किसी भी देश, किसी भी राज्य की धरोहर सिर्फ उसका गीत, उसकी बोली या उसका पहनावा नहीं होती है, वहां क्या खाया जाता है, वहां के स्वाद किस प्रकार के हैं, ये सबकुछ भी किसी भी समाज की संस्कृति को एक मजबूती प्रदान करता है। बिहार जैसा राज्य भी सिर्फ अपने पर्यटन स्थल, प्राचीन इतिहास, महाराजा और पहनावे-बोली की वजह से लोकप्रिय नहीं है। यहां के व्यंजन, यहां का खानपान भी लोगों में गहरी दिलचस्पी पैदा करता है। इस राज्य ने लिट्टी चोखा से लेकर मीठे में बालूशाई तक, सबकुछ देखा है, लेकिन एक ऐसी भी धरोहर है जो वैसे तो बिहार ने कई दशकों से संजोकर रखी है, लेकिन उसकी सबसे ज्यादा चर्चा अब होने लगी है। हम बात कर रहे हैं मखाने की, वो मखाना जो पूजा में भी इस्तेमाल हो रहा है, आर्थिक सशक्तिकरण भी प्रदान कर रहा है और लोगों के स्वास्थ्य को भी बेहतर बना रहा है।

मखाने का इतिहास 2000 ईसा पूर्व तक जाता है। चीन और बिहार मखाने के जनक माने जाते हैं। अगर चीन में मखाने का प्रयोग मेडिकल के क्षेत्र में सबसे ज्यादा दिखाई देता है, भारत भी धार्मिक से लेकर आर्थिक तक, स्वास्थ्य से लेकर संस्कृति तक, मखाने की अहमियत को समझता है।

बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र में एक जिला पड़ता है- मधुबनी। इतिहासकार मानते हैं कि 200 साल पहले मधुबनी में मखाने की खेती शुरू हुई थी, फिर राजा दरभंगा के शासन में इसी क्षेत्र में मखाने की लोकप्रियता और ज्यादा बढ़ी। गरीब किसान सबसे ज्यादा मखाने की खेती में लगे थे। मखाने की खेती में क्योंकि मेहनत ज्यादा लगती थी, ऐसे में कम ही किसान इसमें दिलचस्पी दिखाते थे। लेकिन मधुबनी ने उस मेहनत को करना स्वीकार किया और आगे चलकर मखाने के लिए ही विश्व प्रसिद्ध हो गया।

चरक संहिता जैसे आयुर्वेदिक ग्रंथों में भी मखाने का जिक्र मिलता है। देखा गया है कि प्राचीन काल से ही आयुर्वेद ने भी मखाने की अहमियत, इसकी अप्रत्याशित ताकत और इसकी शुद्धता को समझा है। बिहार का मिथिला तो वैसे भी “पग-पग पोखर, माछ, मखान” जैसी कहावत के लिए प्रख्यात रही है, इस इलाके ने खुद की पहचान ही पानी, मछली और मखाने से की है। मखाने की खेती के साथ सबसे ज्यादा मल्लाह समुदाय के लोग जुड़े हुए हैं। उनकी आमदनी उतनी ना भी हो, लेकिन इस मखाने की खेती में उनका खून-पसीना खूब निकलता है।

मखाने की खेती जो करते हैं, उन्हें तालाब में काफी नीचे तक गोते लगाने पड़ते हैं, आठ से दस मिनट तक अपनी सांस रोकनी होती है। उस समय में ये लोग मखाने के पौधे से बीज तोड़ते हैं। दिखने में मखाने का पौधा कमल जैसा दिखाई देता है, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि मखाने के पौधे में कई सारे छोटे कांटे होते हैं। इन कांटों की वजह से ही मखाने की कटाई में काफी मेहनत लगती है। मल्लाह समुदाय के लोग छड़ी और डंडों की मदद से पौधों को साफ करते हैं और सारे बीज इकट्ठा करते हैं। बाद में उन बीज को साफ किया जाता है, धूप में सुखाया जाता है। फिर उन्हीं बीजों को भूनकर मखाना तैयार हो जाता है।

बिहार की संस्कृति में भी मखाने ने अपनी एक अहम उपस्थिति दर्ज करवाई है। इसे पवित्र तो माना ही जाता है, प्राचीन काल से इसे व्रत वाले अन्न के रूप में देखा गया है। धार्मिक अनुष्ठान भी मखाने के बिना अधूरे ही माने जाते हैं। जानकार बताते हैं कि ‘मख’ और ‘अन्न’ दो शब्दों से मिलकर मखाना बना है, इसका मतलब होता है अनुष्ठानों में प्रयोग किए जाने वाला अनाज।

बिहार के मिथिला में कोजागरा उत्सव का काफी महत्व है। अश्विन मास की पूर्णिमा में इस पर्व को मनाया जाता है। इस दौरान नवविवाहित जोड़ों के लिए उपहार के तौर पर मखाने बांटे जाते हैं। इन्हें समृद्धि और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है।

बिहार की आर्थिक सेहत सुधारने में भी मखाना अपनी एक अहम भूमिका अदा कर रहा है। देश में मखाने का जितना उत्पादन होता है, उसका 85 फीसदी हिस्सा से बिहार में पैदा होता है। 2023-24 के बिहार आर्थिक सर्वे ने भी इस बात की तस्दीक की है। राज्य का मखाना उत्पादन 56.4 हजार टन रहा है, वहीं इसके लिए 27.8 हजार हेक्टेयर भूमि का इस्तेमाल हुआ।

एक सर्वे के मुताबिक बिहार के 25 हजार से ज्यादा किसान मखाने की खेती में लगे हुए हैं। मखाना किसानों की मेहनत और लगन ने इस मखाने को भारत सरकार से GI टैग भी दिलवा दिया है। अब तो भारत सरकर ने मखाना बोर्ड के गठन का भी ऐलान किया है। जानकार मानते हैं कि इससे भी मखाने के उत्पादन में और तेजी आएगी, इसकी पहचान और मजबूत होगी और किसानों की आय बढ़ने में भी मदद मिलेगी।

ऐसे में मखाना निकट भविष्य में सिर्फ बिहार की धरोहर बनकर नहीं रहने वाला है, ये पूरी दुनिया में अपना डंका बजाएगा। कोई इसे सुपरफूड के रूप में देख रहा है, कोई इसका धार्मिक महत्व समझ रहा है तो कोई इसे अपनी आजीविका का सहारा बना रहा है।

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