मध्यकालीन भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि पर साहित्य के स्वर्णयुग में भारत के भविष्य की आधारशिला रखी गई। ऐसा माना जाता है कि साहित्य का स्वर्ण युग 16वीं सदी तक चला। सूरदास, तुलसीदास, कबीर, रहीम, और बिहारीलाल स्वर्णयुग के ऐसे कवि थे, जिन्होंने भारतीय साहित्य को उच्चतम शिखर तक पहुंचा दिया था। इनमें निसंदेह तुलसीदास एक ऐसे कवि हुए हैं जिनके एक काव्य – रामचरितमानस – ने भारतीय मानस में ऐसी जगह बनाई जिसका जग में कोई सानी नहीं।
11 अगस्त 1511 को जन्मे एक बच्चे के मुख में 32 दांत थे और उसने पैदा होते ही ‘राम’ शब्द बोला था। इसलिए उसका बचपन का नाम रामबोला पड़ गया। बड़ा होकर यही रामबोला दुबे नामक बालक राम का अनन्य भक्त और विश्व मानव इतिहास का सबसे अधिक पढ़ा और गाए जाने वाला कवि बना, जिनकी आराधना आज तक तुलसीदास के नाम से होती रही है और अनंतकाल तक होती रहेगी।
तुलसीदास ने संस्कृत, अवधी, और बृजभाषा में अनेक रचनाएं कीं, परन्तु अवधी में लिखा उनका काव्य राम चरित मानस एक महाकाव्य बन गया। लाखों परिवारों में नित्य पढ़ा और गाया जाने वाला यह महाकाव्य सनातन धर्म को आलोकित और पोषित करने वाला अमर स्रोत बन गया।
मुगल शासन की कुरूपताओं के मध्य लिखा गया तुलसी का काव्य मुगलों के अंत का भी एक शास्त्र-शस्त्र बना। राम चरित मानस ने सनातन धर्म के
पुनर्जागरण में ऐसी भूमिका निभाई कि मुगल शासन न केवल तिनकों की तरह बिखर गया, वरन वह डायनोसोर की तरह विलुप्त भी हो गया। यह थी एक संत कवि की शक्ति!
आज के समय में, जब राम के जन्मस्थल अयोध्या में भगवान् राम का भव्य मंदिर सनातन धर्म का प्रतीक बन गया है, तो हमें तुलसीदास की स्मृतियों को अपने मष्तिष्क पटल पर उभारने की आवश्यकता है। तुलसी ही हैं जिन्होंने राम को हर भारतीय के हृदय, मष्तिष्क, और आत्मा में स्थापित किया।
तुलसीदास का योगदान न केवल उनकी साहित्यिक प्रतिभा में है, बल्कि उनके दृढ़ दृष्टिकोण में भी जो उन्होंने भारतीय समाज को मुगल प्रभाव के घेरे के मुक्त होने के लिए विकसित किया था। जब मुगलों ने भाषाई और संस्कृति के माध्यम से अपने प्रभुत्व का ग्रहण भारतीय संस्कृति पर लगाया, तुलसीदास ने सनातन संस्कृति का एक रक्षक बनकर एक साहित्यिक कृति तैयार की। तुलसीदास ने मुगलों की भाषा शैली के एक भी शब्द और उनकी अपसंस्कृति की छाया तक को अपने रामचरितमानस पर नहीं पड़ने दिया।
गोस्वामी तुलसीदास ने 16वीं सदी में राम चरित मानस रचा। ऐसा माना जाता है भारतीय मानस को भवसागर पार लगाने वाले इस अनुपमतम ग्रंथ की रचना 1574 और 1576 के बीच हुई थी। यद्यपि ऐतिहासिक विवरणों में यह समय सीमा भिन्न हो सकती है, लेकिन राम चरित मानस स्वयं में कालजयी है और विश्वभर में फैले भारतीयों की एक अनमोल धरोहर।
मध्य युग में आततायी विदेशी मुगलों के विरुद्ध हिन्दू राजाओं और सिख गुरुओं के संघर्षों के बीच अपनी रचनात्मक तपस्या में गहराई से रत तुलसीदास एक अदृश्य नायक के रूप में सामने आए। तुलसी के राम चरित मानस ने अखिल भारतीय हिन्दू समाज के लिए एक संगठनात्मक बल प्रदान किया, भगवान राम को भारतीय सभ्यता के आदर्श नायक के रूप में प्रस्तुत करते हुए सनातन समाज को मुगलों के विरुद्ध संघर्ष के लिए प्रेरित किया।
तुलसीदास की साहित्यिक कृति का प्रभाव केवल मुगलों के समूल नष्ट होने तक ही सीमित नहीं रहा। हमारे अर्वाचीन काल में तुलसीदास एक अदृश्य नायक के रूप में हमारे बीच विद्यमान हैं। तुलसी के रामचरितमानस की गूँज सारे ब्रह्माण्ड में विस्तृत हो रही है। भारत के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पुनर्जागरण में राम चरित मानस का प्रभाव रंग ला रहा है। अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण के साथ-साथ राम की पूजा और सनातन धर्म के पुनर्जागरण के हवन में तुलसीदास की ही सामग्री है।
विदेशी आक्रांतों से देश को मुक्त करने और भारतवर्ष की सनातनी प्रासंगिकता को पुनः स्थापित करने के पुण्य और सार्थक प्रयासों को आत्मसात करते हुए, तुलसीदास को ‘राष्ट्र जनक’ कहना वास्तव में अतिश्योक्ति नहीं है। राम का पुरुषोत्तम रूप, राम की शक्ति, राम की दिव्यता, और रामराज्य के सारे भाव-दर्शन संत तुलसीदास ही कराते हैं। भारत राष्ट्र चिंतन के सतत प्रेरणा स्रोत के रूप में राम चरित मानस काव्यशास्त्र ने तुलसी को एक ऐसा महान साहित्यकार बना दिया है जो चिरकाल तक भारत की अक्षुण्णता का पालनहार बना रहेगा।
तुलसीदास के योगदान से हिन्दू समाज को अपनी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विरासत के प्रति गर्व की अनुभूति होती है और एक सजीव दिव्यता का स्रोत मिलता है। राम चरित मानस, वास्तव में, एक कवि की अन्तर्निहित सृजनशक्ति का संदेश भी भविष्य के सभी साहित्यकारों को देता रहेगा।
तुलसीदास की अनमोल काव्यकृति ने भारतीय समाज को राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रदान किया है। उनके दृढ़ संकल्प ने समय के साथ चरित्रित होते हुए उन्हें एक महान साहित्यकार बना दिया है जो आज भी हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक धाराओं का समर्थन करता है। इस प्रकार, गोस्वामी तुलसीदास का योगदान एक नए परिप्रेक्ष्य में हमारे समाज के लिए महत्वपूर्ण है जो हमें हमारी संस्कृति और धरोहर के प्रति गर्व महसूस कराता है।
तुलसी ने जहां भारत नायक राम को समस्त भारतीय संस्कारों के स्रोत के रूप में अपने काव्य के माध्यम से जन मानस में उतारा है, वहीं वीर हनुमान को भारत के रक्षक के रूप में चित्त में धारण कराया है: ‘तुम रक्षक काहू का डरना’… तुलसी ने भारत भूमि को भय-मुक्त कर दिया है।
30 जुलाई 1623 को बनारस में तुलसीदास ने देह त्याग कर दिया। मृत्यु देह की होती है, संस्कृति की नहीं। महान साहित्यकार और अपने काल को एक नया मोड़ देने वालों की सांस्कृतिक मृत्यु कभी नहीं होती। राम चरित मानस और हनुमान चालीसा लेकर तुलसीदास सांस्कृतिक अवतार के रूप में आज भी हमारे बीच विराजमान हैं और और सदैव रहेंगे।
(लेखक वीर सिंह, जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एमेरिटस हैं।)