How Sikkim Become Part Of India: सिक्किम को भारत का हिस्सा बने 50 साल पूरे हो चुके हैं। पूर्वोत्तर का यह राज्य इतनी आसानी से हिंदुस्तान का हिस्सा नहीं बना था, इसका अपना एक संघर्ष रहा। चीन की साजिशें हुईं, नेपालियों का माइग्रेशन रहा और लोकतंत्र बनाम राजशाही की कई सालों तक एक सियासी जंग भी चली।

1700 तक तो सिक्किम, नेपाल, भूटान और तिब्बत के बीच में काफी संघर्ष चले, उस वजह से सिक्किम को भी अपनी जमीन सिकुड़ती हुई दिखाई दी, उसका अधिकार क्षेत्र कम होता चला गया। इसके ऊपर बाद में अंग्रेजों ने भारत में दस्तक दी, उनके आने से जमीन पर समीकरण पूरी तरह बदल गए। ईस्ट इंडिया कंपनी चाहती थी कि उसका भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों में विस्तार हो, पहाड़ी राज्यों पर तो उसकी खास नजर थी।

अंग्रेजों का शासन और गोरखा वॉर

अब एक तरफ ब्रिटिश अपना शासन मजबूत करते जा रहा थे तो वहीं दूसरी तरफ नेपाल के राजा भी ज्यादा से ज्यादा इलाके अपने कब्जे में चाहते थे। इस सब की वजह से ही नवंबर 1814 से मार्च 1816 तक एक भयंकर युद्ध छिड़ा, इतिहास के पन्नों में इसे गोरखा वॉर या फिर एंगलो-नेपालीस वॉर के रूप में याद किया जाता है। यह एक ऐसा युद्ध था जिसमें ईस्ट इंडिया कंपनी और गोखाली आर्मी आमने-सामने रही। बड़ी बात यह थी कि सिक्किम के राजा ने तब फैसला किया कि हम अंग्रेजों का समर्थन करेंगे। उनका अपना लालच था, ऐसे में समर्थन भी वहां चला गया।

अब उस गोरखा वॉर में अंग्रेजों की जीत हुई और सिक्किम के चेहरे पर भी एक मुस्कान आई। असल में 1700 के बाद के कुछ सालों तक में नेपाल ने भी सिक्किम के कुछ इलाकों पर अपना कब्जा किया था। लेकिन इस एक युद्ध की वजह से नेपाल ने उन इलाकों को खो दिया और ब्रिटिश ने उन इलाकों को वापस सिक्किम को सौंप दिया। ऐसे में अंग्रेजों के प्रति दिखाई गई वफादारी का तोहफा सिक्किम के साम्राज्य को मिल गया था।

सिक्किम में राजा, अंग्रेजों के आगे नतमस्तक

अब सिक्किम के राजा इस बात से खुश थे कि उन्हें अपनी खोई जमीन वापस मिली, लेकिन सच्चाई यह भी थी कि उनका पूरा साम्राज्य अंग्रेजों के ही अधीन था, उनके फैसलों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता था। कुछ साल तो ऐसे ही बीत गए और फिर सिक्किम के साथ अंग्रेजों के सिविल सर्वेंट जॉन क्लौड व्हाइट का नाम जुड़ गया, उन्हें 1889 में सिक्किम का पॉलिटिकल ऑफिसर बना दिया गया।

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यह वो समय था जब कहने को सिक्किम में राजशाही थी, एक सम्राट भी थे, लेकिन उनके पास कोई ताकत नहीं रही। इस बारे में एसआरएम विश्वविद्यालय के लिबरल आर्ट्स विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉ. उगेन भूटिया बताते हैं कि सिक्किम में तब आसानी से नेपाली लोग दाखिल हो पा रहे थे, उनकी माइग्रेशन अचानक से काफी ज्यादा बढ़ गई थी। यह सबकुछ हो रहा था, लेकिन इसमें ना तो सिक्किम के सम्राट से कुछ पूछा जा रहा था ना ही उनकी इजाजत ली जा रही थी।

नेपाल का माइग्रेशन, सिक्किम में बदलती डेमोग्राफी

सिक्किम में उस समय के साम्राज्य को नामग्याल सम्राज्य के नाम से जाना जाता था, वो अंग्रेजों के खिलाफ कुछ नहीं बोल सकते थे, शिकायत करते थे, नेपाली लोगों की माइक्रेशन का मुद्दा भी बनाते थे, लेकिन जमीन पर कुछ खास असर पड़ता नहीं था। अब उस समय सिक्किम की डेमोग्राफी ऐसी थी कि वहां पर बौद्ध धर्म के ज्यादा लोग रहते थे। वहां के साम्राज्य का सबसे बड़ा डर ही यह था कि अगर नेपाल से ज्यादा माइग्रेशन होगा तो उनकी डेमोग्राफी बदल जाएगी, बौद्ध धर्म मानने वालों की संख्या कम हो जाएगी।

अब समय बीतता गया और भारत आजाद मुल्क बना। आजादी तो मिली, लेकिन सिक्किम का विलय नहीं हो पाया, उसे एक विशेष राज्य का दर्जा मिला। 1950 में सिक्किम के सम्राट Tashi Namgyal, उस समय के राज्य के पॉलिटिकल ऑफिसर हरिश्वर दयाल के बीच एक अहम करार हुआ। उस करार के तहत अपने आंतरिक मामलों के संबंध में सिक्किम को स्वायत्तता मिली। लेकिन बाहरी दुश्मनों से सुरक्षा से वक्त उसे भारत की मदद मिलनी थी।

चीन-तिब्बत विवाद और दलाई लामा की एंट्री

अब सिक्किम के लिए उस समय इस करार के भी अपने मायने थे। चीन ने तब तक तिब्बत में घुसपैठ कर चुका था, नेपाल के सिक्किम पर फिर हमले बढ़ गए थे, ऐसे में अपनी सुरक्षा के लिए उसे एक सुरक्षित और भरोसेमंद साथी चाहिए था। आजादी के बाद वो साथ हिंदुस्तान रहा। बताया जाता है कि सरदार पटेल तो आजादी के बाद ही सिक्किम का विलय चाहते थे, लेकिन नेहरू के साथ इस मामले में उनके मतभेद रहे और ऐसा हो नहीं सका।

आजादी के बाद के कुछ साल ऐसे रहे कि चीन, सिक्किम, नेपाल, तिब्बत में काफी कुछ बदला। सिक्किम के मन में सबसे बड़ा डर इस बात का था कि दूसरे धर्म के लोग उसके राज्य में घुसेंगे। उसकी डेमोग्राफी पूरी तरह बदल जाएगी और संभव है कि उनका बौद्ध धर्म खतरे में आ जाए। उनके डर का एक कारण भी था। चीन ने जिस तरह से तिब्बत में घुसपैठ की थी, जिस तरह से तिब्बतियों पर अत्याचार हुए थे, सिक्किम को डर था कि उनके साथ भी कहीं वैसा ना हो जाए।

राजशाही के खिलाफ विरोध, लोकतंंत्र की मांग

अब भारत का उस समय तिब्बत को लेकर जो रुख था, उसका सीधा कनेक्शन सिक्किम से जुड़ने वाला था। असल में मार्च 1959 में 14वें दलाई लामा तिब्बत में अपनी जान बचाकर भारत आए थे। वे अरुणाचल प्रदेश के तवांग में रहने लगे। एक महीने बाद मसूली में उनकी मुलाकात तब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से हुई, दोनों के बीच में तिब्बत के शरणार्थियों को लेकर चर्चा हुई। अब सिक्किम के लिए इस मुलाकात से एक संदेश निकला था- भारत जरूरत पड़ने पर मदद करता है, भारत शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे खोल सकता है। उस समय सिक्किम में एक वर्ग था जो अब सोचने लगा था कि भारत के साथ विलय होने में ज्यादा फायदा है।

अब क्योंकि एक वर्ग सिक्किम में भारत के पक्ष में आ चुका था, इसका सीधा मतलब रहा कि वो वर्ग सिक्किम के राजा के भी खिलाफ हो गया। इसी वजह से 1950 से 1970 के बीच में सिक्किम में मोनार्की सिस्टम का विरोध होने लगा था। उस विरोध का मतलब था कि लोकतंत्र धीरे-धीरे ही सही सांस लेने लगा था, इसी कड़ी में पहली बार सिक्किम स्टेट कांग्रेस का गठन हुआ। इस पार्टी का एक ही मकसद था, लोकतंत्र ताकतवर बने, मोनार्की सिस्टम खत्म हो।

सिक्किम को जब भारत ने बचाया

इसके विरोध में एक दूसरी पार्टी बनी- सिक्किम नेशनल पार्टी। यह मोनार्की को पसंद कर रही थी, उसकी स्वतंत्रता को बरकरार रखना चाहती थी। ऐसे में गतिरोध दो पार्टियों के बीच छिड़ चुका था। 1973 में इसी गतिरोध का एक टर्निंग प्वाइंट आया जब हजारों की संख्या में प्रदर्शकारियों ने सिक्किम में मोनार्की सिस्टिम को ध्वस्त करने की कसमें खा लीं। सिक्किम के राजा डर गए, उन्होंने सीधे भारत से मदद मांगी। अब भारत की सेना ने मदद की, लेकिन उस मदद के बदले सिक्किम में एक नया दौर शुरू हुआ। वो दौर था बड़े, ऐतिहासिक और निर्णायक राजनीतिक बदलावों का।

उस विरोध प्रदर्शन के एक साल बाद यानी कि 1974 में सिक्किम में चुनाव हुए। Kazi Lhendup Dorji की सिक्किम स्टेट कांग्रेस ने प्रचंड जीत हासिल की। यह वो पार्टी थी जो सिक्किम को मोनार्की सिस्टिम से मुक्ति दिलवाना चाहती थी। ऐसे में इस जीत ने सिक्किम का भविष्य बदल दिया था। उसी साल नया संविधान आया, सिक्किम में राजशाही की ताकत और ज्यादा सीमित कर दी गई। भारत सरकार ने भी उस साल सिक्किम को एसोसिएटेड स्टेट का दर्जा दिया और लोकसभा और राज्यसभा में एक सीट दी गई।

ऐतिहासिक जनमत संग्रह और सिक्किम हुआ भारत का

अब सिक्किम में राजशाही क्योंकि कमजोर पड़ने लगी, ऐसे में अपनी सत्ता बचाने के लिए दूसरे मुल्कों का रुख किया गया, अखबारों के जरिए भारत पर दबाव बनाने की कोशिश हुई। लेकिन उन कोशिशों को हराने का काम एक जनमत संग्रह ने कर दिया। 1975 में वो जनमत संग्रह भारत के लिए खुशखबरी लाया और सिक्किम के लोगों ने दिल खोलकर हिंदुस्तान के साथ जाना तय किया। उस समय 59,637 लोगों ने मोनार्की के खिलाफ वोट किया और भारत के साथ जाने का फैसला किया। इस तरह से 16 मई, 1975 को सिक्किम भारत का राज्य बन गया।

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