आज की शाम एक ऐसी शाम है जिसे हम न्यूज़ रूम में ‘स्पेशल स्टोरी’ कहते हैं। 27 मीडिया संस्थानों की 36 दमदार र‍िपोर्ट्स, भारत क‍िन चीजों से साकार हुआ है, इसकी समझ बढ़ाने वाली दो क‍िताबें और दलगत भावनाओं से ऊपर उठ कर एक सुर में बजीं ताल‍ियां। आज हमारे साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर, रविशंकर प्रसाद, अनिल बलूनी, कपिल सिब्बल, संजय सिंह, डॉ. संजय जायसवाल और मनीष तिवारी मौजूद हैं।

हमारा सौभाग्य है कि हमारे साथ चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ मौजूद हैं और यकीनन कुछ भी सीलबंद लिफाफे में नहीं है। डेरेक ओ ब्रायन…आपको यहां देखकर बहुत खुशी हो रही है।

मैं वोट ऑफ थैंक्स दे रहा हूं। लेकिन हम जिस वक्त में रह रहे हैं, मैं कहूंगा कि वहां कोई वोट नहीं होगा, बस थैंक्स रहेगा। सबसे पहले मैं जस्टिस चंद्रचूड़ का धन्यवाद देना चाहूंगा। फ्री मीडिया को लेकर आपका विजन और आगाह करने वाली आपकी बातें हमें भरोसा दिलातीं हैं…अगर मैं आपके ही एक हाल‍िया भाषण से शब्‍द उधार लूं तो… क‍ि सुप्रीम कोर्ट सदैव ‘नॉर्थ स्‍टार’ (समान लक्ष्‍य और मकसद वाला) बना रहेगा। पत्रकारों और पत्रकार‍िता के ल‍िए। 

साल दर साल…केस दर केस…यह स‍ितारा आगे का रास्‍ते रोशन करता रहा है। आगे का रास्‍ते में अंधेरा फैला रहा है।

एक प्रकाशन पर लगा बैन हटाने (रोमेश थापर, 1950),  मीड‍िया को सरकारी दखल से बचाने (1984 में इंडियन एक्सप्रेस), इंटरनेट पर अभ‍िव्‍यक्‍त‍ि की आजादी (2015, श्रेया सिंघल) सुन‍िश्‍च‍ित करने से लेकर एक पत्रकार की न‍िजी स्‍वतंत्रता सुन‍िश्‍च‍ित करने (अर्णब गोस्वामी, 2020) तक कोर्ट हमारी आजादी के व‍िस्‍तार के ल‍िए सरकार को पीछे धकेलती रही है।

इसीलिए जब अंधेरा छाने लगता है, एक रिपोर्टर को आतंकवादियों के लिए बने कानून के तहत ग‍िरफ्तार क‍िया जाता है, दूसरे को सवाल पूछने पर पकड़ा जाता है, एक यूनिवर्सिटी टीचर को कार्टून शेयर करने पर पीटा जाता है, कॉलेज के छात्र को भाषण देने पर और फिल्म स्टार को एक कमेंट करने पर या फिर जब एक क‍िसी खबर का जवाब पुल‍िस की एफआईआर के रूप में आता है, तब हम रोशनी द‍िखाने के ल‍िए उसी ‘नार्थ स्‍टार’ की तरफ देखते हैं।

ऐसा इसल‍िए भी, जैसा क‍ि चेयरमैन श्री गोयनका ने कहा, फ्री मीडिया और स्वतंत्र कोर्ट, दोनों की च‍िंता या ह‍ित एक जैसे ही हैं। एक की सेहत का दूसरे की सेहत पर पूरा असर पड़ता है। दोनों का स्‍थान अमूल्‍य है। आज हम जिस काम को सराहने के लिए यहां उपस्थित हुए हैं, यह उसी स्‍थान से आया है। इसल‍िए, धन्‍यवाद, सर! 

सभी विजेताओं का शुक्रिया…। हम जानते हैं कि सोशल सोशल मीडिया पर एक अपमानजनक पोस्ट पढ़ना कहीं ज्यादा आनंददायक है। न्‍याय के ठेकेदारों के गुस्‍से का श‍िकार बनने के ल‍िए क‍िसी मेहनत की जरूरत नहीं है। डर जाना एकदम आसान है, लेकिन आपकी तरह पूरी ईमानदारी, मेहनत से व‍िस्‍तृत, तथ्‍यपरक और सटीक रिपोर्टिंग करना, वह भी व‍िरोध का सम्‍मान करते हुए, बहुत कठिन काम है। यही पत्रकार‍िता को बनाए रखता है। 

मैं इस बात को अंडरलाइन करना चाहता हूं कि पत्रकारिता का साबका सिर्फ पत्रकारों से नहीं है। न ही यह हमारे काम करने की आजादी से जुड़ा है। यह हर एक व्‍यक्‍त‍ि के जानने के अधिकार और हर क‍िसी की स्वतंत्रता से भी जुड़ा है। हमें न्यूजरूम में बोलने और सोचने की आजादी चाह‍िए होती है। यह आजादी उस आजादी से अलग नहीं है जो एक छात्र को क्लासरूम में, एक शिक्षक को स्टाफरूम में, एक वैज्ञानिक को लैब में, एक स्टार्टअप फाउंडर को उसके ड्रॉइंग बोर्ड और  एक कामगार को उसके कार्यस्थल पर चाह‍िए होती है…यहां तक कि दो लोगों को प्यार में भी। एक युवा और महत्वाकांक्षी देश के लिए यह बहुमूल्य है…।

जॉर्ज ऑरवेल ने आजादी की बड़ी क्‍लास‍िक पर‍िभाषा दी थी। वह बिहार में पैदा हुए थे तो हम उन्हें अपने बीच का ही मान सकते हैं। उन्होंने बड़ी खूबसूरत बात कही थी। बस यही आजादी मायने रखती है क‍ि दो और दो चार होते हैं यह कहने की आजादी म‍िले। उनका कहना था क‍ि अगर आपके पास इतनी आजादी है तो बाकी इसके साथ आ जाएगी। 

पत्रकारिता की जरूरत भी यही है…सिर्फ अवार्ड फंक्शन वाली शाम के लिए नहीं, बल्कि हर दिन। इसके लिए कठिन परिश्रम की जरूरत है…विनम्रता की जरूरत है और यहां मौजूद आप सब के थोड़े सहयोग की भी जरूरत है। और अंधकार भरे क्षणों में ‘नॉर्थ स्‍टार’ की जरूरत है।…धन्यवाद। म‍िलेंगे…अगले बरस।