वफादारी के लिए जाना जाता था। हालांकि परिवार मूल रूप से गुजरती थी। वोहरा के पिता का नाम शिव चरण वोहरा था। वह एक रेल अधिकारी थे। अंग्रेजों से वफादारी के लिए उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि भी मिली थी।

भगवतीचरण वोहरा अपने पिता के विपरीत थे। उन पर 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड का गहरा असर पड़ा था। जब उनकी कॉलेज की पढ़ाई पूरी भी नहीं हुई थी, वह गांधी के आह्वान पर अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन (1921) में कूद गए थे।

दिलचस्प यह है कि कालांतर में वोहरा गांधी के विचारों के इतने खिलाफ हो गए थे कि उन्होंने उनके ‘बम की पूजा’ लेख का जवाब ‘बम का दर्शन’ लिखकर दिया था। इस बारे आगे विस्तार से जानेंगे।

गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद वोहरा लाहौर के नेशनल कॉलेज से बीए करने करने लगे। कॉलेज में वह ‘राष्ट्र की परतंत्रता और उससे मुक्ति के प्रश्न’ नाम से एक स्टडी सर्किल चलाते थे। भगत सिंह और सुखदेव भी तब लाहौर के नेशनल कॉलेज में ही थे और वोहरा के स्टडी सर्किल के सदस्य थे।

असहयोग आंदोलन के बाद वोहरा का गांधीवादी विचारों से मोहभंग होगा था। 1917 की रूसी क्रांति ने वोहरा और उनके जैसे अन्य शिक्षित भारतीय युवाओं को बहुत प्रभावित किया। उन्होंने साम्यवाद को भारत की गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, कृषि संकट और शोषणकारी सामाजिक परिस्थितियों के समाधान के रूप में देखा।

वोहरा ने नए बने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ संपर्क स्थापित किया और भारत में एमएन रॉय की पत्रिका, Vanguard और अन्य मार्क्सवादी साहित्य से जुड़ गए। लेकिन जल्द ही नए कम्युनिस्टों द्वारा की गई पहल से उनका मोहभंग हो गया। इसके बाद वोहरा हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के नेतृत्व में भूमिगत सशस्त्र प्रतिरोध की ओर आकर्षित हुए।

वोहरा को ये सब करने की जरूरत नहीं थी। उनके परिवार के पास लाहौर में तीन-तीन मकान था। लाखों की अचल संपत्ति थी। बैंक में हजारों रुपये थे। वह आराम से विलासिता की जिंदगी बिता सकते थे। लेकिन उन्होंने क्रांति का रास्ता चुना।

छोटी उम्र में हुई शादी

आमतौर पर क्रांतिकारियों के लिए विवाह, खासकर बाल विवाह अभिशाप बन जाता था। लेकिन वोहरा का बाल विवाह भी उनके क्रांतिकारी राह में बाधा नहीं बना। साल 1918 में 14 साल के भगवतीचरण वोहरा का विवाह ग्यारह वर्षीय दुर्गावती देवी से हुई। दुर्गावती देवी इलाहाबाद की थी और उन्होंने पांचवीं तक पढ़ाई की थी। बाद में यही दुर्गावती देवी, ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं।

भगत सिंह और राजगुरु ने 17 दिसंबर, 1928 को शाम चार बजे अंग्रेज अधिकारी सैंडर्स की हत्या कर दी थी। यह लाला लाजपत राय की मौत का बदला था। इस घटना के तीन दिन बाद पुलिस से बचते-बचते सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु,  भगवतीचरण वोहरा के घर पहुंचे। तब वोहरा खुद भूमिगत थे। घर पर क्रांतिकारियों की भाभी, दुर्गा भाभी थीं। तब दुर्गा भाभी लाहौर के महिला कॉलेज में हिंदी की अध्यापिका थीं।

लाहौर से निकले के लिए भगत सिंह ने अपनी वेशभूषा अफसर जैसी कर ली। दुर्गा भाभी भगत सिंह की पत्नी और राजगुरु ने अर्दली का वेश बनाया। भगत सिंह ने अपना नाम रणजीत और दुर्गा भाभी का नाम सुजाता रखा। लाहौर स्टेशन पर भगत सिंह की तलाश में 500 पुलिसकर्मी थे। लेकिन उन सब के बीच भगत सिंह, दुर्गा भाभी और राजगुरु देहरादून एक्सप्रेस में बैठकर लाहौर से निकल गए।

नौजवान भारत सभा का गठन

वोहरा की HRA में एंट्री नेशनल कॉलेज के प्रोफेसर जयचंद्र विद्यालंकार ने कराई थी। वोहरा एक प्रतिभाशाली वक्ता, प्रभावी लेखक और एक उत्साही पाठक थे। साल 1926 में भगत सिंह और अन्य लोगों के साथ मिलकर उन्होंने पंजाब में नौजवान भारत सभा के नाम से एक युवा संगठन की स्थापना की। वोहरा इस संगठन के प्रचार सचिव और भगत सिंह महासचिव थे।

रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और अन्य की शहादत के बाद चंद्रशेखर आजाद ने HRA के पुनर्गठन की सोची। 1928 में भगत सिंह के सुझाव पर संगठन का नाम ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (HSRA) कर दिया गया।

एक असफल कार्रवाई और गांधी से बहस

वोहरा और यशपाल ने 23 दिसंबर, 1929 को दिल्ली-आगरा रेल लाइन पर भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन को ले जा रही विशेष ट्रेन पर बमबारी की थी। लंबी तैयारी के बाद यह हमला किया गया था। बम फटा। ट्रेन के एक डिब्बे का परखच्चे उड़ गए। ट्रेन में सवार एक व्यक्ति की मौत भी हो गई। लेकिन इरविन बच गए।

गांधी को जब इस घटना की जानकारी मिली तो उन्होंने कार्रवाई असफल होने और इरविन की जान बचाने के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया। साथ ही अपने अखबार ‘यंग इंडिया’ में ‘बम की पूजा’ शीर्षक से लेख लिखकर क्रांतिकारियों की जमकर आलोचना की। उन्होंने अपने लेख में वायसराय को देश का शुभचिंतक और क्रांतिकारियों को आजादी के रास्ते में रोड़ा अटकाने वाले कहा।

वोहरा ने चंद्रशेखर और भगत सिंह की सलाह से गांधी के लेख का जवाब ‘बम का दर्शन’ लेख से दिया। भगत सिंह ने जेल में लेख को अंतिम रूप दिया। लेख में इरविन पर किए हमले को लेकर लिखा था, “यदि वायसराय की गाड़ी के नीचे बमों का ठीक से विस्फोट हुआ होता तो दो में से एक बात अवश्य हुई होती, या तो वाइसराय अत्यधिक घायल हो जाते या उनकी मृत्यु हो गयी होती। ऐसी स्थिति में वायसराय तथा राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच मंत्रणा न हो पाती, यह प्रयत्न रुक जाता उससे राष्ट्र का भला ही होता।…”

हिंसा और अहिंसा को परिभाषित करते हुए लिखा गया था, “पहले हम हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर ही विचार करें। हमारे विचार से इन शब्दों का प्रयोग ही गलत किया गया है, और ऐसा करना ही दोनों दलों के साथ अन्याय करना है, क्योंकि इन शब्दों से दोनों ही दलों के सिद्धान्तों का स्पष्ट बोध नहीं हो पाता। हिंसा का अर्थ है कि अन्याय के लिए किया गया बल प्रयोग,परन्तु क्रांतिकारियों का तो यह उद्देश्य नहीं है, दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धान्त। उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। अपने आप को कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अंत में अपने विरोधी का हृदय-परिवर्तन संभव हो सकेगा।”

गांधी के रास्ते को अजीबोगरीब बताते हुए लेख में लिखा था, “हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वह हमारे साथ गम्भीरतापूर्वक इस युद्ध में शामिल हो। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबोगरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ न करे।”

भगत सिंह को आज़ाद कराने की कोशिश में गई जान

भगवतीचरण वोहरा की जान 28 मई, 1930 को रावी नदी (लाहौर) के तट पर एक बम का परीक्षण के दौरान गई। दरअसल, भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु ऐतिहासिक लाहौर षडयंत्र कांड में जेल में बंद थे। क्रांतिकारियों को जेल से निकालने के लिए HRSA ने प्लान बनाया।

प्लान यह था कि लाहौर जेल से कोर्ट ले जाते समय एक बम धमाका होगा और भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को छुड़ा लिया जाएगा। ब्रिटिश शासन की कड़ी सुरक्षा को चकमा देने के लिए ताकतवर बम की जरूरत थी। वोहरा ने अपने साथियों के साथ लाहौर की कश्मीर बिल्डिंग में एक कमरा किराये पर लिया।

बम बनाने का काम शुरू हुआ। कुछ ही दिनों में नए शक्तिशाली बम बना लिए गए। लेकिन बम मौके पर धोखा न दे, इसलिए तय हुआ कि एक परीक्षण किया जाएगा। टेस्ट के लिए रावी नदी के किनारे पहुंच गए। परीक्षण विफल हुआ और बम वोहरा के हाथ में ही फट गया। उनकी मौके पर ही मौत हो गई।

वोहरा की मौत पर भगत सिंह ने कहा था, “हमारे तुच्छ बलिदान उस श्रृंखला की कड़ी मात्र होंगे, जिसका सौंदर्य कॉमरेड भगवतीचरण वोहरा के आत्मत्याग से निखर उठा है।”