तमाम अन्य विषयों की तरह शहर और गांव को लेकर भी मोहनदास करमचंद गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर में गहरे मतभेद थे। जहां गांधी एक-एक गांव को अलग-अलग गणतंत्र मानते थे। वहीं डॉ. अंबेडकर गांवों को बूचड़खाना मानते थे। भारत के पहले कानून मंत्री के ऐसे विचार क्यों थे, यह जानेंगे। उससे पहले गांधी के लिए गांव का क्या महत्व था, यह समझ लेते हैं।

गांव को लेकर गांधी के विचार

भारत की आजादी से थोड़े समय पहले गांधी गांव को लेकर अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहते हैं, “आजादी नीचे से शुरू होती है। इस प्रकार प्रत्येक गांव एक-एक ऐसा गणतंत्र या पंचायत होगा जिसके पास सम्पूर्ण शक्तियां होंगी। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक गांव को आत्मनिर्भर होना होगा और अपने मामलों का प्रबंधन स्वयं करने योग्य होना पड़ेगा, इतना कि वह पूरे विश्व से अपनी रक्षा कर सके। असंख्य ग्रामों से बने इस ढांचे में हमेशा फैलते, कभी-न-ऊपर उठते हुए चक्र होंगे। जीवन एक पिरामिड नहीं होगा जिसमें शीर्ष, नीचे वालों के कन्धों पर खड़ा हो। बल्कि यह एक महासागरीय चक्र होगा जिसके केंद्र में कभी भी अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर व्यक्ति होगा। इसलिए सबसे बाहरी परिधि के पास आंतरिक चक्र को कुचलने की शक्ति नहीं होगी बल्कि वह सभी अंदरूनी चक्रों को ताकत देगी और खुद की शक्ति इनसे प्राप्त करेगी।”

एक अन्य जगह गांधी लिखते हैं, “मैं तो कहूंगा कि यदि गांव नष्ट हो गये तो भारत भी नष्ट हो जायेगा। भारत, भारत नहीं रहेगा। दुनिया में उसका अपना मिशन खो जाएगा।”

गांव को लेकर अंबेडकर के विचार

डॉ. अंबेडकर गांव को बूचड़खाना कहते हैं। अंबेडकर के लिए गांव दलितों का बूचड़खाना है, क्योंकि दलितों को उत्पीड़ित करने वाली शक्तियां वहां मजबूत हैं। वे गांवों का वर्णन इस प्रकार करते हैं, “हिंदू गांवों को एक गणतंत्र के रूप में देखते हैं और वे उसकी आन्तरिक संरचना पर गर्व करते हैं, जिसमें न लोकतंत्र है, न समानता, न स्वतंत्रता, न भाईचारा। यह ऊंची जातियों के लिए ऊंची जातियों का गणराज्य है। अछूतों के लिए यह हिंदुओं का साम्राज्यवाद है। यह अछूतों के शोषण का एक उपनिवेश है, जहां उनके पास कोई अधिकार नहीं है। असीम धैर्य और विवशता के साथ सेवा ही इस गांव में दलितों की नियति है। उनके पास दो ही विकल्प हैं, वे इस काम को करें या मरें।”

इन्हीं कारणों से अंबेडकर ये महसूस करते थे कि गांवों से बड़े शहरों की ओर दलितों का प्रवास, इस प्रकार के उत्पीड़न से मुक्ति पाने में उनकी मदद करेगा। अंबेडकर ने 4 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में भाषण देते हुए कहा, “गांव, स्थानीयता का एक गंदा हौदा, अज्ञानता की मांद, संकीर्ण मानसिकता और सांप्रदायिकता/जातिवाद का स्थान है।”

कौन सही, कौन गलत?

प्रतिष्ठित बुकर प्राइज से सम्मानित लेखिका और एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय ने अपनी किताब ‘एक था डॉक्टर एक था संत’ में इस विषय पर विस्तार से विचार किया है। वह लिखती हैं, “यदि गांधी में पश्चिमी आधुनिकता की कट्टर आलोचना, ठेठ भारतीय परम आनन्द की रूमानी यादों से उपजी थी, तो आंबेडकर की उन रूमानी यादों की आलोचना व्यावहारिक पश्चिमी उदारवाद और उसकी प्रगति व प्रसन्नता से उपजी थी।”

गांधी और अंबेडकर के विचारों की तुलना करते हुए रॉय लिखती हैं, “अंबेडकर की न्याय की अपनी परिकल्पना के कारण, उनकी नजर गांव से हटकर शहर की ओर गई। शहरीकरण, आधुनिकता और उद्योगीकरण – बड़े शहर, बड़े बांध, बड़ी सिंचाई परियोजनाएं की तरफ गई। विडम्बना यह है कि यही ‘विकास’ का वह आदर्श मॉडल है जिसे हज़ारों लोग आज अन्याय के साथ जोड़कर देखते हैं, एक ऐसा मॉडल जो पर्यावरण को बर्बाद करता है। एक ऐसा मॉडल जो खनन, बांधों और अन्य बड़ी आधारभूत परियोजनाओं के लिए जबरन दसियों लाख लोगों को उनके गांवों और घरों से विस्थापित करता है।”

वह आगे कहती हैं, “इस बीच गांधी का कल्पित गांव है, जो अपने भयानक अन्तर्निहित अन्याय के प्रति बिलकुल अन्धा है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि वह गांव इन सभी न्याय (पर्यावरण आदि) के संघर्षों का तावीज़ बन गया है। यदि आदर्शलोकों को ‘सही’ या ‘गलत’ कहा जा सकता है, तो दोनों सही थे, और दोनों ही गम्भीर रूप से गलत भी थे।”