मनराज ग्रेवाल शर्मा
येरूशलम शहर के दुनिया के सबसे विवादित स्थानों में से एक बनने से बहुत पहले, 12वीं शताब्दी में भारत वहां अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका था। इस प्राचीन शहर में पत्थर से बनी भूरे रंग की दो मंजिला इमारत खड़ी है। इमारत के बाहर एक पट्टिका लगी है, जिस पर अंग्रेजी में लिखा है – “Indian Hospice, Estd. 12th century A.D., supported by Ministry of External Affairs, Government of India, New Delhi.”
आसान भाषा में कहें तो पट्टिका पर बताया है कि यह एक भारतीय धर्मशाला है, जिसे भारत सरकार के विदेश मंत्रालय से सपोर्ट मिलता है। सपोर्ट का मतलब हुआ कि इसके रखरखाव का खर्च भारत सरकार उठाती है। साथ ही इसके संचालन में भी भारत की भूमिका है, जिसके बारे में आगे जानेंगे।
अक्टूबर 2021 में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भारत और येरुशलम के बीच 800 साल के संबंध पर जोर देते हुए इस नई पट्टिका का अनावरण किया था। धर्मशाला की ओर जाने वाली सड़क का नाम ‘ज़ावियात अल-हुनुद’ है, जिसका अर्थ होता है ‘भारतीय कोना।’
भारत का इस धर्मशाला से क्या है संबंध?
किंवदंती है कि पंजाब के एक सूफी संत बाबा फरीद ने इस स्थान पर गहन ध्यान में 40 दिन बिताए थे। हालांकि बाद में वह पंजाब लौट आए। लेकिन मक्का जाने वाले भारतीय मुसलमान इस स्थान पर प्रार्थना करने के लिए रुकने लगे। समय के साथ यह स्थान भारत के यात्रियों के लिए एक पवित्र स्थान और धर्मशाला में बदल गया।

बाबा फरीद कौन थे?
बाबा फरीद का जन्म 1173 ई. में मुल्तान के पास कोठेवाल गांव में हुआ था। उनका का परिवार अफगानिस्तान के काबुल से आकर पंजाब में बसा था। बाबा फरीद का संबंध सूफियों के एक संप्रदाय चिश्ती संप्रदाय से था। वह पंजाबी में छंद लिखने वाले पहले सूफी संतों में से एक थे। बाबा फरीद के कई छंद सिखों की पवित्र पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब में हैं।
पंजाब और उससे आगे की अपनी यात्रा के दौरान वह यरूशलेम भी गए, जहां उन्होंने अल-अक्सा मस्जिद में प्रार्थना की और छंद लिखे। यरूशलेम चारों तरफ से दीवारों से घिरा है और दीवारों में कई दरवाजे हैं। किंवदंती है कि उन्हें पुराने यरूशलेम के एक दरवाजे के भीतर एक मामूली लॉज मिला। उस दरवाजे को मुसलमानों के बीच बाब-अज़-ज़हरा और ईसाइयों के बीच हेरोदेस गेट के नाम से जाना जाता है। लॉज एक एक छोटी पहाड़ी के ऊपर था। इस लॉज को विशेष रूप से सूफी संप्रदायों के लिए ही बनाया गया था। इसका इस्तेमाल मदरसा और यात्रियों के लिए धर्मशालाओं के रूप में किया जाता था।
बाबा फरीद के जाने के बाद, खानकाह (लॉज का नाम) भारतीय यात्रियों के लिए एक धर्मशाला के रूप में विकसित हुआ, जिसका नाम ज़ाविया अल-हिंदिया पड़ा, जिसका अर्थ है “हिंद का लॉज।” दिलचस्प है कि ईसाई क्रूसेडर्स, मामलुक और ओटोमन शासकों सहित अलग-अलग साम्राज्यों और देशों की सत्ता आने के बावजूद, लॉज का भारत के साथ संबंध बरकरार रहा। मध्ययुगीन यात्री एवलिया चेलेबी ने 1671 में ज़ाविया अल-हिंदिया को शहर के सबसे बड़े धर्मशाला में से एक बताया।
ओटोमन शासन के दौरान लॉज की सुविधाएं बढ़ी। दक्षिण एशिया के शेखों ने इसका पूरा ध्यान रखा। हालांकि, एक महत्वपूर्ण बदलाव तब हुआ जब 1919 में ओटोमन साम्राज्य का पतन शुरू हुआ। 1921 तक, येरूशलेम के मुख्य मुफ्ती, अमीन अल-हुसैनी ने कार्यभार संभाला और शहर के नवीकरण और पुनर्निर्माण के प्रयास शुरू किए। इन परियोजनाओं के लिए मुख्य मुफ्ती ने ब्रिटिश भारत में मुस्लिम रियासतों सहित दुनिया भर के मुस्लिम संरक्षकों से आर्थिक सहायता मांगी।
1921 में मुख्य मुफ्ती ने भारतीय खिलाफत आंदोलन के नेताओं को ‘इंडियन लॉज’ की मरम्मत की सख्त जरूरत के बारे में सूचित किया। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के एक युवक ख्वाजा नज़ीर हसन अंसारी ने यह काम संभाला। 1924 तक, उन्होंने लॉज का पूरी तरह से नवीनीकरण कर दिया, इससे अगले 15 वर्षों तक ब्रिटिश भारत के कई यात्रियों और तीर्थयात्रियों को ठिकाना मिला। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लॉज, उत्तरी अफ्रीका में लड़ने वाले ब्रिटिश इंडिया के सैनिकों के लिए शरणस्थली बना।
आज़ाद भारत से कैसे जुड़ा लॉज?
भारत को आजादी मिलने के बाद, नजीर अंसारी ने मिस्र में भारतीय दूतावास से लॉज की भारतीय पहचान को मजबूत करते हुए इसके लिए आधिकारिक मान्यता मांगी। लॉज कई युद्धों का साक्षी बना। चाहे वह 1952 का रॉकेट हमला हो या 1967 का छह दिवसीय इजरायल-अरब युद्ध। समय के साथ, भारतीय धर्मशाला 7,000 वर्ग मीटर तक फैल गया। धर्मशाला परिसर के भीतर फिलिस्तीन शरणार्थियों के लिए UNRWA (United Nations Relief and Works Agency) और जेरूसलम स्वास्थ्य केंद्र भी चलता है।
सन् 2000 में धर्मशाला के भीतर पूर्व भारतीय विदेश मंत्री जसवंत सिंह और फिलिस्तीनी नेता फैसल हुसैनी के बीच बैठक हुई थी। ऐसा कोई भारतीय राजनयिक या अतिथि गणमान्य व्यक्ति नहीं है जो धर्मशाला का दौरा न करता हो।
वर्तमान में धर्मशाला की जिम्मेदारी 95 साल के शेख मोहम्मद मुनीर अंसारी के कंधों पर है। अंसारी का जन्म साल 1928 में येरुशलम में ही हुआ था। 2011 में अंसारी को प्रवासी भारतीय सम्मान से नवाजा गया था। यह भारत सरकार द्वारा प्रवासी भारतीयों को दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है।
क्षेत्र में उथल-पुथल के बावजूद, लॉज में दो भारतीय झंडे गर्व से लहराते रहे। हर 15 अगस्त को अंसारी परिवार न सिर्फ स्वतंत्रता दिवस मनाता है। बल्कि “सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा।” भी गाता है।
यह संपत्ति भारतीय वक्फ बोर्ड के स्वामित्व में है। धर्मशाला में छह गेस्ट रूम, एक छोटी मस्जिद, एक पुस्तकालय, एक डाइनिंग हॉल और एक रसोई घर है। मेहमानों को धर्मशाला द्वारा प्रदान किए गए संसाधनों का उपयोग करते हुए, अपने स्वयं के लिए खाना पकाने और कपड़ा धोने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
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