गोवा मुक्ति दिवस हर साल 19 दिसंबर को मनाया जाता है। भारतीय सशस्त्र बलों ने वर्ष 1961 में गोवा को 450 सालों के पुर्तगाली शासन से मुक्त कराया था। वर्ष 1510 में पुर्तगालियों ने भारत के कई हिस्सों को अपना उपनिवेश बना लिया था। हालांकि 19वीं शताब्दी के अंत तक भी पुर्तगालियों का प्रभाव गोवा, दमन, दीव, दादरा, नगर हवेली और अंजेदिवा द्वीप (गोवा का एक हिस्सा) तक ही सीमित रहा।

15 अगस्त, 1947 को भारत अंग्रेजों से तो आजाद हुआ लेकिन गोवा और आस-पास के इलाकों पर पुर्तगालियों का कब्जा बना रहा। गोवा की मुक्ति के लिए 1940 से 1960 के बीच लंबा आंदोलन चला। अंतत: 1961 में ‘ऑपरेशन विजय’ चलाकर दमन, दीव और गोवा को भारतीय संघ से जोड़ लिया गया।

गोवा कैसे बना गुलाम?

डच, अंग्रेज, डेनिश तथा फ्रांसीसियों से भी पहले पुर्तगाली भारत आए थे। भारत के लिए नए समुद्री मार्ग की खोज पुर्तगाली व्यापारी वास्कोडिगामा ने 14 मई, 1498 को की थी। वास्कोडिगामा ने यात्रा पर जितना खर्च किया था, उससे करीब 60 गुना ज्यादा कमाकर वापस लौटा। इसके बाद भारत में पुर्तगालियों का आना-जाना लगा रहा। उन्होंने कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के बंदरगाहों पर अपनी व्यापारिक कोठियां बनाई।

व्यापार करने के उद्देश्य से आए पुर्तगालियों के मन में जल्द ही भारत को गुलाम बनाने की इच्छा जग उठी। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए पुर्तगाल की सरकार ने सन् 1509 में अल्फांसो द अलबुकर्क को वायसराय बनाकर भेजा। अल्फांसो को ही भारत में पुर्तगाली शक्ति का संस्थापक माना जाता है। अल्फांसो के आगमन के बाद गोवा और आस-पास के क्षेत्र करीब 450 वर्षों तक पुर्तगाल के उपनिवेश रहे।

लोहिया और गोवा मुक्ति आंदोलन

ऐतिहासिक रूप से पुर्तगाली शासकों और उनकी नीतियों के खिलाफ विद्रोह 18वीं और 19वीं शताब्दी में दर्ज किए गए थे। 18 जून, 1946 को समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने गोवा के कई युवाओं के साथ खुद को स्वतंत्रता आंदोलन में झोंकने के बाद गोवा की मुक्ति आंदोलन को गति दी। यह दिन अब गोवा क्रांति दिवस के रूप में मनाया जाता है।

1540 तक पुर्तगाली हिंदुओं और गोवा के कैथोलिकों का नरसंहार करने पर उतारू हो गए। कोंकणी भाषियों का दमन करने लगे। पुर्तगालियों ने हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया और हिंदू विवाह अनुष्ठानों पर रोक लगा दी। स्वेच्छा से ईसाई धर्म में परिवर्तित होने वाले हिंदुओं को 15 वर्षों के लिए भूमि करों से छूट दी गई। 1932 में एंटोनियो सालाज़ार की तानाशाही आने के बाद हालात और भी बदतर हो गए। लोगों को बुनियादी नागरिक स्वतंत्रता से वंचित रखा गया; भाषण, सभा और प्रेस का अधिकार भी छीन लिया गया। यहां तक ​​कि शादी के निमंत्रण कार्ड जैसी साधारण चीजों को भी सेंसर कर दिया गया था।

1946 में जब शेष भारत स्वतंत्रता की ओर बढ़ रहा था, गोवा के शिक्षाविद और लेखक डॉ. जुलियाओ मेनेजेस के निमंत्रण पर राम मनोहर लोहिया गोवा पहुंचे। यह दो दोस्तों की एक साधारण मुलाकात थी, जो जल्द ही नागरिक स्वतंत्रता के लिए एक आंदोलन बन गई। दरअसल, लोहिया के गोवा आगमन की बात सुनते ही बहुत से लोग मेनेजेस के आवास पहुंच गए। उन्होंने लोहिया को गोवा की दुर्दशा से अवगत कराया।

18 जून, 1946 भारत में पुर्तगाली शासन के अंत की शुरुआत थी। समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने गोवावासियों की खोई हुई नागरिक स्वतंत्रता के लिए आंदोलन चलाया। 18 जून, 1946 को लोहिया ने जनसभाओं पर प्रतिबंध को धता बताते हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु किया।

डॉ. लोहिया और डॉ. जूलिया मेनेजेस के साथ घोड़ागाड़ी में सवार होकर कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे। पुर्तगाली पुलिस ने अपने लोगों को हर जगह लगाया था। जैसे ही डॉ. लोहिया अपनी गाड़ी से उतरे और भाषण देने पहुंचे। पुर्तगाली अधिकारी ने लोहिया को एक पत्र दिया। उन्होंने पत्र फेंक दिया और भाषण देने ही वाले थे कि तभी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लोहिया की गिरफ्तारी के बाद गोवा में विद्रोह की जो आंधी चली, वही 1961 में पुर्तगालियों के पतन का कारण बना।

15 अगस्त, 1947 के बाद भी गुलाम रहा गोवा

15 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी गोवा अगले 14 साल तक पुर्तगाली शासन के अधीन रहा। 1947 में अंग्रेजों से भारत की आजादी के बाद गोवा की मुक्ति के आह्वान ने फिर से जोर पकड़ा। स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा कई आंदोलनों के बाद भारत ने राजनयिक चैनलों के माध्यम से गोवा की मुक्ति के लिए शांतिपूर्ण प्रयास किए। लेकिन पुर्तगाल ने 1947 के बाद भारतीय क्षेत्रों की संप्रभुता के हस्तांतरण पर स्वतंत्र भारत के साथ बातचीत करने से इनकार कर दिया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि गोवा को राजनयिक माध्यम से एकीकृत किया जाना चाहिए।

1949 में पुर्तगाल अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी सैन्य गठबंधन नाटो ( North Atlantic Treaty Organization) का हिस्सा बन गया। इससे पुर्तगालियों का उपनिवेश गोवा भी सोवियत विरोधी गठबंधन का हिस्सा बन गया। गोवा पर संभावित हमले की सामूहिक पश्चिमी प्रतिक्रिया के डर से भारत सरकार ने कूटनीति पर जोर देना जारी रखा।

1955 के अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में नेहरू ने गोवा के सत्याग्रह आंदोलन की आलोचना की थी। हालांकि, भारत सरकार ने सत्याग्रहियों पर गोलीबारी की एक घटना पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की और पुर्तगाल के साथ संबंध तोड़ लिए।

अंतिम उपाय के रूप में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने अपने सशस्त्र बलों को तटीय राज्य में भेजा, जिसके बाद पुर्तगालियों ने आत्मसमर्पण कर दिया और 19 दिसंबर, 1961 को गोवा आज़ाद हो गया। पुर्तगाली भारत छोड़ने वाले अंतिम यूरोपीय उपनिवेशवादी थे।

क्या था ‘ऑपरेशन विजय’?

भारत सरकार 1 दिसंबर की शुरुआत से सैन्य कार्रवाई करने के लिए तैयार थी। यह सैन्य अभियान 36 घंटे तक चला था। ऑपरेशन विजय 18 दिसंबर, 1961 को शुरू हुआ और 19 दिसंबर, 1961 को समाप्त हुआ।

सेना ने उत्तर और पूर्व से गोवा में आगे बढ़ी और डाबोलिम में पुर्तगाली हवाई अड्डे पर बमबारी की। भारतीय नौसेना को पुर्तगाली युद्धपोतों को कार्रवाई से रोकने, मोरमुगाओ बंदरगाह तक पहुंचने और कारवार से अंजदीप द्वीप को सुरक्षित करने का काम सौंपा गया था।

19 दिसंबर, 1961 की शाम तक पुर्तगाली गवर्नर जनरल वासालो डी सिल्वा ने भारतीय सशस्त्र बलों के सामने आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिया। यहीं से गोवा भारत सरकार के नियंत्रण में आ गया।

गोवा की मुक्ति के बाद क्या हुआ?

गोवा, दमन और दीव पहले केंद्र शासित प्रदेश थे। हालांकि, 1967 में इस सवाल पर विचार हुआ कि क्या गोवा का महाराष्ट्र में विलय कर देना चाहिए। इस सवाल पर एक जनमत संग्रह हुआ। अधिकांश लोगों ने गोवा के विलय के खिलाफ मतदान किया। इस तरह 1987 में गोवा को राज्य का दर्जा मिला। गोवा भारत का 25वां राज्य बन गया। दमन और दीव केंद्र शासित प्रदेश बने रहे।