इंदिरा गांधी के करीबी रहे योग गुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी का जन्म 12 फरवरी, 1924 को हुआ था। नेहरू-गांधी परिवार से उनके घनिष्ठ संबंध रहे। लेकिन चावल से जुड़ी एक घटना के बाद ब्रह्मचारी ने गांधी परिवार का भरोसा खो दिया। हालत ये हो गई कि इंदिरा गांधी की मौत के बाद ब्रह्मचारी को पूर्व प्रधानमंत्री के पार्थिव शरीर तक नहीं जाने दिया गया था।
लेकिन धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने गांधी परिवार का भरोसा कैसे खोया? इस सवाल का जवाब मीडिया टाइकून डॉ. सुभाष चंद्रा (Zee Media Owner) ने अपनी किताब ‘द जेड फैक्टर: माई जर्नी एज़ द रॉन्ग मैन ऐट द राइट टाइम’ में दिया है। उन्होंने किताब में धीरेंद्र ब्रह्मचारी के साथ के अपने अनुभव दर्ज किए हैं। चंद्रा ने एक राइस डील के बारे में बताया है, जिसके बाद धीरेंद्र ब्रह्मचारी का नेहरू-गांधी परिवार से फाइनल ब्रेकअप की शुरुआत हो गई थी।
लड़कियों से घिरे रहते थे धीरेंद्र ब्रह्मचारी
चंद्रा ने लिखा है, “धीरेंद्र ब्रह्मचारी का ध्यान पैसे पर केंद्रित रहता था। वह हमेशा नए अवसरों के लिए खुले रहते थे… रिश्ते को बनाए रखने के लिए मैं उनसे सप्ताह में दो या तीन बार मिलता था। वह आमतौर पर पांच-छह युवतियों से घिरा रहते थे। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि उनका व्यक्तित्व चुंबकीय था। महिलाओं को वह बहुत आकर्षक लगते थे। वह पूरे साल धोती पहनते थे, यहां तक कि कड़ाके की सर्दी में भी। उन्होंने चावल के सौदे में मेरी मदद की, लेकिन यह उनके पतन का कारण भी बना। यूएसएसआर के साथ चावल व्यापार में उनकी भूमिका के कारण वह गांधी परिवार की नजर में गिर गए। मेरे अलावा, बमुश्किल दो या तीन लोग ही ब्रह्मचारी के गांधी परिवार से दूर होने का असली कारण जानते थे।”
चावल डील से चंद्रा बाहर
ये उन दिनों की बात है जब सुभाष चंद्रा चावल का बिजनेस किया करते थे। तब चावल रूस से निर्यात होता था। इसके लिए कंपनियों के साथ कॉन्ट्रैक्ट किया जाता था। 1983 का अनुबंध दिसंबर 1982 में होना था।
ब्रह्मचारी के एक निर्देश से चंद्रा को पता चला कि भविष्य में चावल का सारा निर्यात योग गुरू की अपनी नवगठित कंपनी द्वारा किया जाएगा। ब्रह्मचारी ने इस बारे में विजय धर को भी बता दिया।
चंद्रा लिखते हैं, “मुझसे कहा गया कि अब मुझे कॉन्ट्रैक्ट नहीं मिलेगा, जबकि अगले साल के अनुबंध के लिए मुझसे 2 करोड़ रुपये की अग्रिम राशि ले ली गई थी। मैंने कहा कि अगर मुझे कॉन्ट्रैक्ट नहीं मिला तो कोई बात नहीं, लेकिन एडवांस मुझे लौटा दिया जाए। ब्रह्मचारी ने पैसा लौटाने से इनकार कर दिया। उन्होंने सोचा कि मैंने अपनी योग्यता से अधिक कमाया है और इसलिए उन्हें मेरे पैसे लौटाने की जरूरत नहीं है। मेरे पास चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। लेकिन एक दिन विजय धर ने मुझे मिलने के लिए बुलाया और पूछा, आपके और ब्रह्मचारी जी के बीच क्या हुआ है?”
उन दिनों गांधी परिवार के करीब दो गुट थे। एक गुट “कश्मीरी ग्रुप” के नाम से जाना जाता था, जिसमें एमएल फोतेदार, अरुण नेहरू और विजय धर शामिल थे। दूसरे समूह में आरके धवन, धीरेंद्र ब्रह्मचारी और कुछ अन्य लोग शामिल थे। दोनों समूह प्रतिद्वंद्वी थे और सत्ता पर कब्ज़ा करना चाहते थे।
चंद्रा लिखते हैं, “मैंने धर को स्वामीजी के अपनी कंपनी के माध्यम से चावल निर्यात करने के निर्णय के बारे में बताया। और यह भी कि उन्होंने अगले वर्ष के निर्यात ऑर्डर के लिए लिया गया मेरा अडवांस नहीं लौटने का निर्णय लिया है। धर ने पूछा- आपने अब तक कितने पैसे दिए हैं? मैंने ईमानदारी से धर को आंकड़ा बताया क्योंकि वह राजीव और मेरे बीच की महत्वपूर्ण कड़ी थे।”
राजीव तक पहुंची राइस डील की बात
ये सब सुनकर धर ने चंद्रा को इंतजार करने के लिए कहा और बगल के कमरे में राजीव गांधी से बातचीत करने चले गए। अब चंद्रा को लग रहा था कि वह बड़े लोगों की लड़ाई में फंस गए। इतने में राजीव गांधी आए। उन्होंने चंद्रा से सवाल-जवाब किया। चंद्रा ने डर में आकर कहा कि अगर पैसा मिल सकता है तो ठीक है, वरना मैं इस नुकसान को नसीब का लिखा मान लूंगा।
राजीव गांधी ने आश्वासन दिया कि उनके भविष्य को कुछ नहीं होगा। इसके बाद चंद्रा को इंदिरा गांधी के सामने पेश करने की योजना बनी। इस दौरान चंद्रा बुरी तरह डरे हुए थे। उन्होंने लिखा है, “इंदिरा गांधी का सामना करने की संभावना ने मुझे और भी भयभीत कर दिया।”
चंद्रा लिखते हैं, “कुछ दिनों बाद मुझे रात 9 बजे सफदरजंग रोड स्थित प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आवास पर पहुंचने के लिए कहा गया। घर छोड़ने से पहले, मैंने अपने परिवार से कहा कि मैं शायद उस रात वापस नहीं लौटूंगा। मैं भयभीत था। मुझे नहीं पता था कि आगे क्या होगा। मैंने जवाहर से उसी रात मेरे लिए लंदन की फ्लाइट बुक करने को कहा। मैंने उनसे कहा कि अगर कोई परेशानी हुई तो मुझे उस रात भारत छोड़ना पड़ सकता है। मैं एक छोटे शहर का बत्तीस वर्षीय व्यापारी था। मैं देश के शासक परिवार के आसपास के दो शक्तिशाली समूहों के बीच लड़ाई के केंद्र में फंस गया था। मैं सुरक्षा प्राप्त करने के लिए किसी भी समूह के करीब नहीं था।”
“मेरी पैंट में पेशाब करीब-करीब निकल ही गया था”
नियत दिन पर, मैं रात 9 बजे तक प्रधानमंत्री के आवास पर पहुंच गया। मुझे इंतजार करने के लिए कहा गया। इंदिरा गांधी को उस शाम यूरोप के लिए उड़ान भरनी थी। मैंने आधे घंटे तक इंतजार किया, फिर एक घंटा और बीत गया। दो घंटे बीत गए। ये इंतज़ार और भी भयावह था। वह दिसंबर की रात थी और काफी ठंडी थी। आखिरकार, मुझे रात करीब 11.15 बजे कमरे के अंदर बुलाया गया।
कमरे में इंदिरा गांधी, राजीव और धीरेंद्र ब्रह्मचारी बैठे थे। यह 1982 की बात है। राजीव सरकार में नहीं थे, लेकिन सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के महासचिव थे। कुछ सेकंड के लिए सन्नाटा छा गया। उन्होंने (इंदिरा गांधी) मुझे बहुत गौर से देखा। मैंने पैंट में ही पेशाब करीब-करबी कर ही दिया था। श्रीमती गांधी ने मुझे करीब से देखा और बोलीं- मुझे लगा आप एक उम्रदराज व्यक्ति होंगे, लेकिन आप तो युवा हैं।”
इंदिरा ने पूछा आपने कितने पैसे दिए हैं स्वामी जी को? चंद्रा ने बताया कि इस साल के लिए लगभग दो करोड़ रुपये एडवांस दिए हैं। इंदिरा गांधी ने कहा- नहीं, नहीं। मैं जानना चाहती हूं कि आपने कुल कितना भुगतान किया है। चंद्रा ने पूरा आंकड़ा दिया।
चंद्रा लिखते हैं, “स्वामीजी की आंखें चमक रही थीं। वह मुझे नफरत और गुस्से से देख रहे थे। मैं उन्हें कनखियों से देख रहा था। मुझे भूखी बिल्लियों से घिरे चूहे जैसा महसूस हो रहा था। मुझसे दो-तीन सवाल पूछे गए और फिर मुझे कमरे से बाहर जाने की इजाजत दे दी गई। जैसे ही मैं जा रहा था, राजीव जी ने मुझे दूसरे कमरे में इंतज़ार करने के लिए कहा। एक घंटे बाद वह बाहर आये और बोले- बधाई हो, अब जाओ और आराम करो।
मैं तुरंत चला गया, राहत महसूस की, लेकिन उलझन में था। रात के लगभग एक बजे थे। मैंने करीब चार घंटे पूरी तरह दहशत में बिताए थे। मैं 1.30 बजे अपने पंजाबी बाग स्थित घर पहुंचा और शराब पी। उसी दिन से स्वामी जी का पतन प्रारम्भ हो गया। मुझे लगता है कि उसके बाद गांधी परिवार ने उन पर पूरा भरोसा नहीं किया।