गुरु नानक जयंती कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस वर्ष सिखों के नौ गुरुओं में से पहले गुरु नानक की 554वीं जयंती मनाई जा रही है। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक के जन्मदिन को गुरु परब के रूप में मनाया जाता है। सिख इस दिन को नगर कीर्तन नामक जुलूस निकाल मनाते हैं। इस जुलूस में लोग भजन गाते हुए गुरुद्वारे तक जाते हैं।
गुरु नानक की शिक्षाओं से जिस धर्म का उद्भव हुआ, उसके अनुयायी निचली जाति के हिंदू और मुस्लिम किसान दोनों बने। आइए नानक के बारे में जानते हैं:
हिंदू परिवार में हुआ था जन्म
नानक का जन्म 15 अप्रैल, 1469 को ननकाना साहिब शहर के एक हिंदू परिवार में हुआ था। यह शहर वर्तमान में पाकिस्तान का हिस्सा है। कहा जाता है कि कम उम्र से ही उनके मन में जीवन और धर्म को लेकर दार्शनिक प्रश्न उठने लगे थे। कम उम्र में शादी और बच्चों के जन्म के बाद, एक बार उनके भीतर दार्शनिक प्रश्न उमरने लगे।
खुशवंत सिंह की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ द सिख्स’ के अनुसार, सुल्तानपुर में कुछ समय तक एकाउंटेंट के रूप में काम करने के बाद, वह मर्दाना नामक एक मुस्लिम लोक गायक से जुड़ गए। सिंह ने जन्मसाखियों का हवाला दिया, जो मौखिक परंपराओं और कुछ ऐतिहासिक जानकारी के आधार पर गुरु नानक के जीवन का लेखा-जोखा है। वे दोनों व्यक्तियों के बारे में कहते हैं, “हर रात वे भजन गाते थे। . . . वे हर आने वाले को खाना खिलाते थे … सूर्योदय से सवा घंटा पहले वह स्नान करने के लिए नदी पर जाते थे, दिन के उजाले में वह दरबार में अपना काम करते थे।”
30 साल की उम्र में हुआ आध्यात्मिक अनुभव हुआ
खुशवंत सिंह ने लिखा कि नदी के किनारे सुबह-सुबह स्नान करने के दौरान नानक को अपना पहला रहस्यमय अनुभव हुआ। जन्मसाखी इसे भगवान के साथ संवाद के रूप में वर्णित करती है। जन्मसाखी के मुताबिक, नानक को पीने के लिए एक प्याला अमृत दिया गया और इन शब्दों के साथ मिशन के लिए रवाना किया गया, “नानक, मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम्हारे द्वारा मेरा नाम बढ़ाया जाएगा। जो कोई तुम्हारे पीछे आएगा, मैं उसका उद्धार करूंगा। प्रार्थना करने के लिए दुनिया में जाओ और मानव जाति को प्रार्थना करना सिखाओ। संसार के रीति-रिवाजों से बचना। नानक, मैं तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा देता हूं। इसे अपने जीवन का मिशन बना दो।”
नानक तीन दिन और रात से लापता रहे। ऐसे में यह मान लिया गया कि वह डूब गए। चौथे दिन वह एक बार फिर नजर आए। जन्मसाखी ने मुताबिक, “नानक जाकर फकीरों से मिल गए। उनके साथ संगीतकार मर्दाना भी गए। पूरा दिन बीत गया। अगले दिन वह उठे और बोले- “कोई हिंदू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं है।” नानक इन पंक्तियों को दोहराते रहे।
पैदल-पैदल चलकर पहुंचाया संदेश
कहा जाता है कि नानक ने अपनी शिक्षाओं का प्रसार करने के लिए श्रीलंका, बगदाद और मध्य एशिया तक की यात्रा की थी। उनकी आखिरी यात्रा इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों मक्का और मदीना की थी। उन्होंने अन्य धर्मों में पूजनीय स्थलों का भी दौरा किया। इन यात्राओं को ‘उदासियां’ कहा जाता था।
उन्होंने हिंदू साधुओं और मुस्लिम फकीरों से जुड़ी शैलियों का मिश्रण पहना था। जन्मसखी उन घटनाओं का वर्णन करती हैं जो इन यात्राओं के दौरान घटित हुईं। नानक ने स्थानीय पंडितों, सूफी संतों और अन्य धार्मिक हस्तियों से भी बात की।
खुशवंत सिंह ने नानक की मक्का यात्रा के बारे में लिखा। वह एक मस्जिद में ठहरे थे। इस दौरान वह काबा (मक्का में एक क्यूब के आकार की संरचना जिसे पवित्र माना जाता है) की ओर पैर करके सो गया। इस कृत्य को ईश्वर के घर का घोर अनादर माना गया।
जब मौलवी नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद में आए, तो उन्होंने नानक को झकझोर कर उठाया और कहा: “हे ख़ुदा के सेवक, तुम्हारे पैर ख़ुदा के घर काबा की ओर हैं; तुमने ऐसा क्यों किया?” नानक ने उत्तर दिया: “तो फिर मेरे पैर किसी ऐसी दिशा की ओर कर दो जहां न ख़ुदा हो और न काबा।”
नानक ने गुरु अंगद को दूसरे गुरु के रूप में कैसे चुना?
नानक ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष करतारपुर में बिताए। उनके शिष्यों ने उनके साथ रहकर एक विशेष दिनचर्या का पालन किया। वे सूर्योदय से पहले उठते, ठंडे पानी से स्नान करते और सुबह की प्रार्थना करने के लिए मंदिर में एकत्र होकर भजन गाते। नानक की शिक्षा में सेवा मुख्य था। वह लोगों को खाना खिलाते थे। आज भी गुरुद्वारों में ‘लंगर’ खिलाना सेवा का ही एक रूप है।
नानक के एक शिष्य का नाम था लहना। चूंकि गुरु के बेटों का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर नहीं था, इसलिए नानक ने उनके बदले लहना को गुरु के रूप में चुना और उन्हें अंगद नाम दिया (जिसका अर्थ है ‘मेरे अपने अंग का’)। अंगद के अपने भी अच्छे-खासे अनुयायी थे। गुरु नानक की मृत्यु 22 सितंबर, 1539 को हुई थी।