“मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं”
इस दार्शनिक पंक्ति के रचयिता रघुपति सहाय को फिराक गोरखपुरी के नाम से जाना गया। उनका जन्म 28 अगस्त, 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उन्हें उनकी उर्दू शायरी के लिए याद किया जाता है, हालांकि प्रोफेसर वह अंग्रेजी के थे। फिराक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी कविता पढ़ाया करते थे। उन्होंने एक बार कहा था, भारत में केवल ढाई लोग सही अंग्रेजी जानते हैं। एक फिराक, दूसरा डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (भारत के दूसरे राष्ट्रपति) और आधा नेहरू (भारत के पहले प्रधानमंत्री)।
फिराक को पत्थर मारने वाले थे हिंदी के प्रोफेसर
‘हिंदी साहित्य का सरल इतिहास’ नाम से हिंदी साहित्य के इतिहास को सरल रूप में लिखने वाले विश्वनाथ त्रिपाठी की फिराक गोरखपुरी से बड़ी करीबी रही। लेकिन, इनकी शुरुआती कुछ मुलाकातें कुछ अलग ही रही थीं। त्रिपाठी से पहली ही मुलाकात में फिराक साहब ने उन्हें हिंदी के बारे में बहुत बुरा-भला कहा था। इस मुलाकात को याद करते हुए बीबीसी हिंदी से बातचीत में विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं- मैंने परिचय में बताया था कि मैं बनारस में रहता और हिंदी पढ़ाता हूं। फिराक ने हिंदी की एक कविता भी सुनी और जमकर हिंदी वालों को गालियां भी दीं।
एक अन्य मुलाकात में भी यही हुआ। इस बार भी फिराक ने हिंदी वालों के लिए अच्छे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया। अब त्रिपाठी के सब्र का बांध टूटने लगा था। उन्होंने फिराक को चेतावनी दे डाली कि वह सब को गाली दें लेकिन उनके गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को गाली न दें। फिराक तब भी न माने। इस पर त्रिपाठी ने कहा, “मैं आपको ढेला मार कर भागूंगा और आप मुझे पकड़ नहीं पाएंगे।” बकौल त्रिपाठी उनकी इस बात पर फिराक जोर से हंसे और कहा था, “पंडित जी! तुम तो असली हिंदी वाले मालूम पड़ते हो!”
स्वतंत्रता सेनानी फिराक गोरखपुरी
फिराक गोरखपुरी अंग्रेजों के खुले विरोधी थे। 1918 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में वे जेल भी गये थे। फिराक का सिविल सर्विस के लिए चयन हो गया था। डिप्टी कलेक्टर बनने वाले थे। लेकिन गांधी के असर और असहयोग आंदोलन के आह्वान में सरकारी नौकरी की आहुति दे दी।
कहा जाता है कि इसके बाद नेहरू के बुलावे पर फिराक इलाहाबाद चले गए। वहां उन्हें कांग्रेस पार्टी में 250 रुपये के मासिक वेतन पर ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का अंडर सेक्रेटरी बना दिया गया। हालांकि नेहरू के विदेश जाने के बाद फिराक ने यह पद छोड़ दिया।
फिराक गोरखपुरी साहित्यिक घराने में पले-बढ़े। उन्हें कविता से प्यार पिता से विरासत में मिला। लेकिन वह चुनावी राजनीति में एक अपवाद को छोड़कर कभी नहीं उतरे। न ही कभी मंत्री या राजदूत बनने का सपना देखा था। फिराक प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य भी थे।
चुनाव लड़े तो जमानत जब्त हो गई
फिराक को नेहरू और कांग्रेस के कई बड़े नेताओं का विश्वास प्राप्त था। लेकिन, राजनीति में उन्होंने कभी आगे बढ़ने की नहीं सोची। चुनावी मैदान में वह सिर्फ एक बार उतरे थे। आजादी से पहले कांग्रेस के लिए काम करने के बावजूद वह देश के पहले ही आम चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ खड़े हो गए थे।
1951 में आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस के खिलाफ किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई थी। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना भी इस पार्टी से जुड़े थे, इन्होंने ही फिराक को चुनावी राजनीति में उतरने के लिए मनाया। फिराक और सक्सेना, दोनों रिश्तेदार भी थे।
फिराक गोरखपुरी गोरखपुर डिस्ट्रिक्ट साउथ से मैदान में उतरे। उनका मुकाबला, हिंदू महासभा के उम्मीदवार गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजय नाथ और कांग्रेस के सिंहासन सिंह से था। फिराक की जमानत जब्त हो गई। मात्र 9586 (9.16%) वोट मिले। कांग्रेस के सिंहासन सिंह ने 57,450 (54%) वोट पाकर जीत हासिल की। महंत दिग्विजय नाथ दूसरे नंबर पर रहे।
दरअसल, इस चुनाव में किसान मजदूर प्रजा पार्टी उत्तर प्रदेश में 37 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। सभी पर न सिर्फ हार मिली थी, बल्कि 30 पर जमानत भी जब्त हो गई थी। फिराक को अपने चुनाव लड़ने का अफसोस और हारने का गम दोनों हुआ। वह इसके लिए प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना को जिम्मेदार मानते क्योंकि उन्होंने ही चुनाव लड़ने को उकसाया था।
‘द वायर’ ने सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से प्रकाशित किताब ‘फिराक: सदी की आवाज़’ के हवाले से बताया कि चुनावी हार के बाद जब फिराक की नेहरू से मुलाकात हुई, तो प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा कि ‘कैसे हैं सहाय साहब?’ इस पर फिराक गोरखपुरी ने जवाब दिया ‘अब कहां सहाय, अब तो बस हाय रह गया है।’